संपादकीय

संपादकीय : ताजमहल की अनदेखी
Posted Date : 17-Jul-2018 9:53:27 am

संपादकीय : ताजमहल की अनदेखी

दुनिया भर के पर्यटकों को आकर्षित करने वाले ताजमहल की देखभाल में लापरवाही पर सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी स्वाभाविक ही है। ताजमहल विदेशी मुद्रा का एक बड़ा जरिया होने के साथ ही विश्व में भारत की पहचान का पर्याय भी है। ऐसी भव्य इमारत के संरक्षण्ा के लिए तो ऐसे उपाय किए जाने चाहिए कि किसी को शिकायत का मौका ही न मिले। दुर्भाग्य से स्थिति इसके उलट दिख रही है और इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश सरकार को भी फटकार लगाई। समझना कठिन है कि ताजमहल सरीखी विशिष्ट इमारत की उचित देखभाल में आनाकानी का परिचय क्यों दिया जा रहा है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट की बार-बार की टोका-टोकी के बावजूद स्थितियां बेहतर क्यों नहीं हो रही हैं? 

 

इसका कोई मतलब नहीं कि ताजमहल प्रदूषण से जूझने के साथ ही कई तरह की अव्यवस्थाओं से भी दो-चार होता हुआ दिखे। सुप्रीम कोर्ट न जाने कब से यह कह रहा है कि ताजमहल की सज-धज बनाए रखने के लिए हरसंभव उपाय किए जाने चाहिए, किंतु नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही अधिक नजर आ रहा है। यह विचित्र है कि ताजमहल के आसपास औद्योगिक गतिविधियां शुरू करने की इजाजत दी जा रही है। यह तो सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के ठीक उलट काम है, जिसके तहत बरसों पहले उसने ताजमहल के आसपास की औद्योगिक इकाइयों को अन्यत्र स्थानांतरित किया था। 

 

 

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को भी कठघ्ारे में खड़ा किया। इस विभाग के लिए ताजमहल एक नगीने की तरह है। यह सरकारी विभाग न तो दुनिया भर के पर्यटकों को आगरा खींच लाने वाले ताजमहल का सही तरह से संरक्षण कर पा रहा है और न ही राष्ट्रीय महत्व की अन्य इमारतों का। यह एक तथ्य है कि ताजमहल के मुकाबले अन्य पर्यटन स्थलों की स्थिति अधिक खराब है। कई प्राचीन स्मारक तो अनदेखी और अव्यवस्था के चलते खंडहर में तब्दील हो रहे हैं। ऐतिहासिक महत्व की कुछ पुरानी इमारतें अतिक्रमण की भेंट चढ़ गईं, लेकिन पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास इसका जवाब नहीं कि ऐसा क्यों हुआ? भारत उन चंद देशों में है जिसके पास बेजोड़ स्थापत्य कला का परिचय देने वाली अनगिनत इमारतें हैं, लेकिन उनकी उचित देखभाल नहीं हो पा रही है। इसके चलते ये इमारतें पर्यटकों को आकर्षित करने में उतनी सक्षम नहीं, जितना कि उन्हें होना चाहिए। केंद्र सरकार यह समझे कि स्मारकों के संरक्षण में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की नाकामी बहुत महंगी साबित हो रही है। देश केवल अनमोल विरासतों को ही नहीं खो रहा है, बल्कि विदेशी मुद्रा से भी वंचित हो रहा है। इसमें दोराय नहीं कि पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है, लेकिन इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट की ऐसी कठोर टिप्पणियों से बात बनेगी कि ताजमहल की देखभाल नहीं कर सकते, तो फिर उसे ढहा दो। बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट उन कारणों की तह तक जाए, जिनके चलते ताजमहल और उसके साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण इमारतों की उचित देख-रेख नहीं हो पा रही है।

संपादकीय- पुलिस सुधारों के प्रति नेता ईमानदार नहीं
Posted Date : 13-Jul-2018 8:12:46 am

