संपादकीय

अरिहंत की ताकत से परमाणु शक्ति संतुलन
Posted Date : 16-Nov-2018 8:07:28 am

अरिहंत की ताकत से परमाणु शक्ति संतुलन

जी. पार्थसारथी
छह नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि ‘वर्ष 2016 में नौसेना के बेड़े में शामिल की गई भारत की पहली परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी आईएनएस ‘अरिहंत’ अब अपनी पूर्ण कार्यक्षमता से लैस हो गई है और यह संभावित बाहरी नाभिकीय हमलावरों को हतोत्साहित करने वाले तंत्र का एक अभिन्न अंग है।’ इससे पहले भारत थल और वायु से मार करने वाले परमाणु हथियारों की समर्था पा चुका है, जिसमें मिराज-2000 और जगुआर लड़ाकू हवाई जहाजों से दागे जा सकने वाले परमाणु अस्त्र और जमीन से दागी जाने वाली अग्नि-1 मिसाइलें प्रमुख हैं, जिनकी रेंज 700 से 900 कि.मी. तक है। इस श्रेणी की मिसाइलों की मारक दूरी में लगातार सुधार करते हुए आज हमारे पास अग्नि-5 के रूप में 5500 कि.मी. तक प्रहार कर सकने वाली नाभिकीय अस्त्रास्त्र क्षमता है। इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य एक ऐसा ‘भरोसेमंद परमाणु खतरा निवारण तंत्र’ स्थापित करना है ताकि हमारे परमाणु-संपन्न पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान और चीन के सामरिक ठिकानों और केंद्रों को निशाना बनाकर थल, आकाश और जल में विभिन्न बिंदुओं से हमले किए जा सकें।
‘अरिहंत’ पनडुब्बी भारत को अपने पड़ोसियों पर समुद्र के अंदर 300 मीटर की गहराई से वार करने की क्षमता प्रदान करती है। इस काम के लिए यह दो तरह की समुद्रीय मिसाइल प्रणाली से लैस है, जिनमें एक है ‘सागरिका’, जिसकी मारक दूरी 750 कि.मी. है और दूसरी है 3500 कि.मी. क्षमता वाली ‘के-4’ मिसाइल। यहां गौरतलब है कि थलीय मिसाइल लांच-साइट को दुश्मन द्वारा ढूंढक़र ध्वस्त करने की संभावना बनी रहती है वहीं पनडुब्बी संचालित मिसाइल तंत्र की टोह लगाना और उसे खत्म करना लगभग असंभव कार्य होता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों के अलावा विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसके पास समुद्र-आधारित ‘परमाणु निवारण समर्था’ है। जल्द ही भारत एक अपनी दूसरी परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बी ‘अरिघात’ को भी सुचारु कर देगा और वर्ष 2022 तक इस किस्म की चार पनडुब्बियों वाला बेड़ा तैयार होने की उम्मीद है। परमाणु साइंसदानों के अमेरिकी संघ को अनुमान है कि भारत के पास फिलहाल 130-140 परमाणु अस्त्र हैं, वहीं पाकिस्तान 140-150 और चीन लगभग 280 नाभिकीय हथियारों से लैस है।
अमेरिकी परमाणु हथियार डिजाइनर थॉमस रीड जो अमेरिकी वायुसेना के पूर्व सचिव भी रह चुके हैं, ने हाल ही में लिखी अपनी पुस्तक में कहा है कि चीन ने बड़े स्तर पर पाकिस्तानी परमाणु साइंसदानों को अपने देश में प्रशिक्षित किया है। एक अन्य अमेरिकी परमाणु विशेषज्ञ गैरी मिलहोलिन का कहना है, ‘चीन की मदद के बिना पाकिस्तान का परमाणु वजूद में ही नहीं होता।’ चीन ने पाकिस्तान को न केवल अपने परमाणु हथियारों के डिजाइन दिए हैं बल्कि कठुआ स्थित परमाणु संयंत्र में यूरेनियम संवर्धन के लिए ‘इन्वर्टर तंत्र’ में आगे सुधार लाने के अलावा खुशआब और फतेहजंग नामक स्थानों पर सामरिक परमाणु हथियार बनाने वाली सुविधाओं की खातिर प्लूटोनियम रिएक्टर और बम बनाने लायक नाभिकीय सामग्री पृथक करने की तकनीक भी मुहैया करवाई है। पाकिस्तान की बैलेस्टिक और क्रूज मिसाइलें चीनी मिसाइलों की हूबहू नकल हैं।
