संपादकीय

सम्पादकीय- प्रदूषण की रिहाइश
Posted Date : 20-Oct-2018 11:18:16 am

सम्पादकीय- प्रदूषण की रिहाइश

पंद्रह साल से ऊपर होने को आए जब दिल्ली की रिहाइशी कॉलोनियों में चल रहे प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को हटा कर राजस्थान-हरियाणा की सीमा पर भिवाड़ी और उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में बसाने का अभियान चला था। कारखाना मालिकों ने अपनी सुविधा के अनुसार इन औद्योगिक क्षेत्रों में भूखंड आबंटित करा लिए। मगर हकीकत यह है कि अब भी दिल्ली के कई इलाकों, यहां तक कि रिहाइशी कॉलोनियों के भीतर प्रदूषण फैलाने वाले कारखाने चल रहे हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी कई बार इन इकाइयों को पूरी तरह हटाने का आदेश दे चुका है, पर दिल्ली सरकार इस मामले में नाकाम साबित हुई है। इसलिए एनजीटी ने दिल्ली सरकार पर पचास करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया है। यह जुर्माना सिर्फ ऐसी इकाइयों को न हटाए जाने को लेकर लगाया गया है, जिनमें स्टील पिकलिंग यानी लोहे पर से जंग, दाग और गंदगी हटाने का काम किया जाता है। लोहे या स्टील की गंदगी साफ करने में तेजाब का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे बाद में नालियों के जरिए नदी में बहा दिया जाता है। मगर इनके अलावा भी चोरी-छिपे अनेक ऐसे कारखाने दिल्ली के रिहाइशी इलाकों में चलते हैं, जिनसे वायु, ध्वनि और जल प्रदूषण बढ़ता है।   दिल्ली सरकार लगातार जाहिर करती रही है कि वह प्रदूषण रोकने को लेकर काफी गंभीर है। मगर वह सचमुच गंभीर होती, तो इस तरह प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयां अवैध रूप से रिहाइशी इलाकों में न चल रही होतीं। बहुत सारी इकाइयां उन इलाकों में अब भी बनी हुई हैं, जो दिल्ली विकास प्राधिकरण ने नहीं बसाए हैं। ये मुख्य रूप से दिल्ली की शहरी योजनाओं के भीतर आ गए गांवों, अनधिकृत रूप से बसी कॉलोनियों आदि में चलती हैं। चूंकि इनका पंजीकरण नहीं होता, इसलिए सरकार का तर्क हो सकता है कि इन पर नजर रखना उसके लिए मुश्किल होता है। पर यह तर्क इसलिए गले नहीं उतरता कि ये इलाके किसी से छिपे नहीं हैं। इन इलाकों में रहने और इन इकाइयों में काम करने वाले लोग लोकसभा से लेकर नगर निगम तक के चुनाव में मतदान करते हैं। इन इलाकों में बिजली, पानी, सड़क, सफाई तक की सुविधाएं उपलब्ध हैं। पुलिस के सुरक्षा दस्ते उन इलाकों पर नजर रखते हैं। फिर कैसे माना जा सकता है कि उन इलाकों में चल रही अवैध औद्योगिक इकाइयों के बारे में सरकारी तंत्र को जानकारी नहीं मिल पाती! छिपी बात नहीं है कि इस तरह की औद्योगिक इकाइयां राजनीतिक रसूख वाले लोगों की शह या इन पर नजर रखने वाले महकमे के अधिकारियों के साथ साठगांठ से चल रही होती हैं। चूंकि इनका पंजीकरण नहीं होता, इसलिए इनमें कारखाना कानून के मुताबिक सुरक्षा, सफाई, कर्मचारियों के वेतन-भत्तों आदि पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। इनसे निकलने वाला प्रदूषित जल बिना शोधन के सीधे नालियों के जरिए बहा दिया जाता है। इनके धुएं पर नियंत्रण को लेकर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। इन इकाइयों की मनमानी पर तब ध्यान जाता है, जब इनमें कोई बड़ा हादसा हो जाता है। पर यह समझ से परे है कि कोई भी सरकार लोगों की सेहत की कीमत पर प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों को कैसे रिहाइशी इलाकों या फिर भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में कारोबार चलाते रहने की छूट दे सकती है! केवल स्टील पिकलिंग नहीं, ऐसी दूसरी इकाइयों की मनमानी पर भी रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है।

