संपादकीय

मानव मिशन का आगाज
Posted Date : 19-Nov-2018 1:30:18 pm

मानव मिशन का आगाज

भारत की अंतरिक्ष में भरोसेमंद दस्तक
भारत ने बुधवार को जहां श्रीहरिकोटा से इसरो के अब तक के सबसे भारी-भरकम कम्यूनिकेशन सैटेलाइट जीसैट-29 को उसकी कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया, वहीं उसे ले जाने वाले जीएसएलवी मार्क-3डी टू का भी सफल प्रक्षेपण किया। अंतरिक्ष विशेषज्ञ ?इस दोहरी सफलता को भारत की महत्वाकांक्षी मानव मिशन की पहली कामयाबी के रूप में देख रहे हैं। हमने इस मिशन का ?अहम पड़ाव पूरा किया है। इसरो ने वर्ष 2022 से पहले भारत की धरती से किसी भारतीय को अंतरिक्ष में भेजने का लक्ष्य तय किया है, उसी की तैयारी के रूप में इस दोहरी सफलता को देखा जाना चाहिए। इससे पहले इसरो ने जुलाई में ‘क्रू इस्केप सिस्टम’ का सफल परीक्षण किया था, जो अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम था। यह सिस्टम अंतरिक्ष अभियान को किसी व्यवधान की वजह से रोके जाने की स्थिति में अतंरिक्ष यात्रियों को सुरक्षित निकलने में मदद करता है। इस परीक्षण में सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से डमी क्रू मॉड्यूल के साथ क्रू स्केप सिस्टम का परीक्षण किया गया था। यह सिस्टम आकाश में छोड़ा गया और श्रीहरिकोटा से तीन किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी में पैराशूट की मदद से सुरक्षित उतारा गया।
दरअसल, ऐसे सुरक्षात्मक परीक्षण के बिना अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजे जाने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था। मिशन में किसी तरह की गड़बड़ी या राकेट में आग लग जाने की स्थिति में इसके जरिये अंतरिक्ष यात्रियों की जान बचायी जा सकती है। इस टेस्ट को भारत ने पहली ही बार में पास कर लिया। ऐसा सिस्टम दुनिया में सिर्फ अमेरिका, रूस व चीन के पास है। भारत चौथा देश है। दरअसल, मानव अंतरिक्ष मिशन को लेकर इसरो कई प्रयोग कर रहा है ताकि सरकार से हरी झंडी मिलने पर तुरंत मानव मिशन को अंजाम दिया जा सके। जीएसएलवी मार्क 3 का प्रक्षेपण अब अगले साल होगा, जो चंद्रयान-2 सैटेलाइट को लेकर जायेगा। दरअसल, जीसैट-29 मूलत: संचार उपग्रह है, जो जम्मू -कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में संचार सुविधाओं का विस्तार करेगा। इसके जरिये देश के दुर्गम इलाकों में इंटरनेट सुविधाओं का भी विस्तार किया जायेगा। साथ ही डिजिटल इंडिया के लक्ष्य को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा। ?इस उपग्रह में उच्च गुणवत्ता वाला कैमरा भी लगा है जो दिन में लगातार तस्वीरें भेजकर दुश्मन के जहाजों की संदिग्ध गतिविधियों की निगरानी करेगा। साथ ही मौसम संबंधी सटीक जानकारियां भी उपलब्ध करायेगा। इस तरह यह महत्वपूर्ण सफलता है।

 