भारत की परमाणु नीति कहती है कि नाभिकीय अस्त्र केवल उस स्थिति में प्रतिकर्म के तौर पर इस्तेमाल किए जाएंगे, यदि भारतीय क्षेत्र अथवा सुरक्षा बलों पर हुए हमले में कहीं भी परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया गया हो। भारत के पास उस सूरत में भी इन्हें इस्तेमाल करने का हक सुरक्षित है अगर उसके भूभाग पर बड़े पैमाने की चढ़ाई की जाए या भारतीय सैनिकों पर ऐसे हमले हों, जिनमें रासायनिक अथवा जैविक अस्त्रों का प्रयोग किया गया हो। दूसरी ओर पाकिस्तान के पास ऐसी कोई औपचारिक परमाणु नियमावली का वजूद ही नहीं है। पाकिस्तान नाभिकीय कमान प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे ले. जनरल खालिद किदवई ने कोई एक दशक पहले कहा था, ‘पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम विशुद्ध रूप से भारत को निशाना बनाने हेतु है।’ किदवई द्वारा व्यक्त परमाणु हमले करने की अन्य संभावनाओं में भारत द्वारा पाकिस्तान की ‘आर्थिकी का गला घोंट देने’ की स्थिति भी शामिल थी।
हालांकि चीन भी भारत की तर्ज पर यह दावा करता है कि वह परमाणु हथियार इस्तेमाल करने में पहल नहीं करेगा लेकिन ‘पहल न करने वाली’ यह नीति भारत पर भी लागू होती है या नहीं, इसे कभी पूरी तरह साफ नहीं करता है। इसका खुलासा तब स्पष्ट हुआ जब चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने 29 जुलाई 2004 को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह द्वारा पेश किए इस सुझाव को रद्द कर दिया कि दोनों देशों को संयुक्त नाभिकीय नियमावली अपनानी चाहिए। इस पर अनेक लोगों के जायज सवाल हैं कि क्या यह सब पाकिस्तान को संकेत देने के मंतव्य से है कि उसके और भारत के बीच किसी तरह का युद्ध होने की स्थिति बनने पर वह उसके साथ खड़ा होगा, भले ही हमले की शुरुआत पाकिस्तान की तरफ से क्यों न हो। परंतु चीन की इस तरह की अस्पष्टताओं ने भारत को थल, वायु और जल में अपनी परमाणु प्रतिरक्षा-समर्था को दृढ़ करने को बलवती किया है। भारत की अग्नि-5 मिसाइल चीन के सघन जनसंख्या वाले पूर्वी तटीय इलाकों तक मार करने की क्षमता रखती है। अगले चार सालों में हमें माकूल तादाद में समुद्र-आधारित नाभिकीय निवारण क्षमता को बढ़ाना पड़ेगा ताकि चीन को पाकिस्तान को दिए जाने वाले भरोसों के बारे में यह सोचने को मजबूर होना पड़े कि क्या भारत-पाक परमाणु द्वंद्व में अथवा पाक द्वारा पहले इस्तेमाल करने पर उसका साथ देना सही रहेगा।
हालांकि भारत के पास प्रधानमंत्री और सुरक्षा मामलों की संसदीय कमेटी के नेतृत्व में एक सुसंगठित और सुस्पष्ट परमाणु हथियार नियंत्रण तंत्र है, तथापि रक्षा मंत्रालय के पुराने ढर्रे की व्यवस्था में सुधार लाने पर संजीदगी से विचार करने की जरूरत है। परमाणु नियंत्रण कमान में सबसे महत्वपूर्ण पद तीनों सेनाओं के सेनाध्यक्षों से युक्त संयुक्त समिति का अध्यक्ष होता है, जिसका कार्यकाल अमूमन एक साल से कम बनता है। यह अवधि सामरिक परमाणु कमान की तमाम जटिलताओं को पूरी तरह से जानने और समझने के लिए बहुत कम पड़ती है। अफसोस है कि इस विषय पर रक्षा समिति और टास्क फोर्स समेत तमाम उच्चस्तरीय लोगों द्वारा दिए इस सुझाव पर कि या तो एक पूर्णकालिक अध्यक्ष अथवा सुरक्षा स्टाफ स्थापित किया जाए या फिर सेनाध्यक्षों की संयुक्त समिति में किसी एक को लंबी अवधि वाला अध्यक्ष बनाया जाए, जिसके हाथ में परमाणु सामरिक बल कमान का नियंत्रण हो और वह आगे राजनीतिक नेतृत्व के प्रति उत्तरदायी हो। लेकिन यह सुझाव फाइलों के रूप में धूल फांक रहा है।
बोफोर्स-विवाद के बहुत लंबे अर्से बाद अब कहीं जाकर पिछले दिनों भारी तोपों की पहली खेप फौज में शामिल हो पाई है। यह सब उस दौरान हो गुजरा है जब स्वीडन निर्मित 155 मि.मी. हॉविट्जर तोपों का संपूर्ण और विस्तृत डिजाइन रक्षा मंत्रालय की फाइलों में पिछले दो दशकों से ज्यादा से धूल फांक रहा था। अवश्य ही वहां ऐसा कुछ गलत है, वह भी ऐसी स्थिति में जब आज की तारीख में हमारी वायुसेना कुल स्वीकृत विमानों की तादाद में 30 फीसदी की कमी पहले से झेल रही है।
 