संपादकीय- पुलिस सुधारों के प्रति नेता ईमानदार नहीं

राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति को लेकर सुप्रीमकोर्ट का फैसला नया नहीं है। वास्तव में यह तो सुप्रीमकोर्ट का वर्ष 2006 का फैसला है। राज्य सरकारों ने उस फैसले पर मनमाने तरीके से अमल किया। कई राज्यों ने तो उसके क्रियान्वयन में विकृतियां ही पैदा कर दीं। राज्यों ने जो कुछ भी किया, वह पुलिस रिफार्म के लिए नहीं, बल्कि सुप्रीमकोर्ट से खुद को बचाने के लिए किया। इसलिए सुप्रीमकोर्ट ने अब अपने उस फैसले पर संज्ञान लिया। सुप्रीमकोर्ट का यह जो आदेश आया है, वह उसी फैसले का स्पष्टीकरण है।

सुप्रीमकोर्ट के 2006 के उस फैसले में मुख्यत: छह बातें थीं। राज्यों ने तो सिर्फ एक पर ही अमल किया। वास्तव में राजनेताओं के लिए पुलिस व्यवस्था कभी भी प्राथमिकता में नहीं रही है। वे पुलिस को लेकर उदासीन रहे हैं। ज्यादातर नेता पुलिस का इस्तेमाल करते हैं। वे पुलिस से यही चाहते हैं कि पुलिस उनके कहने पर किसी को गिरफ्तार कर ले, मुकदमा दर्ज कर ले। किसी ने कभी भी गंभीरता से पुलिस की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास नहीं किया। केंद्र हो या राज्य, सभी जगह यही स्थिति रही। सरकार किसी भी दल की रही हो, पुलिस को लेकर सभी दलों का एक ही रवैया रहा है कि पुलिस उनके कहे अनुसार चले। उनकी कठपुतली बनी रहे।
सुप्रीमकोर्ट ने 2006 के फैसले में राज्यों के लिए छह बातें कही थीं। सुप्रीमकोर्ट के आदेश के तहत राज्यों को स्टेट सिक्योरिटी कमीशन (एसएससी) का गठन करना था। पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति मेरिट के आधार पर करनी थी। तब उच्च अधिकारियों का कार्यकाल कम से कम दो साल रखने की बात कही गई थी। पुलिस में जांच और कानून व व्यवस्था के लिए अलग-अलग विंग बनाने थे। पुलिस के डीएसपी रैंक से नीचे स्तर के अधिकारियों के सभी स्थानांतरण, पोस्टिंग, प्रचार और अन्य सेवा संबंधित मामलों पर निर्णय लेने के लिए प्रत्येक राज्य में एक पुलिस प्रतिष्ठान बोर्ड गठित करना था। अदालत ने राज्यों को पुलिस कंप्लेंट्स अथॉरिटी (पीसीए) का गठन करने को भी कहा था।
इसके तहत डीएसपी रैंक तक के अफसरों के खिलाफ शिकायतों को देखने के लिए जिलास्तर पर एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किया जाना था। इसी तरह पुलिस सुपरिंटेंडेट व उनसे बड़े रैंक के अफसरों के खिलाफ शिकायतों को देखने के लिए राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय या सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना करनी थी। राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल सिक्योरिटी कमीशन (एनएससी) का गठन भी किया जाना था। तब अदालत ने यह भी कहा था कि जो निर्देश जारी किए जा रहे हैं, वे तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में अपना अधिनियम नहीं बना लेतीं।