खुली मंडी व्यवस्था के बढ़ते जोखिम
Posted Date : 18-Nov-2018 11:53:21 am

खुली मंडी व्यवस्था के बढ़ते जोखिम

देविंदर शर्मा
हरियाणा की मंडियों में साथ लगते उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों से गेहूं और धान की फसल की आमद कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस साल जब धान की खरीद चरम पर थी तो बिहार से बड़ी मात्रा में चावल पंजाब और हरियाणा की मंडियों में बिकने आया। छपी खबरों के मुताबिक पंजाब खाद्य एवं सप्लाई महकमे द्वारा महीने भर चलाई गई कार्रवाई में बिहार से पहुंचे 2.5 लाख से ज्यादा धान के बोरे जब्त किए गए। इसके अलावा पिछले साल धान की फसल से बिहार के खाद्य आपूर्ति विभाग के लिए विशेष तौर पर बनाए गए 2 लाख से ज्यादा बोरे भी बरामद किए गए। इसी तरह हरियाणा में भी सितंबंर माह में बिहार खाद्य आपूर्ति विभाग के चावल से भरे 1.25 लाख बोरे करनाल और आसपास के इलाकों से बरामद हुए हैं। अवश्य इस घालमेल के पीछे बिहार, उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के व्यापारियों का गठजोड़ है जो अपने क्षेत्र के सस्ते चावल को हरियाणा-पंजाब में अपेक्षाकृत ऊंची कीमतों की वजह से चोरी-छिपे भेजते हैं।
इसके पीछे कारण सीधा है, जहां उत्तर प्रदेश के पास कृषि उत्पाद मंडी कमेटी कानून (एपीएमसी एक्ट) के अंतर्गत मंडियों का सुचारु नेटवर्क नहीं है, वहीं बिहार ने इसके प्रावधानों को 2006 में ही निरस्त कर दिया था, जिसकी वजह से किसान अपने गेहूं और चावल को खुली मंडियों में सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कहीं कम कीमतों पर बेचने को मजबूर हुए हैं। बिहार में जहां निम्न दर्जे का धान 800-900 रुपये प्रति क्विंटल और बढिय़ा वाले का मूल्य अधिकतम 1,300 से 1,500 रुपये के बीच है वहीं पंजाब और हरियाणा में इस जिंस के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य इससे काफी ज्यादा यानी 1,750 रुपये प्रति क्विंटल है।
बिहार के बाद एपीएमसी कानून में बदलाव लाने वाला महाराष्ट्र दूसरा राज्य बन गया है। पहले एक अधिसूचना जारी की गई थी कि व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर जिंस नहीं खरीद सकते लेकिन चंद महीनों बाद इसको बदलते हुए जो कानून लागू किया गया, उसमें तमाम कृषि उत्पाद मूल्य-नियंत्रण व्यवस्था से बाहर कर दिए गए। नए निर्देशों के अनुसार कृषक किसान राज्य की मूल्य नियंत्रित एपीएमसी मंडियों से इतर खुले बाजार में अपने उत्पाद बेच सकते हैं। वर्ष 2016 में महाराष्ट्र ने एक अन्य सुधार में फल और सब्जियों को एपीएमसी एक्ट से मुक्त किया था लेकिन इस बारे कोई सर्वे यह बताने के लिए नहीं है कि क्या इससे उत्पादकों को कोई मदद मिली भी है या नहीं। केवल यही रिपोर्टें देखने को मिलती हैं कि सब्जियों के उचित मूल्य न मिलने पर, जो उनकी लागत से भी कहीं कम होता है, गुस्साए किसानों ने अपने उत्पाद सडक़ों पर फेंक दिए हैं।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री सदाभाऊ खोत ने एक्ट हटाने की घोषणा करते वक्त मीडिया चैनलों से कहा, ‘पहला कदम अधिसूचना जारी करना है और विस्तृत नियम 15 दिनों के भीतर जारी कर दिए जाएंगे, इस पीछे मंतव्य एपीएमसी सुविधाओं वाली मंडियों के समानांतर निजी बाजार तैयार करना है ताकि स्वस्थ मूल्य-प्रतिस्पर्धा बन सके।’ हालांकि यह पूरी तरह पक्का नहीं है कि एपीएमसी एक्ट में किए गए इन सुधारों ने किसानों की उचित मूल्य मिलने में कितनी मदद की है, लेकिन यह देखना जरूर रोचक होगा कि इन नए खुले व्यापार प्रावधानों के तहत महाराष्ट्र का धान कितनी जल्द पंजाब और हरियाणा की मंडियों का रुख करता है। जब लगभग 12 साल पहले बिहार ने एपीएमसी एक्ट को रद्द किया था तब भी इसी तरह की उम्मीदें लगाई गई थीं। इसके पीछे मूल विचार यह बताया गया था कि एपीएमसी मंडियों के एकाधिकार वाली मूल्य नियंत्रण प्रणाली से मुक्ति के बाद फसल की खरीद में निजी निवेश बढ़ेगा और यह कॉर्पोरेट सेक्टर को सीधी बाजार व्यवस्था बनाने के लिए प्रेरित करेगा, जिससे ज्यादा सुचारु मंडी तंत्र कायम हो सकेगा, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। तथ्य तो यह है कि बिहार का मामला यह जानने हेतु एक प्रयोग बनकर रह गया कि कैसे कृषि क्षेत्र शोषण करने में परिवर्तित हो जाता है।