 

दूध का काला धंधा
Posted Date : 16-Nov-2018 8:05:37 am

दूध का काला धंधा

देश में बिक रहे करीब 50 फीसदी दूध में मिलावट पाई गई है। यह खुद में काफी परेशान करने वाली खबर है। जांच के लिए उठाए गए नमूनों में कच्चा और प्रॉसेस्ड, दोनों तरह के दूध शामिल हैं। फसाई (फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया) के सर्वे से यह खुलासा हुआ है। फसाई ने अपने सर्वे के लिए जो नमूने लिए उनमें से 50 प्रतिशत तय मानकों के अनुरूप नहीं थे। गनीमत कहें कि इनमें केवल 10 फीसदी ही स्वास्थ्य के लिए घातक थे, जबकि 39 पर्सेंट की मिलावट पानी आदि की थी और वे सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं थे।
प्रोसेस्ड दूध के 46.8 फीसदी नमूने तय मानकों के अनुरूप नहीं थे और उनमें 17.3 फीसदी सेहत के लिए खतरनाक थे, जबकि कच्चे दूध के 45.4 प्रतिशत नमूने तय मानकों के अनुरूप नहीं थे और उनमें 4.9 फीसदी हेल्थ पर बुरा असर डालने वाले थे। पिछले महीने एनिमल वेलफेयर बोर्ड की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया था कि देश में 68.7 प्रतिशत दूध और दुग्ध उत्पादों में प्रदूषणकारी तत्व मौजूद हैं। दूध में मिलावट की खबरें समय-समय पर आती रहती हैं। लगभग हर वर्ष ही सुप्रीम कोर्ट गंभीर चिंता प्रकट करता है और केंद्र तथा राज्य सरकारों को समुचित निर्देश भी देता है। लेकिन मिलावट पर रोक लगाने की बात किसी भी सरकार के अजेंडा पर नहीं आ रही है। 
दिलचस्प बात यह है कि कुछ राज्यों ने आईपीसी में बदलाव कर इस मामले में उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान किया है, लेकिन इस मामले में किसी को छोटी सजा मिलने की खबर भी आज तक नहीं सुनी गई। कभी-कभार सरकार किसी कंपनी के खिलाफ कुछ करती भी है तो जल्द ही पता चलता है कि वैसे ही करम करने वाली बाकी कंपनियां नियमों में मौजूद छिद्रों का बेहतर इस्तेमाल करके चैन से हैं। अब यह भी कैसी विडंबना है कि दूध जैसी अनिवार्य जरूरत की वस्तु तक हमें शुद्ध नहीं मिल रही है। भारत एक शाकाहार प्रधान देश है और दूध यहां प्रोटीन का सबसे व्यापक स्रोत है। पिछले कुछ सालों में भारत दूध उत्पादन के मामले में पूरी दुनिया में अव्वल हो गया है। 
यहां रोजाना दो लाख गांवों से दूध एकत्रित किया जाता है और डेयरी उद्योग लगातार मजबूत हो रहा है। जरूरत इसे व्यवस्थित रूप देने और ढंग से इस क्षेत्र का रेगुलेशन करने की है। दूध की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत जांच तंत्र बनाया जाना चाहिए। अभी आलम यह है कि राज्यों ने जरूरी संख्या में फूड इंस्पेक्टरों तक की नियुक्ति नहीं की है। फूड लैब्स की भी भारी कमी है। जहां ये हैं भी वहां इनमें पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। एक रिपोर्ट आने में छह महीने का वक्त लगता है। ये खामियां दुरुस्त करनी होंगी, लेकिन जिन कंपनियों के नमूनों में मिलावट पाई गई है, उनके नाम तो अभी ही उजागर किए जा सकते हैं।
 

 

