संपादकीय

17-Nov-2018 11:42:40 am
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कुदरती कमजोरी को ताकत बनाने का हौसला

अरुण नैथानी
कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर विरोध करने पर खेल अधिकारियों द्वारा विश्व चैंपियनशिप में भाग लेने से वंचित कर दिये गये मूक-बधिर पहलवान वीरेंद्र सिंह के चेहरे पर  अब मुस्कान है। वजह है सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने शारीरिक अपूर्णता के साथ सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के लिये उनका चयन किया। लगभग दो दशक की साधना व शारीरिक अपूर्णता के दंश को नकार कर दुनिया के खेल मैदानों में तिरंगा लहराने वाले वीरेंद्र सिंह को यह बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जायेगा।
अपने प्रतिद्वंद्वियों को कभी पटखनी देने वाले तो कभी धोबी पछाड़ लगाने वाले वीरेंद्र सिंह की असली पहचान ‘गूंगा पहलवान’ के रूप में ही है। कुदरती तौर अपूर्णता के साथ पैदा हुए वीरेंद्र ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकारा और इसे अपनी ताकत बना लिया। वे आज विश्वस्तरीय खिलाड़ी हैं। लेकिन उनकी प्रतिभा का पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी बाकी है।
झज्जर के सासरौली गांव में 1 अप्रैल 1986 को जब मध्यवर्गीय परिवार में अजीत सिंह के यहां स्वस्थ बेटा पैदा हुआ तो परिवार की खुशी का पारावार नहीं रहा। पहलवान अजीत सिंह ने बेटे को पहलवान बनाने का सपना संजोया। मगर तीन-चार साल का होने पर परिजनों ने बच्चे के व्यवहार में असामान्यता महसूस की। उन्हें एहसास हुआ कि यह तो न के बराबर बोलता है  और ऊंचा सुनता है। धीरे-धीरे उसकी बोलने-सुनने की क्षमता जाती रही। यह परिवार के लिये किसी आघात से कम नहीं था। कोई इलाज भी काम नहीं आया।
एक बात तो थी कि पहलवान पिता को देखकर वीरेंद्र के मन में कुश्ती के प्रति आकर्षण जरूर था। वैसे भी हरियाणा के परिवेश में कुश्ती व कबड्डी के प्रति जुनून सदा रहा है। सात साल की उम्र आते-आते पिता ने उन्हें अपने साथ अखाड़े में ले जाना शुरू किया। वह जमकर कसरत करता मगर सुनने व बोलने की क्षमता न होने के कारण उसे कुश्ती के दांव-पेच सिखाने और खेल की बारीकियां सिखाना भी खासा मुश्किल था। लेकिन चीजों को जल्दी समझ लेने का गुर जरूर कुदरत ने उसे दिया था। पिता ने अपनी आर्थिक सीमाओं के बावजूद उसकी खुराक में कोई कमी नहीं होने दी। फिर उसने धीरे-धीरे इनामी वार्षिक कुश्ती प्रतियोगिताएं जीतनी शुरू कर दीं। उसकी ख्याति ने उसकी अपूर्णता को ढक दिया। जो लोग उसे हिकारत के भाव से गूंगा कहते, वे उसे आदर देने लगे। मगर वह गूंगा पहलवान के नाम से ही मशहूर हुआ। यहां तक कि उसके जीवन पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी ‘गूंगा पहलवान’ के नाम से बनी। बाद में अपने एक रिश्तेदार की मदद से उसने दिल्ली के मशहूर छत्रसाल अखाड़े में अपनी प्रतिभा को निखारा।  ओलंपिक पदक विजेता सुशील कुमार ने भी  उसकी काफी मदद की। यहां उनके कोच रामफल मान की भी उन्हें निखारने में बड़ी भूमिका रही। इतना ही नहीं, यहां रहते हुए उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई भी की।
अपनी कमजोरियों को ताकत बनाकर पूरे आत्मविश्वास के साथ अखाड़े में उतरने वाले इस पहलवान को भले ही सामान्य कुश्ती स्पर्धाओं में जगह नहीं मिल सकी, क्योंकि वे रेफरी की सीटी नहीं सुन सकते थे मगर उन्होंने वर्ष 2005 में मेलबर्न डेफलंपिक्स में स्वर्ण पदक और 2009 के ताईपे डेफलंपिक्स में कांस्य पदक जीता। इसके अलावा 2008 और 2013 की वर्ल्ड डेफ रेसलिंग चैंपियनशिप में भी रजत  और कांस्य पदक जीते। वर्ष 2016 में ईरान में आयोजित वर्ल्ड डेफ कुश्ती चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीत कर इन्होंने देश का गौरव बढ़ाया। धीरे-धीरे वे उन बाधाओं से उबरे जो उन्हें कुदरत की अपूर्णता के चलते मिली थीं। वर्ष 2002 में वे नेशनल चैंपियनशिप में टॉप तीन में थे पर उनका चयन इंटरनेशनल चैंपियनशिप के लिये नहीं हुआ, जिससे वे दुखी रहने लगे।
अपनी अपूर्णताओं को अपनी ताकत कैसे बनाया जा सकता है, इसकी मिसाल हैं वीरेद्र सिंह यादव। आमतौर पर लोग शारीरिक अपूर्णताओं जैसी चुनौतियों को अपनी किस्मत मानकर हाशिये पर चले जाते हैं। इस तरह उनका जीवन हर व्यक्ति के लिये प्रेरणा का प्रतीक है। उन्होंने न केवल विश्वस्तरीय स्पर्धाएं जीतीं बल्कि भारत के लिये डीफ गेम्स के दरवाजे भी खोल दिये। उन्होंने सच्चे खिलाड़ी की तरह जीवन की हार को जीत में बदल दिया।
74 किलोग्राम वर्ग में खेलने वाले  इस पहलवान के नाम कई रिकॉर्ड हैं। भारत के लिये मेलबर्न डेफलंपिक्स में पदक जीतने वाले वीरेंद्र सिंह अकेले खिलाड़ी थे। जब पुरस्कार वितरण में  तिरंगा ऊपर उठा तो इनकी आंखों में आंसू थे। उनका मानना है कि यह मेरे जीवन का सबसे यादगार पल था।
मगर यह विडंबना है कि सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले पहलवान को सरकारों से अपेक्षित आर्थिक मदद समय रहते नहीं मिल सकी। उन्हें ऐसी नौकरी दी जानी चाहिए थी कि वे अपने परिवार का भरणपोषण सम्मानजनक ढंग से कर पाते। लगता है हरियाणा की नई खेल नीति और हालिया पुरस्कार से बात बनेगी।

 

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