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री का कहना है कि नए बदलाव केंद्र सरकार के मॉडल कृषि उत्पाद एवं पशु मंडी अधिनियम 2017 के मुताबिक किए गए हैं। यही तो समस्या है। वर्ष 2002 में अंतर-मंत्रालय टास्क फोर्स ने पहले पहल इस अधिनियम में जो सुधार सुझाए थे, वे ज्यादातर उद्योग जगत के सुझाए नुस्खों पर आधारित थे। ये लोग न्यूनतम मूल्य वाली व्यवस्था के न रहने पर छोटे किसानों को होने वाले सामाजिक नुकसानों का सही तरह आकलन नहीं कर पाए थे। खाद्य सुरक्षा यकीनी करने में मदद के वास्ते अनुबंध-कृषि, सीधी बाजार व्यवस्था और पीपीपी मोड वाली खेती बनाना इसका उद्देश्य था। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने भी न्यूनतम मूल्य वाली व्यवस्था को हटाने पर यह कहते हुए सवाल उठाए थे कि इससे नतीजे में पडऩे वाले सामाजिक दुष्प्रभावों का आकलन किए जाने की जरूरत है।
एपीएमसी को हटाने पर जो एक मुख्य दलील दी जाती है कि यह आढ़तियों के गठजोड़ का अड्डा बन गया है, वह एकदम सही है परंतु यह सरकार की प्रशासनिक असफलता का नतीजा ज्यादा है। मौजूदा मंडी व्यवस्था को निजी क्षेत्र के इससे भी बड़े शातिर गठजोड़ से बदलना कोई बेहतर कदम नहीं होगा और यह कृषि क्षेत्र को भी कॉर्पोरेट तंत्र के हवाले करने का सबब बनेगा। मुनाफे और कीमतों का सामाजीकरण करने के चक्कर में हम तेजी से निजीकरण की ओर भाग रहे हैं।
बहरहाल, महाराष्ट्र में एपीएमसी एक्ट में छूट ऐसे समय में आई है जब कुछ हफ्ते पहले ही केंद्र सरकार ने कृषि उत्पादों का 25 प्रतिशत हिस्सा बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने पर प्रतिबद्धता जताई थी। हालांकि महाराष्ट्र में नए प्रावधान के पूरे नियमों की अधिसूचना होना बाकी है लेकिन यह स्वाभाविक है कि बदलावों से न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली खरीद में कमी आएगी। यही तो वह चीज है, जिसके लिए सीआईआई और फिक्की जैसे कॉर्पोरेट संगठन लंबे समय से यह गलत दलील देते हुए मांग कर रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था अपने आप में किसानों को बढ़े हुए मूल्य प्राप्त करने में बाधक है।
मौजूदा एपीएमसी तंत्र को निरस्त करने के लिए पंजाब और हरियाणा भी दबाव का सामना कर रहे हैं। राष्ट्रीय कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने किसान के बाजार-मित्रता सूचकांक पर बिहार को सबसे ऊपर रखा है और पंजाब, जहां पर मंडियों और खरीद केंद्रों का बृहद ताना-बाना और ग्रामीण इलाकों तक में सडक़ों का जाल है, उसे इस सूची में सबसे निचले पायदान पर रखा गया है! ऐसे समय में जब महज 6 प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिल पाता है और बाकी सब मंडियों के आढ़तियों के रहमो-करम पर है वहां किस प्रकार कम-से-कम उपस्थिति वाली समानांतर निजी बाजार व्यवस्था मूल्य-प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे पाएगी?
इस तरह की व्यवस्था देश की सुरक्षा यकीनी बनाने के लिए बहुत महंगी पड़ेगी। वर्ष 2007-08 में तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने निजी कंपनियों को एपीएमसी वाली मंडियों को दरकिनार करते हुए किसानों से सीधे गेहूं खरीदने की अनुमति दी थी। इन्होंने जितना हो सकता था, गेहूं अपने पास दबा लिया और इसका हश्र यह हुआ कि सरकारी खरीद में आई कमी को पूरा करने के लिए देश को अगले दो सालों में लगभग 80 लाख टन गेहूं आयात करना पड़ा था, वह भी उस दोगुने भाव पर जो अन्यथा स्थानीय किसानों को न्यूनतम समर्थन कीमत के तहत देना पड़ता!