इस मामले में राज्यों ने सुप्रीमकोर्ट के इन निर्देशों का अनुपालन या तो किया ही नहीं, अथवा मनमाने तरीके से किया। यह भी कहा जाता है कि कई राज्यों ने अपने नए पुलिस अधिनियम बना लिए हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। राज्यों ने जो कुछ काम किया भी, वह अदालत से बचने के लिए किया। वास्तव में राज्यों ने ये अधिनियम सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का पालन करने के लिए नहीं, बल्कि उनसे बचने के लिए बनाए हैं। इसे पुलिस रिफार्म नहीं कह सकते। अभी तो पांच बातें बची हैं, जिन पर अभी अमल किया जाना बाकी है।
बहरहाल, सुप्रीमकोर्ट ने अब ताजा फैसले में साफ कह दिया है कि राज्यों में डीजीपी की नियुक्ति का मामला संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) देखेगा। यूपीएससी डीजीपी पद के लिए तीन सबसे अधिक उपयुक्त पुलिस अधिकारियों की सूची तैयार करेगा। राज्य सरकार उनमें से किसी एक को डीजीपी बना सकेगी। सुप्रीमकोर्ट ने यह भी कहा कि सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश किसी भी पुलिस अधिकारी को कार्यवाहक डीजीपी नियुक्त नहीं कर पाएंगे।
अब तक राज्य सरकारें कार्यवाहक डीजीपी बनाते रहे हैं। फिर कुछ समय तक यह देखते रहे हैं कि डीजीपी उनका कहना मान रहे हैं कि नहीं। उनके इशारों पर चल रहे हैं कि नहीं। जो कार्यवाहक डीजीपी मुख्यमंत्री के इशारे पर चलने लगता था, उसे स्थाई डीजीपी बना देते थे। जो गलत काम करने से इनकार कर देते थे, उन्हें हटाकर दूसरे को डीजीपी बना देते थे। अदालत ने यह भी कहा है कि डीजीपी के रिटायर होने से तीन माह पहले यूपीएससी को उनके नाम भेजने होंगे जो इन पदों के दावेदार हैं। यूपीएससी उनकी सेवा की अवधि, अच्छे रिकॉर्ड और अनुभव के आधार पर तीन नाम प्रदेश सरकार को भेजेगी। राज्य सरकार उस पैनल के तीन वरिष्ठ अधिकारियों में से एक को डीजीपी चुन सकेगी। एक बार डीजीपी का चयन करने के बाद उसका न्यूनतम कार्यकाल दो साल का होना चाहिए। डीजीपी के अलावा एसपी का न्यूनतम कार्यकाल भी दो साल तय करने को कहा है।
सुप्रीमकोर्ट के इस आदेश के बावजूद पुलिस तंत्र में अभी बहुत सुधार करने की जरूरत है। पुलिस तंत्र में बहुत-सी समस्याएं हैं। पुलिस के कामकाज के घंटे तय नहीं हैं। जवानों को छुट्टियां मिलने में बहुत मुश्किलें होती हैं। जवान तनाव में रहते हैं। लगातार बढ़ती आबादी और नये-नये अपराधों के मद्देनजर पुलिस में संसाधनों की भारी कमी है। ट्रांसपोर्ट व्यवस्था सुधारने की जरूरत है। हथियार व अन्य जरूरी उपकरणों की भी जरूरत है। अपराधिक मामलों की जांच के लिए फोरेंसिक लेबोरेट्री की बहुत कमी है। उनके लिए आवास की भी बड़ी कमी है। इसी तरह केंद्रीय पुलिस बलों में भी बहुत-सी समस्याएं हैं। आए दिन जवान एक-दूसरे को गोली मारते रहते हैं। चूंकि वे घर से बहुत दूर रहते हैं, इसलिए ज्यादा तनाव में रहते हैं। उनकी समस्याएं भी बहुत जटिल हैं। बहरहाल, यह फैसला 2006 का है, तब से इस पर किसी ने ईमानदारी से अमल करने में दिलचस्पी नहीं ली।
अब सुप्रीमकोर्ट के ताजा आदेश से कम से कम डीजीपी की नियुक्ति तो ठीक से हो सकेगी। अभी तो बहुत काम किया जाना बाकी है। पुलिस में ढेरों समस्याएं हैं। यदि सुप्रीमकोर्ट के 2006 के फैसले पर ईमानदरी से काम किया होता तो पुलिस को लेकर समस्याएं कम हो जातीं लेकिन किसी ने भी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई।