सम्पादकीय- दवा का दर्द
Posted Date : 16-Oct-2018 10:04:02 am

सम्पादकीय- दवा का दर्द

 तरह-तरह की बीमारियों के अंधेरे में वह साल एक सूर्योदय की तरह था। यह ठीक है कि 75 साल पहले जिन एंटीबायोटिक का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ, उनके पास सभी बीमारियों का इलाज नहीं था, लेकिन दुनिया की बहुत सी महामारियों के लिए वे रामबाण की तरह थीं। इसने मानवता को प्लेग जैसी महामारी से मुक्ति दिलाई, जिसके आतंक से यह खौफ पैदा हो गया था कि कहीं यह पूरी दुनिया की मानव आबादी को ही न निगल जाए। वर्ष 1340 में जब यह बीमारी यूरोप पहुंची, तो वहां इसने एक साल में ही ढाई करोड़ लोगों की जान ले ली थी। ऐसी बीमारियों की सूची बहुत लंबी है, जिनका रामबाण इलाज एंटीबायोटिक  के आगमन के बाद ही संभव हुआ। और प्लेग जैसी बीमारियों का तो लगभग उन्मूलन ही हो गया। आज भले ही एंटीबायोटिक की आलोचना या उसे कोसना फैशन में आ गया हो, लेकिन यह सच है कि उसने अब तक करोड़ों या शायद अरबों लोगों की जान बचाई है। कुछ मामलों या कुछ खास लोगों में इसकी एलर्जी जैसे दुष्प्रभाव भले ही दिख जाएं, लेकिन अभी भी बहुत सी बीमारियों का इलाज सिर्फ इन्हीं के भरोसे किया जाता है। सबसे बड़ी बात है कि ये आसानी से उपलब्ध भी हैं यही आसानी ही अब समस्या के रूप में सामने आ रही है। समस्या इतनी बड़ी है कि अपनी हीरक जयंती मना रही एंटीबायोटिक  अपनी शताब्दी भी मना पाएगी, इस पर सवाल उठ रहे हैं। समस्या दो स्तरों पर है। आसानी से उपलब्ध होने के कारण इनका इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा और बहुत ज्यादा होने लगा है। इस वजह से शहरों में ही नहीं, गांवों और यहां तक कि जंगलों में भी जब दूध, पानी, शहद या किसी भी प्राकृतिक चीज के नमूने लिए जाते हैं, तो उनमें एंटीबायोटिक के अवशेष मिल जाते हैं। इस वजह से एक तो तरह-तरह केकीटाणु एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोध विकसित करते जा रहे हैं। यानी उन पर अब बहुत से एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होता। पहले आमतौर पर यह होता था कि कीटाणु एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोध विकसित कर लेते थे, उनके इलाज के लिए नई एंटीबायोटिक बाजार में आ जाती थी। लेकिन अब इस मामले में एक दूसरी समस्या खड़ी हो गई है। एक तो कुछ कीटाणु ऐसे हो गए हैं, जो सुपरबग कहलाने लगे हैं, उन पर किसी भी एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होता। दूसरी समस्या यह है कि नई एंटीबायोटिक खोजने का काम मंदा पड़ गया है। किसी भी नई एंटीबायोटिक को खोजने और सारे परीक्षण करके बाजार में उतारने में दो दशक या उससे ज्यादा समय लग जाता है। इसमें इतना ज्यादा निवेश होता है कि शुरुआत में उनकी कीमत बहुत ज्यादा रखनी पड़ती है, जिसकी वजह से वे कम बिकती हैं, कंपनियों को घाटा होता है और जब तक उनके बड़े स्तर पर बिकने का मौका आता है, कीटाणु उनका प्रतिरोध विकसित कर चुके होते हैं। तमाम बड़ी दवा कंपनियों ने नई एंटीबायोटिक विकसित करने से अपना हाथ खींच लिया है। यह काम अब कुछ छोटी कंपनियां ही कर रही हैं। यह भी कहा जाता है कि यह समस्या एंटीबायोटिक की नहीं, बाजार की पैदा की हुई है। तमाम बीमारियों का इलाज करने वाली एटीबायोटिक के पास बाजार की इस समस्या का कोई इलाज नहीं। पर यह भी सच है कि हमारे पास एंटीबायोटिक का अभी कोई विकल्प नहीं है। जब तक नहीं है, हमें उसके सौ नहीं दो सौ साल जीने का इंतजाम करना होगा।