बाघों को बचाएं
Posted Date : 18-Nov-2018 11:51:19 am

बाघों को बचाएं

बाघ लगातार मर रहे हैं। कहीं उनका शिकार हो रहा है, कहीं वे दुर्घटना में मारे जा रहे हैं, तो कहीं इंसानी आबादी के बीच आ जाने के कारण लोग उन्हें मार दे रहे हैं। बुधवार को ओडिशा के सतकोसिया वन्यजीव अभयारण्य के अंदरूनी क्षेत्र में महावीर नामक एक बाघ मृत पाया गया। इससे देश में बाघों के पहले अंतरराज्यीय स्थानांतरण को झटका लगा है। महावीर को कुछ ही समय पहले मध्य प्रदेश से ओडिशा लाया गया था और अभी इसकी मौत के कारण का पता नहीं चल पाया है।
इससे पहले 6 नवंबर को बांधवगढ़ से वहां भेजी गई बाघिन सुंदरी को ग्रामीणों द्वारा मारने का प्रयास किया गया था, जो उनके मुताबिक आदमखोर हो चुकी है। इसी गुरुवार को महाराष्ट्र की चिचपल्ली फॉरेस्ट रेंज में हुए एक दर्दनाक हादसे में बाघ के तीन शावक ट्रेन से कटकर मर गए। 2 नवंबर को यवतमाल जिले के पांढरकवड़ा वन क्षेत्र में बाघिन अवनि (टी-1) को मार दिया गया, जिसे लेकर उठा राजनीतिक विवाद अभी थमा नहीं है। 
वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो साल में देश में 201 बाघों की मौत हुई है, जिनमें 63 का शिकार किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में 116 और 2018 में 85 बाघों की मौत हुई थी। पिछली (2014 की) गणना में देश में बाघों की कुल संख्या 2226 निकली थी। पहले राजा-महाराजा, संपन्न लोग और शिकारी बाघों का शिकार अपनी बहादुरी दिखाने के लिए करते थे लेकिन अभी उनका शिकार तस्करी के लिए किया जाता है। 
चीन में बाघ के शरीर के विभिन्न हिस्सों की बड़ी मांग है। वहां इससे पारंपरिक दवाएं बनाई जाती हैं। बाघ के अंगों की कीमत इतनी ज्यादा मिलती है कि तस्कर बाघ मारने के लिए कोई भी तरीका अपनाने को तैयार रहते हैं। बाघों की मौत का दूसरा कारण यह है कि उनके स्वाभाविक आवास क्षेत्र में लगातार कमी हो रही है। जंगल बेतहाशा काटे जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत बचे हैं, उनमें भी मानवीय गतिविधियां चलती रहती हैं। पर्यटन के लिए बीच जंगल में टूरिस्ट स्पॉट बना दिए जाते हैं, जहां लोगों का आना-जाना लगा रहता है। 
टाइगर रिजर्व बनाने का प्रयोग भी असफल ही कहा जाएगा। इससे हत्यारों को पता होता है कि यहां तो उन्हें बाघ मिल ही जाएंगे। छोटे से वन क्षेत्र में अक्सर बाघों को खाने के लिए कुछ नहीं मिलता। भूख से बेहाल होकर वे इंसानी बस्तियों की ओर आते हैं, जहां आदमखोर घोषित होकर मारे जाते हैं। 
बाघों के मरने का अर्थ यह है कि आहार श्रृंखला में उनसे नीचे के जीव, जैसे हिरण, खरगोश वगैरह और उन्हें जिंदा रखने वाली जंगली वनस्पतियां या तो साफ हो चुकी हैं, या होने वाली हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें मारकर हम अपने ही मृत्युपत्र पर हस्ताक्षर कर रहे हैं।