कृषि निर्यात की संभावनाएं
Posted Date : 05-Nov-2018 8:33:41 am

कृषि निर्यात की संभावनाएं

 इस समय जब देश के सामने निर्यात घटने और विदेश व्यापार घाटा बढ़ने का परिदृश्य दिखाई दे रहा है, तब कृषि निर्यात बढ़ने की संभावनाओं को मुट्ठी में लेने की जरूरत दिखाई दे रही है। ऐसे में केंद्रीय वाणिज्य मंत्री ने कहा है कि सरकार जल्द ही नई कृषि निर्यात नीति पेश करेगी। इसके तहत निर्यात बढ़ाने के लिए कई विशेष कृषि क्षेत्र स्थापित किए जाएंगे। साथ ही कृषि निर्यात को मौजूदा तीस अरब डॉलर से बढ़ा कर 2022 तक साठ अरब डॉलर तक पहुंचाने और भारत को कृषि निर्यात से संबंधित दुनिया के दस प्रमुख देशों में शामिल कराने का लक्ष्य रखा जाएगा। यद्यपि यह लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है, लेकिन इस समय भारत में कृषि निर्यात की विभिन्न अनुकूलताओं के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। गौरतलब है कि 2017-18 में देश में रिकॉर्ड कृषि उत्पादन हुआ है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है। भैंस के मांस, पालतू पशुओं और मोटे अनाज के मामले में भी भारत सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत का फलों और सब्जियों के उत्पादन में दुनिया में दूसरा स्थान है। इस समय देश में 6.8 करोड़ टन गेहूं और चावल का भंडार है। यह जरूरी बफर स्टॉक के मानक से दोगुना है। दूध का उत्पादन आबादी बढ़ने की दर से चार गुना तेजी से बढ़ रहा है। चीनी का उत्पादन चालू वर्ष में 3.2 करोड़ टन होने की उम्मीद है, जबकि देश में चीनी की खपत 2.5 करोड़ टन है। देश में फलों और सब्जियों का उत्पादन मूल्य 3.17 लाख करोड़ रुपए वार्षिक हो गया है। इसी तरह कृषि क्षेत्र के एक महत्त्वपूर्ण भाग दूध उत्पादन के क्षेत्र में भी भारत की स्थिति मजबूत होती जा रही है। वैश्विक रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दूध उत्पादन, संग्रहण और वितरण के क्षेत्र में विभिन्न सुविधाओं के लिए 2021 तक करीब एक सौ चालीस अरब रुपए का निवेश होगा। इससे दूध के उत्पादन, निर्यात और इस क्षेत्र में रोजगार बढ़ने का चमकीला परिदृश्य दिखाई देगा। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार देश में जो दूध उत्पादन वर्ष 2016-17 के दौरान 16.54 करोड़ टन था, उसके 2017-18 के दौरान 17.63 करोड़ टन रहने का अनुमान है। केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा दूध निर्यात के लिए दी जा रही विशेष सब्सिडी से भारत के दूध की वैश्विक बिक्री में तेजी आई है और इसी कारण भारत से दूध की आपूर्ति वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी हो गई है। देश में कृषि निर्यात बढ़ने के तीन प्रमुख कारण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। पहला कारण, पिछले दिनों सरकार द्वारा घोषित किए गए उदार कृषि निर्यात संबंधी नए प्रोत्साहन हैं। दूसरा, अमेरिका द्वारा चीन से आयातित नई कृषि वस्तुओं पर पच्चीस प्रतिशत आयात शुल्क लगाने के बाद चीन द्वारा भी अमेरिका की कई वस्तुओं पर पच्चीस प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया गया है। इन उत्पादों में सोयाबीन, तंबाकू, फल, मक्का, गेहूं, रसायन आदि शामिल हैं। चीन द्वारा लगाए गए आयात शुल्क के कारण अमेरिका की ये सारी वस्तुएं चीन के बाजारों में महंगी हो गई हैं। चूंकि ये अधिकांश वस्तुएं भारत भी चीन को निर्यात कर रहा है और भारतीय वस्तुओं पर चीन ने कोई आयात शुल्क नहीं बढ़ाया है। ऐसे में ये भारतीय कृषि वस्तुएं चीन के बाजारों में कम कीमत पर मिलने लगी हैं। इससे चीन को भारत के निर्यात बढ़ेंगे। तीसरा प्रमुख कारण भारत और चीन के बीच आयोजित संयुक्त आर्थिक समूह बैठक 2018 में भारत से चीन को कृषि निर्यात बढ़ाने का परिदृश्य उभरना है। इस बैठक में चीन के वाणिज्य मंत्री झोंग शैन ने कहा कि जहां भारत-चीन व्यापार में बढ़ते हुए घाटे को कम करने पर ध्यान दिया जाएगा, वहीं चीन भारत से मंगाए जाने वाले कृषि उत्पादों जैसे अनाज, सरसों, सोयाबीन, बासमती और गैर-बासमती चावल, फल, सब्जियों तथा अन्य ऐसी मदों पर आ रही निर्यात मुश्किलों को कम करने की ओर ध्यान देगा। इससे कृषि निर्यात के लिए चीन के बाजार में नई संभावनाएं बनी हैं।