सम्पादकीय…क्या राहुल गांधी भी आत्मकेंद्रित राजनेता हैं?
Posted Date : 24-Aug-2018 5:50:44 am

सम्पादकीय…क्या राहुल गांधी भी आत्मकेंद्रित राजनेता हैं?

कहते हैं, इतिहास क्रूर और निर्मम होता, वह किसी को माफ नहीं करता फिर चाहे वह कितना ही महान और लोकप्रिय क्यों ना हो। बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा ने पं. जवाहर लाल नेहरू के संदर्भ में की गई टिप्पणी पर भले ही विनम्रता दिखाते हुए माफी मांग ली है लेकिन पं. नेहरू स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है, इसे कैसे झुठलाया जा सकता है। यहां पर नेहरू-जिन्ना विवाद को कुरेदना मकसद नहीं है। अब वह गैर जरूरी ही है। इसमें गौर करने वाली बात यह है दलाईलामा ने पं. नेहरू के संदर्भ में एक खास शब्द का प्रयोग किया है। वह शब्द था – आत्मकेंद्रित। पं. नेहरू क्या वाकई आत्मकेंद्रित थे? उनके व्यक्तित्व के उस विश्लेषण के साथ भारत के प्रधानमंत्री बनने की अद्म्य इच्छा जुड़ी हुई थी। पं. नेहरू के उस आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व के पहलू पर आज के संदर्भ में गौर किया जाए तो यही बात उनके ‘पड़-नातीÓ राहुल गांधी पर दिखाई नहीं देती? राहुल गांधी भी खुलकर यह कहने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि हां, मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूं। राहुल गांधी में भी प्रधानमंत्री बनने की वही आत्मकेंद्रित अद्म्य लालसा अभिलाषा साफ झलक रही है। किसी राजनेता के लिए यह लालसा बुरी भी नहीं कही जा सकती। प्रधानमंत्री बनने की जितनी बेसब्री राहुल गांधी में होगी उतनी ही कांग्रेस में भी है। पूरी कांग्रेस उनकी अभिलाषा के साथ खड़ी है। प्रश्न यह नहीं है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। प्रश्न तो अद्म्य लालसा के भीतर है। ऐसे में सवाल यही उठता है क्या राहुल गांधी भी पं. नेहरू की तरह आत्मकेंद्रित राजनेता है? निसंदेह पं. नेहरू महिमा मंडित प्रधानमंत्री थे। उनकी दृष्टि रचनात्मक थी। अपार लोकप्रियता थी। वे जननायक थे। उनके जननायकत्व की आभा इतनी प्रबल और प्रखर थी उसमें उनके आत्मकेंद्रित होने का पहलू पीछे छिप गया था। आजाद भारत में उनके इस पहलू पर फिर कभी गौर नहीं किया गया। सामान्य सोच यही है कि जब कोई व्यक्ति हद से ज्यादा आत्मकेंद्रित हो जाए तो फिर उसे अपने सिवाय और किसी की परवाह नहीं होती और न ही अपने परिवेश की। ऐसा व्यक्ति किसी भी कीमत पर अपनी जिद्द को पूरा करना चाहता है। जिद्दी होना तब एक अच्छा गुण हो जाता है जब दृष्टि सकारात्मक और विधेयक हो। नकारात्मक नजरिये का जिद्द अंतत: फलदायी नहीं होता। राहुल गांधी के तेवरों से यह साफ झलकता है कि वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, चाहे राजनीति की दशा और दिशा कुछ भी हो। पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति से भला कौन वाकिफ नहीं है। लेकिन कांग्रेस महागठबंधन की ‘फुगड़ीÓ खेल रही है। न कोई उन्हें पूछ रहा है न कोई बुला रहा है फिर भी