 

कुदरती कमजोरी को ताकत बनाने का हौसला
Posted Date : 17-Nov-2018 11:42:40 am

कुदरती कमजोरी को ताकत बनाने का हौसला

अरुण नैथानी
कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर विरोध करने पर खेल अधिकारियों द्वारा विश्व चैंपियनशिप में भाग लेने से वंचित कर दिये गये मूक-बधिर पहलवान वीरेंद्र सिंह के चेहरे पर  अब मुस्कान है। वजह है सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने शारीरिक अपूर्णता के साथ सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के लिये उनका चयन किया। लगभग दो दशक की साधना व शारीरिक अपूर्णता के दंश को नकार कर दुनिया के खेल मैदानों में तिरंगा लहराने वाले वीरेंद्र सिंह को यह बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जायेगा।
अपने प्रतिद्वंद्वियों को कभी पटखनी देने वाले तो कभी धोबी पछाड़ लगाने वाले वीरेंद्र सिंह की असली पहचान ‘गूंगा पहलवान’ के रूप में ही है। कुदरती तौर अपूर्णता के साथ पैदा हुए वीरेंद्र ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकारा और इसे अपनी ताकत बना लिया। वे आज विश्वस्तरीय खिलाड़ी हैं। लेकिन उनकी प्रतिभा का पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी बाकी है।
झज्जर के सासरौली गांव में 1 अप्रैल 1986 को जब मध्यवर्गीय परिवार में अजीत सिंह के यहां स्वस्थ बेटा पैदा हुआ तो परिवार की खुशी का पारावार नहीं रहा। पहलवान अजीत सिंह ने बेटे को पहलवान बनाने का सपना संजोया। मगर तीन-चार साल का होने पर परिजनों ने बच्चे के व्यवहार में असामान्यता महसूस की। उन्हें एहसास हुआ कि यह तो न के बराबर बोलता है  और ऊंचा सुनता है। धीरे-धीरे उसकी बोलने-सुनने की क्षमता जाती रही। यह परिवार के लिये किसी आघात से कम नहीं था। कोई इलाज भी काम नहीं आया।
एक बात तो थी कि पहलवान पिता को देखकर वीरेंद्र के मन में कुश्ती के प्रति आकर्षण जरूर था। वैसे भी हरियाणा के परिवेश में कुश्ती व कबड्डी के प्रति जुनून सदा रहा है। सात साल की उम्र आते-आते पिता ने उन्हें अपने साथ अखाड़े में ले जाना शुरू किया। वह जमकर कसरत करता मगर सुनने व बोलने की क्षमता न होने के कारण उसे कुश्ती के दांव-पेच सिखाने और खेल की बारीकियां सिखाना भी खासा मुश्किल था। लेकिन चीजों को जल्दी समझ लेने का गुर जरूर कुदरत ने उसे दिया था। पिता ने अपनी आर्थिक सीमाओं के बावजूद उसकी खुराक में कोई कमी नहीं होने दी। फिर उसने धीरे-धीरे इनामी वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिताएं जीतनी शुरू कर दीं। उसकी ख्याति ने उसकी अपूर्णता को ढक दिया। जो लोग उसे हिकारत के भाव से गूंगा कहते, वे उसे आदर देने लगे। मगर वह गूंगा पहलवान के नाम से ही मशहूर हुआ। यहां तक कि उसके जीवन पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी ‘गूंगा पहलवान’ के नाम से बनी। बाद में अपने एक रिश्तेदार की मदद से उसने दिल्ली के मशहूर छत्रसाल अखाड़े में अपनी प्रतिभा को निखारा।  ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार ने भी  उसकी काफी मदद की। यहां उनके कोच रामफल मान की भी उन्हें निखारने में बड़ी भूमिका रही। इतना ही नहीं, यहां रहते हुए उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई भी की।
अपनी कमजोरियों को ताकत बनाकर पूरे आत्मविश्वास के साथ अखाड़े में उतरने वाले इस पहलवान को भले ही सामान्य कुश्ती स्पर्धाओं में जगह नहीं मिल सकी, क्योंकि वे रेफरी की सीटी नहीं सुन सकते थे मगर उन्होंने वर्ष 2005 में मेलबर्न डेफलंपिक्स में स्वर्ण पदक और 2009 के ताईपे डेफलंपिक्स में कांस्य पदक जीता। इसके अलावा 2008 और 2013 की वर्ल्ड डेफ रेसलिंग चैंपियनशिप में भी रजत  और कांस्य पदक जीते। वर्ष 2016 में ईरान में आयोजित वर्ल्ड डेफ कुश्ती चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीत कर इन्होंने देश का गौरव बढ़ाया। धीरे-धीरे वे उन बाधाओं से उबरे जो उन्हें कुदरत की अपूर्णता के चलते मिली थीं। वर्ष 2002 में वे नेशनल चैंपियनशिप में टॉप तीन में थे पर उनका चयन इंटरनेशनल चैंपियनशिप के लिये नहीं हुआ, जिससे वे दुखी रहने लगे।
अपनी अपूर्णताओं को अपनी ताकत कैसे बनाया जा सकता है, इसकी मिसाल हैं वीरेद्र सिंह यादव। आमतौर पर लोग शारीरिक अपूर्णताओं जैसी चुनौतियों को अपनी किस्मत मानकर हाशिये पर चले जाते हैं। इस तरह उनका जीवन हर व्यक्ति के लिये प्रेरणा का प्रतीक है। उन्होंने न केवल विश्वस्तरीय स्पर्धाएं जीतीं बल्कि भारत के लिये डीफ गेम्स के दरवाजे भी खोल दिये। उन्होंने सच्चे खिलाड़ी की तरह जीवन की हार को जीत में बदल दिया।
74 किलोग्राम वर्ग में खेलने वाले  इस पहलवान के नाम कई रिकॉर्ड हैं। भारत के लिये मेलबर्न डेफलंपिक्स में पदक जीतने वाले वीरेंद्र सिंह अकेले खिलाड़ी थे। जब पुरस्कार वितरण में  तिरंगा ऊपर उठा तो इनकी आंखों में आंसू थे। उनका मानना है कि यह मेरे जीवन का सबसे यादगार पल था।
मगर यह विडंबना है कि सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले पहलवान को सरकारों से अपेक्षित आर्थिक मदद समय रहते नहीं मिल सकी। उन्हें ऐसी नौकरी दी जानी चाहिए थी कि वे अपने परिवार का भरणपोषण सम्मानजनक ढंग से कर पाते। लगता है हरियाणा की नई खेल नीति और हालिया पुरस्कार से बात बनेगी।

