संपादकीय

18-Nov-2018 11:53:21 am
Posted Date

खुली मंडी व्यवस्था के बढ़ते जोखिम

देविंदर शर्मा
हरियाणा की मंडियों में साथ लगते उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों से गेहूं और धान की फसल की आमद कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस साल जब धान की खरीद चरम पर थी तो बिहार से बड़ी मात्रा में चावल पंजाब और हरियाणा की मंडियों में बिकने आया। छपी खबरों के मुताबिक पंजाब खाद्य एवं सप्लाई महकमे द्वारा महीने भर चलाई गई कार्रवाई में बिहार से पहुंचे 2.5 लाख से ज्यादा धान के बोरे जब्त किए गए। इसके अलावा पिछले साल धान की फसल से बिहार के खाद्य आपूर्ति विभाग के लिए विशेष तौर पर बनाए गए 2 लाख से ज्यादा बोरे भी बरामद किए गए। इसी तरह हरियाणा में भी सितंबंर माह में बिहार खाद्य आपूर्ति विभाग के चावल से भरे 1.25 लाख बोरे करनाल और आसपास के इलाकों से बरामद हुए हैं। अवश्य इस घालमेल के पीछे बिहार, उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के व्यापारियों का गठजोड़ है जो अपने क्षेत्र के सस्ते चावल को हरियाणा-पंजाब में अपेक्षाकृत ऊंची कीमतों की वजह से चोरी-छिपे भेजते हैं।
इसके पीछे कारण सीधा है, जहां उत्तर प्रदेश के पास कृषि उत्पाद मंडी कमेटी कानून (एपीएमसी एक्ट) के अंतर्गत मंडियों का सुचारु नेटवर्क नहीं है, वहीं बिहार ने इसके प्रावधानों को 2006 में ही निरस्त कर दिया था, जिसकी वजह से किसान अपने गेहूं और चावल को खुली मंडियों में सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से कहीं कम कीमतों पर बेचने को मजबूर हुए हैं। बिहार में जहां निम्न दर्जे का धान 800-900 रुपये प्रति क्विंटल और बढिय़ा वाले का मूल्य अधिकतम 1,300 से 1,500 रुपये के बीच है वहीं पंजाब और हरियाणा में इस जिंस के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य इससे काफी ज्यादा यानी 1,750 रुपये प्रति क्विंटल है।
बिहार के बाद एपीएमसी कानून में बदलाव लाने वाला महाराष्ट्र दूसरा राज्य बन गया है। पहले एक अधिसूचना जारी की गई थी कि व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर जिंस नहीं खरीद सकते लेकिन चंद महीनों बाद इसको बदलते हुए जो कानून लागू किया गया, उसमें तमाम कृषि उत्पाद मूल्य-नियंत्रण व्यवस्था से बाहर कर दिए गए। नए निर्देशों के अनुसार कृषक किसान राज्य की मूल्य नियंत्रित एपीएमसी मंडियों से इतर खुले बाजार में अपने उत्पाद बेच सकते हैं। वर्ष 2016 में महाराष्ट्र ने एक अन्य सुधार में फल और सब्जियों को एपीएमसी एक्ट से मुक्त किया था लेकिन इस बारे कोई सर्वे यह बताने के लिए नहीं है कि क्या इससे उत्पादकों को कोई मदद मिली भी है या नहीं। केवल यही रिपोर्टें देखने को मिलती हैं कि सब्जियों के उचित मूल्य न मिलने पर, जो उनकी लागत से भी कहीं कम होता है, गुस्साए किसानों ने अपने उत्पाद सडक़ों पर फेंक दिए हैं।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री सदाभाऊ खोत ने एक्ट हटाने की घोषणा करते वक्त मीडिया चैनलों से कहा, ‘पहला कदम अधिसूचना जारी करना है और विस्तृत नियम 15 दिनों के भीतर जारी कर दिए जाएंगे, इस पीछे मंतव्य एपीएमसी सुविधाओं वाली मंडियों के समानांतर निजी बाजार तैयार करना है ताकि स्वस्थ मूल्य-प्रतिस्पर्धा बन सके।’ हालांकि यह पूरी तरह पक्का नहीं है कि एपीएमसी एक्ट में किए गए इन सुधारों ने किसानों की उचित मूल्य मिलने में कितनी मदद की है, लेकिन यह देखना जरूर रोचक होगा कि इन नए खुले व्यापार प्रावधानों के तहत महाराष्ट्र का धान कितनी जल्द पंजाब और हरियाणा की मंडियों का रुख करता है। जब लगभग 12 साल पहले बिहार ने एपीएमसी एक्ट को रद्द किया था तब भी इसी तरह की उम्मीदें लगाई गई थीं। इसके पीछे मूल विचार यह बताया गया था कि एपीएमसी मंडियों के एकाधिकार वाली मूल्य नियंत्रण प्रणाली से मुक्ति के बाद फसल की खरीद में निजी निवेश बढ़ेगा और यह कॉर्पोरेट सेक्टर को सीधी बाजार व्यवस्था बनाने के लिए प्रेरित करेगा, जिससे ज्यादा सुचारु मंडी तंत्र कायम हो सकेगा, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। तथ्य तो यह है कि बिहार का मामला यह जानने हेतु एक प्रयोग बनकर रह गया कि कैसे कृषि क्षेत्र शोषण करने में परिवर्तित हो जाता है।