महागठबंधन का गीत गाते कांग्रेस के नेता यहां वहां चहक रहे हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी यह मान कर चल रहे हैं कि महागठबंधन से चुनाव 2019 में भाजपा की जबर्दस्त पराजय होगी और मोदी पीएम नहीं बन पाएंगे। उनका सोचना है, यूपी-बिहार सहित कई राज्यों में वोटों का समीकरण कुछ ऐसा बनेगा कि भाजपा की सारी चालाकियां और तैयारियां धरी की धरी रह जाएंगी। कांग्रेस इसी धारणा से ग्रसित नजर आ रही है। चिंता और दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी आज किसी के हार जाने पर बैठे ठाले अपनी जीत की संभावना के दीए जला रही है। ‘मर्कट मनÓ वाले किसी भी आदमी के लिए भारतीय राजनीति के शीर्ष पद पर पहुंचना आज भी कठिन है। आज की राजनीति में ‘हिट एण्ड रनÓ के नए मुहावरे को जीने वाले राहुल गांधी किसी एक मुद्दे पर आज तक अपनी धाक नहीं जमा पाए। किसी भी तरह पीएम मोदी हार जाएं यही कांग्रेस के लिए आज मूल मंत्र है। यह नकारात्मक राजनीति कांग्रेस को कहां ले जाएगी, यह आने वाला समय ही तय करेगा। किसी के हारने की उम्मीद पर जी रही कांग्रेस के पास क्या अपना कुछ कहने के लिए कुछ भी नहीं है? आरोपों के अनारदानों और सत्ता पक्ष की बुराइयों की कुछ फुलझडिय़ां जलाकर खुशी तो मनाई जा सकती है लेकिन वह सत्ता पाने की दीपावली तो नहीं हो सकती। महज किसी को गाली देकर कोई बड़ा कैसे हो सकता है? बड़ा होने की कूबत तो खुद पैदा करनी होती है। लोकतंत्र में किसी राजनेता का आत्मकेंद्रित हो जाना भी तब तक बुरा नहीं है जब तक वह अपने आसपास के लिए परेशानी का कारण न बने। राहुल गांधी आज सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष हैं उनके ‘वास्तविकÓ सलाहकार कौन है, यह तो पता नहीं, प्रत्यक्ष तौर पर यह भी कहना कठिन है कि कांग्रेस में आज उन्हें खुले तौर पर सलाह देने की कोई हिम्मत रखता है या नहीं। ऐसे में किसी का आत्मकेंद्रित सपना कांग्रेस के लिए एक बार फिर खतरे की घंटी बन सकता है। खैर, कांग्रेस का इतिहास ढेरों-ढेर दर्द अपने भीतर समेटे हुए है जिसका जिक्र करना फिलहाल ठीक नहीं है। लोकसभा के चुनाव अभी कम से कम आठ महीने दूर हैं। तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में महज तीन महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। बेशक, कांग्रेस के लिए वापसी का बेहतरीन मौका है। लेकिन ‘मौकाÓ हकीकत में तभी न तब्दील होगा जब कांग्रेस जमीनी स्तर पर कुछ कर दिखाएगी। छत्तीसगढ़ के मुद्दों को छोड़कर चुनाव के पहले राफेल-राफेल-राफेल चिल्लाने से क्या होगा? जिस राफेल पर कांग्रेस के साथ कथित महागठबंधन का कोई एक दल भी खड़ा नहीं दिख रहा है। तब छत्तीसगढ़ की जनता कितना साथ देगा? राहुल गांधी रायपुर के दौरे पर आए और गए भी। उनके आने-जाने से कांग्रेस में कितनी नई ऊर्जा का संचार हुआ, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा। बदलाव के नारों और पोस्टरों से कांग्रेस और राहुल गांधी छत्तीसगढ़ का कितना और कैसा भला करना चाहते हैं, यह अभी समझ से परे है।