 

 ऊंचाई की गहराई के सवाल
Posted Date : 17-Nov-2018 11:41:01 am

ऊंचाई की गहराई के सवाल

रमेश जोशी
आज तोताराम कुछ कन्फ्यूज्ड था। बोला- भाई, भारत के बिस्मार्क, लौहपुरुष, सरदार वल्लभ भाई झवेर भाई पटेल की मूर्ति के ऊपर-नीचे, अगल-बगल कहीं उनका नाम लिखा दिखाई नहीं दिया, न ही किसी वक्ता ने उनका पूरा नाम लिया। होना तो यह चाहिए था कि मूर्ति से भी ऊंचा नामपट्ट या फिर लेजऱ किरणों में आकाश में चमकता-दमकता नाम होना चाहिए था, जिससे कई किलोमीटर दूर से ही पता लग जाए कि वहां भारत के बिस्मार्क, लौहपुरुष, सरदार वल्लभ भाई झवेर भाई पटेल उर्फ स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी है।
हमने कहा-तोताराम, ये कोई मंदिर-मस्जिद या अन्य स्थल बनाकर पूजा-प्रसाद का धंधा करने वालों की बात है। जब गांधी जी से किसी ने गांधीवाद की चर्चा की तो उन्होंने कहा-यदि कोई नाम ही देना है तो इसे ‘अहिंसावाद’ नाम दो। पटेल भी खुद को गांधी जी का सिपाही कहते थे।
हमने कहा-न तो उसमें देश के सभी विशिष्ट लोग बुलाए गए और न ही उस क्षेत्र के सामान्य लोग दिखाई दिए। हमने तो सुना है कि उस क्षेत्र के हजारों आदिवासियों ने विरोध जताया था। तुम्हारी इस जिज्ञासा में भी दम है कि स्टेच्यू के नाम में पटेल का सर्वाधिक प्रसिद्ध विशेषण ‘लौह पुरुष’ भी नहीं सुना-दिखा। लेकिन इसके कई तकनीकी कारण हैं। इसके निर्माण में 70 हजार टन सीमेंट, 24 हजार टन स्टील,17 सौ टन तांबा और 17 टन कांसा लगा है। जब 31 प्रतिशत में पूर्ण बहुमत मिल सकता है फिर इसमें तो सीमेंट लोहे का 225 फीसदी बैठती है। नामकरण में उसे कैसे छोड़ा जा सकता है? यदि पदार्थों के अनुसार नामकरण हो तो ‘सीमेंट-पुरुष’ करना पड़ेगा। दूसरे सर्वाधिक मात्रा में लगे पदार्थ को शामिल करें तो ‘सीमेंट-लौह पुरुष’ किया जा सकता है।
वह बोला- जंक लगने से बचाने के लिए तांबा और कांसा मिलाना पड़ता है। हमने कहा-क़ुतुब मीनार के पास खड़ी लोहे की लाट में तो जंक नहीं लगा। जब किसी निर्माण में कमीशन खाया जाएगा तभी जंक लगने की संभावना रहती है। बोला- हम बड़े हैं। बड़े कामों में विश्वास करते हैं। वर्ल्ड रिकॉर्ड से कम पर नहीं मानते।
हमने कहा-कोई किसी का मज़ाक नहीं उड़ा सकता। लोग अपने धंधे के लिए ईश्वर और अल्लाह की सुरक्षा और मान-अपमान का ठेका लिए फिरते हैं। सोच, भला क्या कोई सर्वशक्तिमान, समस्त ब्रह्माण्ड के नियंता का अपमान कर सकता है? बोला- ठीक है, मास्टर। राजनीति करने वाले मूर्ति और गौरव का धंधा करें। हम तो इस देश-दुनिया और अपने खुद के भले के लिए ही सही; एकता, प्रेम, भाईचारे और सबकी सुख-शांति की कामना करें।

 