गौरतलब है कि सरकार ने कृषि निर्यात बढ़ाने के लिए जो विशेष प्रोत्साहन के संकेत दिए हैं, उनसे मूल्यवर्धित कृषि निर्यात को बढ़ावा दिया जा सकेगा। साथ ही कृषि निर्यात प्रक्रिया के बीच खराब होने वाले सामान, बाजार पर नजर रखने के लिए संस्थापक व्यवस्था और साफ-सफाई के मसले पर ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा। निर्यात किए जाने वाले कृषि जिंसों के उत्पादन और घरेलू दाम में उतार-चढ़ाव पर लगाम लगाने के लिए कम अवधि के लक्ष्यों तथा किसानों को समर्थन मूल्य मुहैया कराने और घरेलू उद्योग को संरक्षण देने पर ध्यान दिया जा सकेगा। साथ ही राज्यों की कृषि निर्यात में ज्यादा भागीदारी, बुनियादी ढांचे और ढुलाई में सुधार और नए कृषि उत्पादों के विकास में शोध और विकास गतिविधियों पर जोर दिया जा सकेगा। चूंकि विभिन्न निर्यातों में कृषि निर्यात सबसे जोखिम भरे होते हैं, इसलिए देश से खाद्य निर्यात क्षेत्र के समक्ष जो समस्याएं और चुनौतियां हैं, उनके समाधान के लिए रणनीतिक कदम जरूरी होंगे। खाद्य निर्यात से संबंधित सबसे बड़ी चुनौती अपर्याप्त परिवहन और भंडारण क्षमता के कारण खेत से खाद्य वस्तुएं बाजारों और कारखानों से प्रसंस्कृत वस्तुएं विदेशी उपभोक्ता तक पहुंचने में बहुत नुकसान होता है। कृषि निर्यात से संबंधित नई तकनीक और प्रक्रियाओं, सुरक्षा और पैकेजिंग की नियामकीय व्यवस्था संबंधी कमी और कुशल श्रमिकों की कमी भी खाद्य निर्यात को प्रभावित कर रही है। विभिन्न देशों द्वारा लागू किए गए कृषि व्यापार संबंधी कड़े तकनीकी अवरोधों के कारण भी भारतीय खाद्य निर्यात की क्षमता बाधित हुई है। निर्यात की जा रहे कृषि उत्पादों पर गैर-शुल्क बाधाएं, खाद्य गुणवत्ता सुरक्षा और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख बाजारों में खाद्य उत्पादों के निर्यात में बड़े अवरोधक बने हुए हैं। इन्हें दूर कराने के कारगर प्रयास करने होंगे। चूंकि कृषि निर्यात ही एकमात्र ऐसा उपाय है जिसके जरिए बिना महंगाई के रोजगार और राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी की जा सकती है। इसलिए देश से कृषि निर्यात बढ़ाने के लिए कई और जरूरतों पर ध्यान देना होगा। कृषि निर्यातकों के हित में मानकों में बदलाव किया जाए, जिससे कृषि निर्यातकों को कार्यशील पूंजी आसानी से प्राप्त हो सके। सरकार को अन्य देशों की मुद्रा के उतार-चढ़ाव, सीमा शुल्क अधिकारियों से निपटने में मुश्किल और सेवा कर जैसे मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा। चिह्नित फूड पार्क विश्वस्तरीय बुनियादी सुविधाएं, शोध सुविधाएं, परीक्षण प्रयोगशालाएं, विकास केंद्र और परिवहन लिंक के साथ मजबूत बनाने होंगे। बेहतर खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता प्रमाणन व्यवस्था, तकनीकी उन्नयन, परिवहन सुधार, पैंकेजिंग गुणवत्ता और ऋण तक आसान पहुंच की मदद से खाद्य निर्यात क्षेत्र में आमूल बदलाव लाया जा सकता है। खाद्य निर्यात क्षेत्र के आकार और बढ़ोतरी की संभावनाओं को देखते हुए भारत की उद्योग और व्यापार नीति की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका बनानी होगी।

 
 