पूर्व नियोजित ड्रामा
Posted Date : 04-Aug-2017 6:08:16 pm

पूर्व नियोजित ड्रामा

बिहार में राजग के साथ गठबंधन वाली सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी अंतर्रात्मा की आवाज सुनते हुए कल शाम इस्तीफा देकर बृहस्पतिवार को एनडीए के समर्थन से सरकार का पुनर्गठन करके दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली। तेजस्वी प्रसाद के इस्तीफे को लेकर लालू प्रसाद की बोल-वाणी से शायद नीतीश कुमार आजिज़़ आ गए थे। तेजस्वी प्रसाद लालू प्रसाद के बेटे हैं और गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं, जिनके खिलाफ सीबीआई ने भ्रष्टाचार के मामले में केस दर्ज किया है। नीतीश के इस पग से कांग्रेस और राजग के साथ जद-यू के महागठबंधन की गिरहें एक-एक करके खुलने लगी हैं। दरअसल भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नीतीश कुमार ने वैसा ही अभिनय किया जैसा भाजपा द्वारा लिखी पटकथा में इंगित था। अच्छी-खासी चल रही स्थायी सरकार औंधे मुंह गिरी। केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ने बदले में संतुष्टि तथा चैन की सांस ली कि आखिर सीबीआई व ईडी का फेंका उनका पासा खूब चल निकला। दरअसल नवंबर, 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों में लालू-नीतीश के गठबंधन को मिली आशातीत सफलता एक तरह से मोदी नेतृत्व के लिए किसी तीव्र झटके से कम नहीं थी। इस चुनावी विजय ने नीतीश कुमार का कद इतना बड़ा कर दिया कि लोग उन्हें 2019 के चुनावों में मोदी को चुनौती देने वाले शख्स के रूप में स्वीकारने ल"े थे। अब इन कयासों पर विराम लग गया है। हालांकि, नीतीश कुमार की इस बात को लेकर तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने सच्चाई के लिए अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी को दांव पर लगा दिया लेकिन कानूनन एक बात उनसे पूछी जानी चाहिए कि जब जेडी-यू तथा आरजेडी गठबंधन की नींव रखी गई तो क्या नीतीश कुमार को लालू परिवार के खिलाफ चल रहे आरोपों की जानकारी नहीं थी? अदालत के सम्मुख दोषी करार दिए गए यह लालू प्रसाद ही थे जिन्होंने 2015 के विधानसभाई चुनावों में गठबंधन के लिए धुआंधार प्रचार किया था। तब भी वोटरों ने लालू को खूब वोट दिए, नतीजतन आरजेडी एक बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। शायद अब नीतीश कुमार को लगता है कि सीबीआई के दोषारोपण ने पहले के हालात बदल दिए हैं। उपमुख्यमंत्री को कैबिनेट से हटाने की उनकी इच्छा को सम्मान नहीं दिया गया, इसीलिए उनकी अंतर्रात्मा ने उन्हें अपने पद से इस्तीफा देने के लिए उकसाया। सिद्धांतों की बात करने वाले नीतीश कुमार सैद्धांतिक रूप से अब इस नयी स्थिति में काम कैसे करेंगे? 2015 नवंबर के चुनावों में उन्हें मोदी, भाजपा तथा उनकी साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ जनादेश मिला था। नीतीश कुमार तथा भाजपा के बीच किसी तरह का भी 'वर्किंग अरेंजमेंटÓ सैद्धांतिक तौर पर सही नहीं कहा जाएगा। दरअसल आजकल भ्रष्टाचार ऐसा हथियार बनकर रह गया है, जिसे अपना हित साधने के लिए कोई भी अवसरवादी इस्तेमाल में ला सकता है। संक्षेप में कहें तो नीतीश कुमार तथा बिहार दोनों ही घाटे में रहेंगे।

 