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री का कहना है कि नए बदलाव केंद्र सरकार के मॉडल कृषि उत्पाद एवं पशु मंडी अधिनियम 2017 के मुताबिक किए गए हैं। यही तो समस्या है। वर्ष 2002 में अंतर-मंत्रालय टास्क फोर्स ने पहले पहल इस अधिनियम में जो सुधार सुझाए थे, वे ज्यादातर उद्योग जगत के सुझाए नुस्खों पर आधारित थे। ये लोग न्यूनतम मूल्य वाली व्यवस्था के न रहने पर छोटे किसानों को होने वाले सामाजिक नुकसानों का सही तरह आकलन नहीं कर पाए थे। खाद्य सुरक्षा यकीनी करने में मदद के वास्ते अनुबंध-कृषि, सीधी बाजार व्यवस्था और पीपीपी मोड वाली खेती बनाना इसका उद्देश्य था। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने भी न्यूनतम मूल्य वाली व्यवस्था को हटाने पर यह कहते हुए सवाल उठाए थे कि इससे नतीजे में पडऩे वाले सामाजिक दुष्प्रभावों का आकलन किए जाने की जरूरत है।
एपीएमसी को हटाने पर जो एक मुख्य दलील दी जाती है कि यह आढ़तियों के गठजोड़ का अड्डा बन गया है, वह एकदम सही है परंतु यह सरकार की प्रशासनिक असफलता का नतीजा ज्यादा है। मौजूदा मंडी व्यवस्था को निजी क्षेत्र के इससे भी बड़े शातिर गठजोड़ से बदलना कोई बेहतर कदम नहीं होगा और यह कृषि क्षेत्र को भी कॉर्पोरेट तंत्र के हवाले करने का सबब बनेगा। मुनाफे और कीमतों का सामाजीकरण करने के चक्कर में हम तेजी से निजीकरण की ओर भाग रहे हैं।
बहरहाल, महाराष्ट्र में एपीएमसी एक्ट में छूट ऐसे समय में आई है जब कुछ हफ्ते पहले ही केंद्र सरकार ने कृषि उत्पादों का 25 प्रतिशत हिस्सा बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने पर प्रतिबद्धता जताई थी। हालांकि महाराष्ट्र में नए प्रावधान के पूरे नियमों की अधिसूचना होना बाकी है लेकिन यह स्वाभाविक है कि बदलावों से न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली खरीद में कमी आएगी। यही तो वह चीज है, जिसके लिए सीआईआई और फिक्की जैसे कॉर्पोरेट संगठन लंबे समय से यह गलत दलील देते हुए मांग कर रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था अपने आप में किसानों को बढ़े हुए मूल्य प्राप्त करने में बाधक है।
मौजूदा एपीएमसी तंत्र को निरस्त करने के लिए पंजाब और हरियाणा भी दबाव का सामना कर रहे हैं। राष्ट्रीय कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने किसान के बाजार-मित्रता सूचकांक पर बिहार को सबसे ऊपर रखा है और पंजाब, जहां पर मंडियों और खरीद केंद्रों का बृहद ताना-बाना और ग्रामीण इलाकों तक में सडक़ों का जाल है, उसे इस सूची में सबसे निचले पायदान पर रखा गया है! ऐसे समय में जब महज 6 प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिल पाता है और बाकी सब मंडियों के आढ़तियों के रहमो-करम पर है वहां किस प्रकार कम-से-कम उपस्थिति वाली समानांतर निजी बाजार व्यवस्था मूल्य-प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे पाएगी?
इस तरह की व्यवस्था देश की सुरक्षा यकीनी बनाने के लिए बहुत महंगी पड़ेगी। वर्ष 2007-08 में तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने निजी कंपनियों को एपीएमसी वाली मंडियों को दरकिनार करते हुए किसानों से सीधे गेहूं खरीदने की अनुमति दी थी। इन्होंने जितना हो सकता था, गेहूं अपने पास दबा लिया और इसका हश्र यह हुआ कि सरकारी खरीद में आई कमी को पूरा करने के लिए देश को अगले दो सालों में लगभग 80 लाख टन गेहूं आयात करना पड़ा था, वह भी उस दोगुने भाव पर जो अन्यथा स्थानीय किसानों को न्यूनतम समर्थन कीमत के तहत देना पड़ता!

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