सम्पादकीय- कुर्बानी आख़िर क्यों !
Posted Date : 22-Aug-2018 11:24:01 pm

सम्पादकीय- कुर्बानी आख़िर क्यों !

ईद-उल-अजहा यानी बकरीद आज पुरे देशभर में मनाई जाएगी। ईद-उल-फितर यानी मीठी ईद के बाद मुस्लिम समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार बकरीद आता है। मीठी ईद के ठीक 2 महीने बाद बकरीद आती है। हिंदुओं में होली और दिपावली सबसे बड़े त्योहार हैं, उसी प्रकार मुस्लिम समुदाय में ये दोनों ईद बड़े त्योहार हैं। इस दिन बकरे की कुर्बानी दी जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आखिर बकरीद पर बकरे की कुर्बानी क्यों दी जाती है, इस दिन कुर्बानी देने का क्या महत्व है…

तीन हिस्सों में बांटा जाता है गोश्त…

बकरीद के दिन सबसे पहले नमाज अदा की जाती है। इसके बाद बकरे या फिर अन्य जानवर की कुर्बानी दी जाती है। कुर्बानी के बकरे के गोश्त को तीन हिस्सों करने की शरीयत में सलाह है। गोश्त का एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाता है, दूसरा दोस्त अहबाब के लिए और वहीं तीसरा हिस्सा घर के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

यहां से हुई थी शुरुआत…

इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक, एक पैगंबर थे हजरत इब्राहिम और माना जाता है कि इन्हीं के जमाने से बकरीद की शुरुआत हुई। वह हमेशा बुराई के खिलाफ लड़े। उनका ज्यादातर जीवन जनसेवा में बीता।

पहले दी थी इसकी कुर्बानी…

90 साल की उम्र तक उनकी कोई औलाद नहीं हुई तो उन्होने खुदा से इबादत की और उन्हें चांद से बेटा इस्माईल मिला। उन्हें सपने में आदेश आया कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। पहले उन्होंने ऊंट की कुर्बानी दी। इसके बाद उन्हें सपने आया कि सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो।

फिर आया सपना…

इब्राहिम ने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। उन्हें फिर से वही सपना आया, इस बार वह खुदा का आदेश मानते हुए बिना किसी शंका के बेटे के कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से बच्चे को नहला-धुलाकर तैयार करने को कहा।

इस तरह मिला बच्चा…

इब्राहिम जब वह अपने बेटे इस्माईल को लेकर बलि के स्थान पर ले जा रहे थे तभी इब्लीस (शैतान) ने उन्हें बहकाया कि अपने जिगर के टुकड़े को मारना गलत है। लेकिन वह शैतान की बातों में नहीं आए और उन्होंने आखों पर पट्टी बांधकर कुर्बानी दे दी। जब पट्टी उतारी तो बेटा उछल-कूदकर रहा था तो उसकी जगह बकर यानी बकरे की बली खुदा की ओर से कर दी गई।

इसलिए दी जाती है बकरे की कुर्बानी…

हजरत इब्राहिम ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। इब्राहिम की कुर्बानी से खुदा खुश होकर उन्होंने पैगंबर बना दिया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि जिलहिज्ज के इस महीने में जानवरों की बलि दी जाती है। इसलिए बकरीद पर बकरे की कुर्बानी दी जाती है। वहीं मुस्लिम हज के अंतिम दिन रमीजमारात जाकर शैतान को पत्थर मारते हैं जिसने इब्राहिम को खुदा के आदेश से भटकाने की कोशिश की थी।

सम्पादकीय- प्रयत्नों की रोशनी से झाँकती उम्मीदें !
Posted Date : 21-Aug-2018 1:05:53 pm

सम्पादकीय- प्रयत्नों की रोशनी से झाँकती उम्मीदें !