सम्पादकीय- मन की सफाई
Posted Date : 30-Oct-2018 5:23:56 pm

सम्पादकीय- मन की सफाई

हर दिन हम घर और अपने आसपास की साफ-सफाई नियमित रूप से करते रहते हैं, लेकिन जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है, हम कुछ अधिक सक्रिय होकर निष्ठा के साथ इस काम में जुट जाते हैं। इसी समय घर-घर से बेजरूरत का पुराना सामान, अटाला और रद्दी पेपर आदि खरीदने वालों की फेरियां भी खूब लगने लगती हैं। और सचमुच इन दिनों देखिए न… रोज की सफाई के बाद भी कितना अटाला, कूड़ा और कचरा निकल ही आता है। ज्यों-ज्यों हम इस काम में जुटते हैं, न जाने कब से खोई और गुमशुदा चीजें भी बरामद होने लगतीं हैं। कुछ का हम त्याग कर पाते हैं तो कुछ के मोहपाश में घिर जाते हैं। बहुत-सी वस्तुओं से हमारी कई स्मृतियां जुड़ी होती हैं। कुछ को हम जरूरत न होने पर भी सहेज लेना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि इन वस्तुओं के संग्रहण से हम कल के लिए कुछ खुशियां सुनिश्चित कर लेना चाहते हों।  जब हम घर की सफाई इतनी मुस्तैदी से करते हैं तो हमें एक बार अपने भीतर की व्यवस्था का भी पुनरावलोकन जरूर कर लेना चाहिए। मसलन, क्या हमारे बचपन की मासूमियत, अल्हड़पन, वह निश्छल खिलखिलाहट सहज रूप से उपस्थित है या वह भी अनावश्यक चीजों की भीड़ में कहीं ओझल हो गई है? हमारा शरीर पूरे दिन बिना थके हमारा साथ देता है? क्या चेहरे पर जो झुर्रियां आ गई हैं, वे उम्र की परिपक्वता का बयान कर रही हैं या फिर वे चिंताओं के निशान हैं? क्या आज भी हम कुछ समय उन लोगों के साथ बिता पाते हैं जो लोग हमारे प्रिय हैं, जो हमें निस्वार्थ भाव से प्यार करते हैं, जिनके साथ हम सहज रह पाते हैं? हर सुबह कुछ नया करने की ललक और जोश के साथ क्या आज भी हम सुबह जाग पा रहे हैं? उम्र के किसी भी पड़ाव पर हम हों, लेकिन ऐसे और कई भावुक और संवेदनापूर्ण सवाल भी हमें खुद से रोज पूछते रहना चाहिए और शांति से बैठ कर उन पर चिंतन भी करना चाहिए।
खुद को समझना और खुद से बात करना उतना ही जरूरी है, जितना जीवन के लिए प्राणवायु ग्रहण करना। उम्र के साथ-साथ हमारे अंदर कई शारीरिक और मानसिक बदलाव आते हैं। ऐसे में नई परिस्थिति के साथ खुद को तैयार करना बेहद जरूरी होता है। ज्यों-ज्यों हमारे संपर्कों का दायरा बढ़ने लगता है, कई तरह के विचारों और खट्टे-मीठे अनुभवों से हमारा सामना होने लगता है। जो आदतें हमारी पहले रही होंगी, वे नई स्थिति में हो सकता है उपयुक्त न हों। कम उम्र में हमें सबक दिया गया कि अपने से बड़े लोग हमें जो कहें वह बात हमें हर हाल में माननी चाहिए। लेकिन अब समय के साथ हमारे बड़ों में केवल हमारे परिजन और शिक्षक नहीं हैं, अन्य लोग भी शामिल हैं। इसलिए अब समझदारी इसी में है कि आदर का भाव सबके साथ रहे, लेकिन अपने विवेक से ही अच्छे-बुरे का निर्णय लिया जाए। समय जब हमसे जिम्मेदारी की अपेक्षा करता है तो उससे घबराने की जगह पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया जाना चाहिए। घर के अटाले के निपटान की तरह ही हमें अपने भीतर की सामग्री का निपटान भी करते रहना चाहिए। बढ़ती उम्र के साथ कुछ चीजें त्यागने के साथ कुछ चीजों को स्वीकार भी कर लेना चाहिए। यह तभी संभव है, जब हम इस बारे में ईमानदारी से विचार करेंगे। अब देखिए कि जब घर को रोज साफ करने पर भी इतना कचरा जमा हो जाता है तो फिर हमारा मस्तिष्क और शरीर कितना कुछ इकट्ठा कर लेता होगा! फिर विचार तो लगभग अमर ही होते हैं। कुछ गलत इकट्ठा हो गए तो उनसे मुक्ति बड़ी कठिन हो जाती है। मन के विचार ही हैं जो हमें कमजोर या मजबूत बनाते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा हर दिन उत्सव हो। इसके लिए हमें दृढ़ता की झाड़ू थाम लेनी चाहिए और उन विचारों को नष्ट कर देना चाहिए जो हमारे समय और सेहत को नुकसान पहुचा रहे हैं। उन लोगों से भी हमें परहेज करना चाहिए जो अपनी नकारात्मकता से हमें कमजोर कर रहे हैं, क्योंकि असल में ऐसी कोई भी परीक्षा और कठिन घड़ी नहीं है, जिस पर हम अपने साहस, मेहनत और विवेक के बल पर फतह हासिल न कर सकें। नकारात्मकता दीमक की तरह है जो सब कुछ नष्ट कर देती है। हमें उसे अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए। हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि हम किन चीजों को अपने जीवन में जगह दे रहे हैं और ये सब हमारे भविष्य की खुशहाली को निश्चित करते हैं या नहीं! कहा भी गया है, सही संगत और अच्छे साहित्य को अपने जीवन में जगह देनी चाहिए। जिन्हें सहेज कर जीवन सुखी होता हो, उन्हें रख कर भीतर के अटाले का भी त्याग करने में हमारा भला है।