सबसे ऊपर सुशासन
Posted Date : 04-Aug-2017 6:07:23 pm

सबसे ऊपर सुशासन

नीतीश कुमार ने एक बार फिर बीजेपी से हाथ मिलाकर सबको चौंका दिया है। उनके इस फैसले को पारंपरिक सियासी मुहावरों से नहीं समझा जा सकता। इसे बदलते परिदृश्य के संदर्भ में ही समझना होगा। सच्चाई यह है कि 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव का जनादेश बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ तो था ही, लेकिन उतना ही वह नीतीश की व्यक्तिगत छवि और उनके विकास मॉडल के पक्ष में भी था। याद कीजिए, उस चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिंदुत्व की नहीं अपने विकास मॉडल की बात ज्यादा करते थे और अपनी बात को दमदार बनाने के लिए उन्होंने एक डिवेलपमेंट पैकेज भी घोषित किया। फिर भी लोगों ने उनके मॉडल को नकारकर नीतीश के विकास मॉडल को पसंद किया, जिसमें समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की बात थी। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि लालू प्रसाद यादव जनता के इस नए मिजाज को समझ नहीं पाए। वक्त के हिसाब से खुद को बदलने के बजाय उन्होंने अपनी पुरानी शैली जारी रखी। राज्य सरकार में अपने दोनों बेटों को शामिल किया और बेटी को राज्यसभा भेजा। यही नहीं, शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली नेताओं को खुलेआम संरक्षण देना जारी रखा। उन पर और उनके परिवार पर जिस तरह एक के बाद एक संपत्ति बनाने के आरोप ल"ने शुरू हुए, उससे राज्य सरकार की किरकिरी होने ल"ी। पटना में एक मॉल बनाने के दौरान निकली मिट्टी को सरकारी पैसे से खरीदे जाने का प्रकरण सार्वजनिक हो जाने के बाद यह बात शायद ही किसी के "ले उतरे कि लालू परिवार पर ल"े सारे आरोप राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित हैं। जो नीतीश कुमार आरोप ल"ते ही अपने मंत्रियों का इस्तीफा ले लेते रहे हैं, उनके लिए इस हकीकत के साथ एडजस्ट करना कठिन था कि उनके डिप्टी सीएम गंभीर आरोपों से घिरे हैं। उन्होंने आरजेडी को अपनी गलती सुधारने के मौके भी दिए। इसके बावजूद तेजस्वी यादव को अपना पद छोडऩे पर राजी नहीं किया जा सका तो नीतीश ने वही किया जो वे कर सकते थे। उन्होंने खुद इस्तीफा दिया और राज्य पर एक मध्यावधि चुनाव थोपने की जगह बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई। अब खुद को मिले जनादेश का आदर वे इसी रूप में कर सकते हैं कि राज्य में विकास की गति बढ़ाएं और बीजेपी के सांप्रदायिक अजेंडे को अमल में न आने दें। इस बीच नीतीश ने भारतीय राजनीति के सेकुलर धड़े को यह सबक भी दिया है कि जनहित से परे जाकर किसी भी विचार का कोई अर्थ नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अगर आप भ्रष्टाचार का बचाव करते नजर आते हैं तो इसमें सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता का ही है। बहरहाल, अभी की बीजेपी को साथ लेकर चलना नीतीश के लिए पहले जितना आसान नहीं होने वाला है। जितने भी दिन वे शांति से सरकार चला सकें, बिहार के लिए उतना ही अच्छा है।

 