जब भी साल बदलता है, हमें ठहरकर सोचने पर मजबूर करता है। यों तो हर पल गतिमान समय की धार में साल, वर्ष, बरस… जो भी कह लें, एक छोटा–सा बिंदु है … पर चूँकि हम इसी बहाने से ईस्वी सन वाला दीवारों पर टँगा कैलेंडर बदलते हैं, आँकड़ा बदलते हैं, तो इस वक्फे का इस्तेमाल पीछे पलटकर देखने और आगे के स्वप्न संजोने के लिए कर ही लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। आख़िर हम घड़ी की भागती सुइयों और कैलेंडर पर बदलती तारीखों से ख़ुद को इतना करीब से जोड़ चुके हैं। इस लौकिक जीवन में काल का ये खंड और बदलते साल के आँकड़े हमें रोमांचित भी करेंगे और इससे नत्थी हमारी ज़िंदगी को लेकर सोचने पर मजबूर भी करेंगे। जिंदगी कभी किसी के लिए नहीं रूकती है.

सम्पादकीय- और न बिगड़ें हालात !
Posted Date : 20-Aug-2018 6:25:07 pm

सम्पादकीय- और न बिगड़ें हालात !

केरल में बारिश थमने से आखिरकार लोगों ने थोड़ी राहत की सांस ली, लेकिन अभी खतरा टला नहीं है। मगर इससे पहले भारी बारिश के कारण आई बाढ़ से मची त्रासदी ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया और सैकड़ों की जानें ले लीं. सूबे में बाढ़ की विभीषिका के कारण 7,24,649 लोगों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी है. बाढ़ पीड़ितों के लिए 5,645 राहत शिविर बनाए गए हैं. बाढ़ की त्रासदी ने 370 जिंदगियां लील लीं. वहीं कर्नाटक का कोडागु जिला भी बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित है. कोडागु जिले में करीब 3,500 लोगों को सुरक्षित निकाला गया है. सरकार ने रविवार को कहा कि लगातार बारिश से राहत कार्यो में बाधा आ रही है. मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने कहा, “सेना, नौसेना और अन्य राज्य व केंद्रीय एजेंसियों ने अभी तक 3,500 से ज्यादा लोगों को बचाया है.” इस बाढ़ग्रस्त पहाड़ी जिले में सैकड़ों लोग फंसे हुए हैं.

केरल में बारिश से राहत
मौसम विभाग ने कहा कि अच्छी खबर यह है कि पिछले दो दिनों में केरल में बारिश की तीव्रता कम हुई है. इसने कहा कि राज्य में अगले चार दिनों तक भारी बारिश का अनुमान नहीं है. मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने मीडिया से बातचीत में कहा, “हमारी सबसे बड़ी चिंता लोगों की जान बचाने की थी. लगता है कि इस दिशा में काम हुआ.” केरल में आखिरकार बाढ़ के सबसे विनाशकारी दौर समाप्त होने के संकेत मिले और कई शहरों और गांवों में जलस्तर में कमी आई. मुख्यमंत्री ने कहा, “शायद यह अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिससे भारी तबाही मची है. इसलिए हम सभी प्रकार की मदद स्वीकार करेंगे.” उन्होंने बताया कि 1924 के बाद प्रदेश में बाढ़ की ऐसी त्रासदी नहीं आई।  बता दे की अभी भी केरल में बाढ़ का कहर टला नहीं है अभी भी अलर्ट जारी है।