सम्पादकीय- सीबीआई में फेरबदल
Posted Date : 25-Oct-2018 8:38:35 am

सम्पादकीय- सीबीआई में फेरबदल

सीबीआई के दो टॉप अफसरों की लड़ाई से पैदा संकट को दूर करने के लिए सरकार ने बड़ा कदम उठाया, लेकिन इससे मामला और उलझ गया। सरकार ने सीबीआई डायरेक्टरआलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना, दोनों को छुट्टी पर भेज दिया और एम. नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक की जिम्मेदारी सौंप दी। लेकिन आलोक वर्मा केंद्र के इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए, जहां उनकी याचिका स्वीकार कर ली गई। CBI निदेशक आलोक वर्मा के आवास के बाहर नज़र रखने के आरोप में गिरफ्तार किए गए चार लोगों में से दो को पकड़े जाने और पूछताछ की गयी है।  बताया जा रहा है की शुक्रवार को इस पर सुनवाई हो सकती है। इस बीच वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक बनाए जाने की आलोचना की है। वह इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं।

जाहिर है, सीबीआई भ्रष्टाचार, झगड़ों और झमेलों का अड्डा बन गई है और पिछले पांच सालों में इसको स्वच्छ, सक्षम और स्वायत्त बनाने की तमाम कोशिशों पर पानी फिर गया है। याद रहे, सन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार का पालतू तोता बताते हुए इसके स्वरूप में बदलाव करने का निर्देश दिया था। इसे स्वायत्त बनाने के लिए इसके निदेशक की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलने का निर्णय किया गया। तय हुआ कि व्यवस्था के विभिन्न अंगों के प्रतिनिधि मिलकर इसका निदेशक चुनेंगे और उसका कार्यकाल निश्चित होगा। लोकपाल और लोकायुक्त कानून 2013 के तहत सीबीआई निदेशक की नियुक्ति जिस कलीजियम द्वारा की जाती है, उसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश अथवा उनके द्वारा नामित कोई जज शामिल होते हैं।

निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो साल निर्धारित किया गया। तय हुआ कि कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग आईपीएस अधिकारियों का एक पैनल तैयार करेगा जिसे सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयोग) के पास भेजा जाएगा। सीवीसी उन नामों पर विचार कर उन्हें अंतिम रूप देगा और कलीजियम के विचारार्थ प्रस्तुत करेगा। इस प्रक्रिया के अनुसार पहले डायरेक्टर अनिल सिन्हा बने, जिनका कार्यकाल निर्विवाद रहा। लेकिन उनके जाने के कुछ ही समय बाद स्थिति यहां तक पहुंच गई। तो क्या माना जाए कि इतना बदलाव नाकाफी था? क्या और आगे बढ़ने की जरूरत है? मसलन यह कि केवल निदेशक नहीं, बल्कि चोटी के तीन आला पद उसी प्रक्रिया में भरे जाएं और चुनाव आयोग की तरह यहां भी किसी का शीर्ष तक पहुंचना पहले से तय हो। एक शासन तंत्र के रूप में भारत की सफलता काफी हद तक सीबीआई के कामकाज और उसकी साख पर निर्भर करती है। इसका स्वरूप न तो सरकारी तोते जैसा होना चाहिए, न ही सरकार की कनपटी से पिस्तौल सटाए दबंग जैसा। सीबीआई को एक भरोसेमंद जांच संस्था बनाने के लिए प्रयोग जारी रहने चाहिए, जब तक देश इसके कामकाज को लेकर आश्वस्त न हो जाए।