अंतरिक्ष में दावेदारी
Posted Date : 17-Nov-2018 11:38:53 am

अंतरिक्ष में दावेदारी

भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने बुधवार को जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट के जरिए नवीनतम संचार उपग्रह जीसैट 29 को सफलतापूर्वक कक्षा में पहुंचाकर रॉकेट साइंस के क्षेत्र में एक और मील का पत्थर पार कर लिया। इस ऐतिहासिक उपलब्धि की बदौलत भारत अंतरिक्ष अभियानों के मामले में दुनिया के चुनिंदा देशों के ग्रुप में शामिल हो गया है। पीएसलवी के जरिए हल्के और मध्यम वजन वाले उपग्रह छोडऩे में भारत को पहले से महारत हासिल रही है, लेकिन भारी वजन वाले प्रक्षेपण उसके लिए नई चीज हैं। जीएसएलवी मार्क-3 देश में विकसित तीसरी पीढ़ी का रॉकेट है जो चार टन तक वजन अंतरिक्ष में ले जा सकता है। इससे पहले का जीएसएलवी मार्क-2 ढाई टन तक वजन ही ले जा सकता था। यह उपलब्धि इस मामले में खास है कि इसके बल पर इसरो 2022 तक चांद पर इंसान भेजने का अपना मिशन पूरा करने के काम में बेहिचक जुट सकता है।
हाल के वर्षों में मिली अन्य कामयाबियों के साथ इसे जोड़ कर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि अन्य देश अपने हल्के और भारी, हर तरह के उपग्रह छोडऩे के लिए उसपर बेखटके भरोसा कर सकते हैं। फिलहाल अंतरिक्ष परिवहन के बाजार में डेढ़ टन तक के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए इसरो को सबसे कम फीस वाली सबसे भरोसेमंद प्रक्षेपण एजेंसी का दर्जा हासिल है। जीएसएलवी के लगातार दो सफल प्रक्षेपणों से यह रेंज अचानक ऊपर उठकर दोगुनी यानी तीन टन की ऊंचाई पर चली गई है। यह बात और है कि इस स्तर को छू लेने के बाद इससे आगे की चुनौतियां न केवल भारत के लिए बल्कि रॉकेट साइंस की सीमावर्ती होड़ में शामिल दुनिया के तमाम देशों के लिए काफी कठिन हैं। 
जीएसएलवी मार्क-3 की चार टन वजन क्षमता हमारे लिए भले ही बहुत बड़ी बात हो, पर मनुष्य को चांद पर ले जाने वाले पहले यान अपोलो-11 का लैंडिंग मास 4932 किलोग्राम यानी करीब 5 टन था। यह भी याद रखना चाहिए कि जिस दौर में अमेरिका ने चांद पर मनुष्य को भेजने का अभियान चलाया वह कोल्ड वॉर का दौर था और उस समय खुद को सोवियत संघ से मीलों आगे दिखाना उसके लिए जीने-मरने जैसी बात थी। जाहिर है, ऐसे में उन अभियानों पर होने वाला खर्च अमेरिका के लिए खुद में कोई मुद्दा ही नहीं था। एक बार चांद तक अपनी पहुंच साबित कर देने के बाद इस खर्चीले अभियान से उसने इस तरह किनारा कर लिया, जैसे उसके अंतरिक्षयात्री कभी चांद पर गए ही न हों। लेकिन अभी की नई चंद्र-दौड़ में अमेरिका, चीन और अन्य संभावित प्रतिभागियों की भी कोशिश सस्ते और सक्षम रॉकेट बनाने की है। 
इस दौड़ में हमारे जीएसएलवी मार्क-3 ने भी अपनी दावेदारी पेश कर दी है। अगले तीन वर्षों में इसरो पांच टन वजन पांच लाख किलोमीटर दूर ले जाकर वापस लौटने लायक भरोसेमंद रॉकेट बनाकर दिखाए, तभी कुछ बात है।