आसमान से बरसता मौत का कहर
Posted Date : 21-Jul-2017 6:28:13 pm

आसमान से बरसता मौत का कहर

आकाशीय बिजली गिरने की खबर पर कम ही ध्यान जाता है, पर जब यह पता चले कि हाल में, बिहार में एक ही दिन में आकाशीय बिजली की चपेट में आकर दो दर्जन से ज्यादा मौतें हो गईं तो इस समस्या पर विचार करना जरूरी लगता है। उत्तराखंड और यूपी में भी कुछ मौतों की खबर है। पिछले साल तो बिहार, यूपी, झारखंड और मध्य प्रदेश में मानसून के दौरान दो दिनों के भीतर 117 जानें आसमानी बिजली के कारण चली गई थीं। इससे लग रहा है कि हम इस प्राकृतिक आपदा के आगे बिल्कुल असहाय हैं। जबकि पश्चिमी देशों में तो आसमानी बिजली की चपेट में आकर इतनी मौतें नहीं होतीं। तो आखिर हमारे देश में ऐसी समस्या क्या है। एक प्राकृतिक आपदा के तौर पर आकाश से गिरती बिजली के आगे इन्सान आज भी बेबस है तो साइंस की तरक्की पर हैरानी होती है और उन इंतजामों को लेकर भी, जो आकाशीय बिजली के प्रकोप को कम नहीं कर पाते हैं। हालांकि मौसम विभाग की ओर से रेडियो-टीवी पर मौसम के पूर्वानुमानों में आकाशीय तडि़त की जानकारी दी जाती है, पर वह इतनी पुख्ता ढंग से नहीं बताई जाती। यह आपदा इनसानों के साथ-साथ जानवरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है, जिसके कारण बहुमूल्य पशुधन नष्ट हो जाता है। वैसे तो भवनों के निर्माण के वक्त तडि़त अवशोषी इंतजाम करने की सलाह दी जाती है, पर सवाल यह है कि बस स्टैंड, झोपडिय़ों में, खेतों में काम करते वक्त या फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होने पर क्या कोई इंतजाम हमें आसमान से लपकती मौत से बचा सकता है? दुनिया में तकरीबन हर रोज जो हजारों तूफानी बारिशें होती हैं और उनसे करीब सौ बिजलियां हर सेकंड धरती पर गिरती हैं, पर विकसित देशों में उनसे कभी-कभार ही मौत होती है। पर भारत जैसे मुल्क में गिरती बिजलियां अकसर बुरी खबर बन जाती हैं। आंकड़ों के मुताबिक बीते एक दशक में हमारे देश में आकाशीय बिजली की चपेट में आने से हजारों से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। इनमें मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा (3801) मौतें हुई हैं। यह शोध भी सामने आया आ चुका है कि बिजली गिरने के दौरान मोबाइल फोन का प्रयोग जानलेवा साबित हो सकता है। आकाशीय बिजली से मौतों की संख्या में बढ़ोतरी का एक कारण यह बताया जा रहा है कि जंगलों और गांव-कस्बों व शहरों में विकास कार्यों के चलते पेड़ों की बड़ी संख्या में कटाई हो रही है, जिससे उसका प्रकोप बढ़ गया है। कानपुर स्थित सीएसए यूनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी अनिरुद्ध दूबे का इस बारे में मत है कि जब पेड़ों की संख्या अधिक थी तो आकाशीय बिजली ज्यादातर पोली जमीन और पेड़ों पर गिरती थी। लेकिन अब ऐसी जमीनें कम हो गई हैं और पेड़ भी नहीं बचे हैं। इसलिए प्रकृति के इस कोड़े से होने वाला संहार बढ़ गया है। साइंस की नजर से देखें तो पता चलता है कि आकाशीय बिजली की घटना बादलों में होने वाले इलेक्िट्रक चार्ज का परिणाम है और यह तब होती है, जब पानी से भरे किसी बादल की निचली सतह में भारी मात्रा में ऋणात्मक आवेश जमा हो, पर उसकी ऊपरी परत में धनात्मक आवेश होता है। जब धरती की सतह के नजदीक गर्म और नम हवा तेजी से ऊपर की ओर उठती है और इस प्रक्रिया में ठंडी होती है तो पानी से भरे तूफानी बादलों का जन्म होता है। विज्ञान की भाषा में क्यूमलोनिंबस कहलाने वाले 44 हजार ऐसे तूफानी बादल कहीं न कहीं बनते रहते हैं और उनसे ही आकाशीय बिजली की लपक धरती की ओर झपटती है। आकाशीय बिजली या तडि़त का यह रहस्य तो ढाई सौ साल पहले 1746 में बेंजमिन फ्रैंकलिन के समय में ही जान लिया गया था। गौर करने वाली बात है कि दो वस्तुओं की रगड़ से या तारों की आपसी घर्षण से जो स्पार्क पैदा होता है, अकसर उसकी लंबाई एक सेंटीमीटर या उससे कम होती है, जबकि आकाशीय तडि़त की लंबाई पांच किलोमीटर या उससे भी ज्यादा हो सकती है। इसके अलावा आकाशीय बिजली में दसियों हजार गुना एम्पीयर का करंट होता है, जबकि आमतौर पर घरों में दी जाने वाली बिजली में 20 एम्पीयर का करंट होता है। चूंकि आकाशीय बिजली एक बड़ी परिघटना है, इसलिए भौतिकी में इसे लेकर अनेक अनुसंधान होते रहे हैं। यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि कार-बसों में बैठे लोगों से ज्यादा आकाशीय बिजली की मार उन पर पड़ती है जो खुले स्थानों में होते हैं। कार आदि की धातु की छत और वाहन का ढांचा तडि़त के आवेश को छितरा देता है और वह बिजली धरती में समा जाती है। पर खुले स्थानों में बिजली सीधे मनुष्यों या जानवरों पर गिरती है। इन हादसों की संख्या को देखते हुए बड़ी जरूरत इसकी है कि आकाशीय बिजली के प्रहार से गरीबों को बचाया जाए। क्या हमारी सरकार और मौसम विभाग की आंखें यह आसमानी बिजली खोल सकेगी?