सम्पादकीय- पटाखों का दायरा
Posted Date : 24-Oct-2018 11:45:59 am

सम्पादकीय- पटाखों का दायरा

दिवाली जैसे त्योहार के मौके पर खुशियों का इजहार करने के लिए बेहतर खानपान और रोशनी की सजावट से पैदा जगमग के अलावा कानफोड़ू पटाखों का सहारा लोगों को कुछ देर की खुशी तो दे सकता है, लेकिन उसका असर व्यापक होता है। पटाखों की आवाज और धुएं के पर्यावरण सहित लोगों की सेहत पर पड़ने वाले घातक असर के मद्देनजर इनसे बचने की सलाह लंबे समय से दी जाती रही है। ज्यादातर लोग इनसे होने वाले नुकसानों को समझते भी हैं, मगर इनसे दूर रहने की कोशिश नहीं करते। हालांकि पर्यावरणविदों से लेकर कई जागरूक नागरिकों ने इस मसले पर लोगों को समझाने से लेकर पटाखों पर रोक लगाने के लिए अदालतों तक का सहारा लिया है, लेकिन इन पर पूरी तरह रोक लगाने में कामयाबी नहीं मिल सकी। पिछले साल शीर्ष अदालत ने दिवाली से पहले पटाखों की बिक्री पर अस्थायी प्रतिबंध लगाया था, लेकिन व्यवहार में उसका कोई खास फर्क नहीं नजर आया। अब इस साल सर्वोच्च न्यायालय ने दिवाली और दूसरे त्योहारों के अवसर पर कुछ शर्तों के साथ पटाखे फोड़ने की इजाजत दे दी है। इसमें सबसे अहम शर्त यह है कि रात में आठ बजे से लेकर दस बजे तक ही पटाखे फोड़े जा सकेंगे। इसके अलावा, अदालत के निर्देश के मुताबिक सिर्फ लाइसेंस प्राप्त कारोबारी पटाखे बेच पाएंगे, जबकि आॅनलाइन व्यवसाय करने वाली वेबसाइटों पर पटाखों की बिक्री पर रोक रहेगी।  जाहिर है, प्रदूषण और पर्यावरण को होने वाले नुकसान के साथ-साथ लोगों की सेहत के मद्देजनर सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली की खुशियों का भी ध्यान रखा है। अगर लोगों को अदालत के इस फैसले में छिपे संदेशों को समझना जरूरी लगे तो निश्चित रूप से इसका फायदा सबको मिलेगा। पिछले साल अदालत ने पटाखों को लेकर सख्ती दिखाई थी, उसके बावजूद पटाखों के शोर और धुएं में कोई कमी नहीं आई। यह किसी से छिपा नहीं है कि दिवाली के मौके पर लोग आमतौर पर नौ-दस बजे के बाद ही पटाखे फोड़ना शुरू करते हैं और यह सिलसिला देर तक चलता रहता है। इस बार यह देखने की बात होगी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक रात आठ से दस बजे तक की समय-सीमा का पालन अलग-अलग इलाकों के थाना प्रभारी कैसे सुनिश्चित करा पाते हैं। पर्यावरण के अनुकूल पटाखे तैयार करने और खुशी मनाने के लिए उनका उपयोग करने की सलाह भी दी जाती रही है। लेकिन आस्था और त्योहार के नाम पर आमतौर पर इस तरह की सलाहों का ध्यान रखना लोग जरूरी नहीं समझते। दरअसल, दिवाली आने के साथ ही शायद बहुत कम लोगों को इस बात का ध्यान रखना जरूरी लगता है कि खुशी जाहिर करने का अकेला विकल्प पटाखे जलाना नहीं है। खासतौर पर दिवाली का उत्सव मनाने के नाम पर जितनी बड़ी तादाद में पटाखे जलाए जाते रहे हैं, उसके बिना भी बराबर की खुशी हासिल की जा सकती है। लेकिन यह अमूमन हर साल की विडंबना रही है कि लोग पटाखों के धुएं और आवाज से परेशान और गंभीर रूप से बीमार भी होते हैं और इनके बिना उनकी दिवाली पूरी भी नहीं होती। इस दोहरी स्थिति में जीने का ही नतीजा यह होता है कि इस त्योहार की चकाचौंध के गुजर जाने के बाद पटाखों का धुआं और शोर अपने पीछे कई तरह की बीमारियां और पर्यावरण के लिए दीर्घकालिक नुकसान छोड़ जाता है। अगर खुशी जाहिर करने के लिए ऐसे तौर-तरीकों का सहारा लिया जाता है जो बिना किसी भेदभाव के पर्यावरण को तो व्यापक नुकसान पहुंचाते ही हैं, सभी की सेहत पर घातक असर डालते हैं तो इनके औचित्य पर विचार करने की जरूरत है।