विपक्ष के गांधी
Posted Date : 21-Jul-2017 6:27:33 pm

विपक्ष के गांधी

विपक्ष ने संयुक्त रूप से गोपाल कृष्ण गांधी को उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना है। उन्हें विपक्ष के 18 दलों का समर्थन हासिल है। खास बात यह है कि उन्हें जेडीयू ने भी अपना सपॉर्ट दिया है, जिसने राष्ट्रपति पद के लिए सत्तापक्ष के साथ जाने का फैसला किया था। इस बार विपक्ष ने अपना कैंडिडेट चुनने में सत्ता पक्ष से ज्यादा तत्परता दिखाई है और सत्ता पक्ष को दबाव में ला दिया है। संख्या बल के हिसाब से गोपाल कृष्ण गांधी का जीतना मुश्किल है क्योंकि सत्ता पक्ष के सांसदों की संख्या ज्यादा है। लेकिन विपक्ष के लिए प्राय: हमेशा ही राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनावों का प्रतीकात्मक या वैचारिक महत्व ज्यादा रहा है। अपने उम्मीदवार के चयन के जरिए विपक्ष देश को एक संदेश देने की कोशिश करता है। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि लोकतंत्र केवल बहुमत के मूल्यों से नहीं चलता। यह ठीक है कि व्यवस्था के संचालन संबंधी निर्णय बहुमत से ही लिए जाते हैं, मगर सिस्टम की सार्थकता इसी में है कि महत्वपूर्ण फैसलों में अल्पमत की आवाज भी शामिल हो। इसे ध्यान में रखकर ही गोपाल कृष्ण गांधी को चुना गया है। वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पोते हैं, लेकिन यह ज्यादा बड़ी बात नहीं। अहम यह है कि वह गांधीजी के मूल्यों और आदर्शों के प्रति समर्पित हैं। उन्होंने अपने जीवन में गांधीवाद को उतारा और उच्च पदों पर रहते हुए भी सादगी और सच्चाई के रास्ते पर चले। जब वह प. बंगाल के राज्यपाल थे, तब राज्य में बिजली संकट को देखते हुए उन्होंने राजभवन में बिजली के उपयोग में कटौती की पहल की थी। राज्यपाल के रूप में वह राज्य प्रशासन को लेकर अपने विचार खुलकर रखते रहे। नंदीग्राम में हुए किसान आंदोलन के समय उन्होंने तत्कालीन लेफ्ट सरकार को आड़े हाथों लिया था। तब उन्होंने कहा था कि मैं अपनी शपथ के प्रति इतना ढीला रवैया नहीं अपना सकता, अपना दुख और पीड़ा मैं और अधिक नहीं छिपा सकता। एक बार वे सीबीआई को 'सरकारी कुल्हाड़ीÓ की संज्ञा भी दे चुके हैं। साल 2015 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- 'गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्या को किसी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।Ó वह लोकपाल को लेकर सरकार के लचर व्यवहार पर कई बार सवाल उठा चुके हैं। ऐसे व्यक्ति को सामने रखकर विपक्षी दलों ने समाज में गांधीवादी मूल्यों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। गांधी ने जीवन में सादगी और शुचिता की वकालत की थी। वे अत्यधिक उपभोग पर आत्मसंयम को तरजीह देते थे और सभी प्राणियों के प्रति करुणा को मानव जीवन के लिए जरूरी मानते थे। आज जब समाज में स्वार्थ, दिखावा और आक्रामकता बढ़ रही है, तब गांधी के आदर्शों की सख्त जरूरत है। जीत-हार अपनी जगह लेकिन यह संदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।