संपादकीय

कोहरे से कोहराम
Posted Date : 29-Dec-2018 12:00:29 pm

कोहरे से कोहराम

हरियाणा में रोहतक-रेवाड़ी नेशनल हाईवे पर कोहरे की वजह से हुए हादसे में एक ही परिवार के आठ लोगों की दर्दनाक मौत हर संवेदनशील इनसान को विचलित कर गई। हर साल दिसंबर-जनवरी में कोहरे के कोहराम से सैकड़ों निर्दोष जिंदगियां असमय कालकलवित हो जाती हैं। सत्ताधीश और दुर्घटनाएं रोकने के लिये जिम्मेदार अधिकारी तमाशबीन बने रहते हैं। मौसम की तल्खी और बढ़ते प्रदूषण से सडक़ों पर धुंध का विस्तार एक अटल सत्य है तो फिर दुर्घटनाओं को टालने के लिये गंभीर पहल क्यों नहीं होती। हमने रफ्तार वाले हाईवे तो बना दिये मगर यह सुनिश्चित नहीं किया कि लोग बेमौत न मारे जायें। यह सिलसिला हर साल का है। इस दौरान सडक़ यातायात ही नहीं, देश का रेल व हवाई यातायात भी पंगु हो जाता है। इसके बावजूद कोहरे से बचाव व सुरक्षित यातायात की गंभीर पहल होती नजर नहीं आती। जिस देश में हर साल पौने पांच लाख हादसे होते हों और तकरीबन डेढ़ लाख लोग वर्ष 2017 में सडक़ दुर्घटनाओं में मारे गये हों, उस देश में सडक़ों को दुर्घटना मुक्त बनाने के प्रयास युद्धस्तर पर होने चाहिए। इन मरने वाले लोगों के अलावा उन घायलों का आंकड़ा भी बड़ा है जो इन दुर्घटनाओं में घायल होकर ताउम्र जख्मों से जूझते रहते हैं।
दरअसल, कोहरे के दौरान सफर करना बेहद जोखिमभरा होता है। इसके लिये हाईवे व शेष मार्गों पर सुरक्षा के चाकचौबंद उपाय किये जाने जरूरी होते हैं। पर्याप्त लाइट की व्यवस्था व परावर्तक साइन बोर्ड वाहन चालकों के लिए कम दृश्यता में सहायक हो सकते हैं। वाहन चालकों को कोहरे के मौसम में वाहन चलाने में मददगार आवश्यक जानकारी दी जानी चाहिए। देखा जाता है कि कोहरे के दौरान बड़ी दुर्घटनाएं बड़े व सामान से लदे वाहनों की वजह से होती हैं। क्यों न भारी वाहनों के लिये अलग लेन निर्धारित की जाये ताकि जानमाल की क्षति को कम किया जा सके। कोशिश होनी चाहिए कि कोहरे के दौरान वाहन चालकों की सुगमता के लिये पर्याप्त वैकल्पिक इंतजाम किये जायें। यह जानते हुए कि मौसम के मिजाज में तल्खी लगातार बढऩी है और बढ़ते वायु प्रदूषण से सडक़ों में दृश्यता और अधिक बाधित होनी है। बारिश, कोहरे, धुंध और ओलावृष्टि जैसी विपरीत परिस्थितियों में वाहन चलाने के लिये चालकों को समय-समय पर दिशानिर्देश जारी किये जाने चाहिए, जिससे जान-माल की क्षति को कम किया जा सके। इसके साथ ही उन तकनीकों पर शोध होना चाहिए जो विपरीत मौसम में सुरक्षित यातायात का मार्ग प्रशस्त कर सकें। तभी हर साल होने वाली जन धन की हानि को रोका जा सकेगा।

 

गौ माता की रक्षा के लिए जागरूकता आवश्यक
Posted Date : 27-Dec-2018 1:03:38 pm

गौ माता की रक्षा के लिए जागरूकता आवश्यक

0-गौ माता की महत्ता को समझे 
0--तेजबहादुर सिंह भुवाल

सदियों से गौमाता मनुष्यों की सेवा से उनके जीवन को सुखी, समृद्ध, ऐश्वर्यवान, निरोग, एवं सौभाग्यशाली बनाती चली आ रही है। गौ माता की सेवा से हजारों पुण्य प्राप्त होते हैं। इसकी सत्यता का उल्लेख अनेक ग्रंथों, वेद, पुराणों में किया गया हैं।
प्राय: मनुष्य पुण्य प्राप्ति के लिए अनेक तीर्थ स्थलों में जाकर पूजा-पाठ, दर्शन, स्नान, हवन, तपस्या, दान करने का प्रयत्न करता है। जबकि जो पुण्य गौ सेवा करने में है, वह और कही नहीं।
एक समय था जब मनुष्य अपने घरों में गाय पालते थे, उनकी सच्चे मन से सेवा करते थे। पर समय के परिवर्तन के साथ-साथ गौ माता को घर के बाहर छोड़ कर अब घर के अंदर कुत्ते पालना शुरू कर दिया है। लोग अपने स्वार्थ के कारण शहर हो या गांव सडक़ों पर सैकड़ों की संख्या में गाय को बेसहारा छोड़ दिया जाता है। मोटर गाडी की चपेट में आने के कारण बड़ी संख्या में दुर्घटनाएं होती है, जिसमें उनकी मृत्यु हो जाती है। इनकी वजह से कई दुर्घटना में मनुष्यों की भी जान चली जाती है।
प्राय: देखने में आया है कि प्रदेश के विभिन्न गौ शालााओं में अपर्याप्त व्यवस्था, चारा, पानी की कमी, देखभाल के अभाव में सैकड़ों गाये गौधाम चली जाती है। इसकी जिम्मेदारी लेना वाला कोई नहीं। इन सभी गौशालाओं का क्रियान्वयन जिम्मेदारीपूर्वक, समुचित ढंग से किया जाना चाहिए। 
जानकार मनुष्य गौ माता की सेवा कर सारे पुण्य प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य गौ माता की सेवा करता है, उस सेवा से संतुष्ट होकर गौ माता उसे अत्यंत दुर्लभ वर प्रदान करती है। गौ की सेवा मनुष्य विभिन्न प्रकार से कर सकता है जैसे प्रतिदिन गाय को चारा खिलाना, पानी पिलाना, गाय की पीठ सहलाना, रोगी गाय का ईलाज करवाना आदि। गाय की सेवा करने वाले मनुष्य को पुत्र, धन, विद्या, सुख आदि जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, वे सब उसे यथासमय प्राप्त हो जाती है। 
गाय के शरीर में सभी देवी-देवता, ऋषि मुनि, गंगा आदि सभी नदियाँ तथा तीर्थ निवास करते है, इसीलिये गौसेवा से सभी की सेवा का फल मिल जाता है। गाय का दूध मनुष्य के लिए अमृत है। गाय के दूध में रोग से लडऩे की क्षमता बढ़ती होती है। गाय के दूध का कोई विकल्प नहीं है। वैसे भी गाय के दूध का सेवन करना गौ माता की महान सेवा करना ही है, क्योकि इससे गो-पालन को बढ़ावा मिलता है और अप्रत्यक्ष रूप से गाय की रक्षा ही होती है। 
गाय के दूध, दही, घी, गोबर रस, गो-मूत्र का एक निश्चित अनुपात में मिश्रण पंचगव्य कहलाता है। पंचगव्य का सेवन करने से मनुष्य के समस्त पाप उसी प्रकार भस्म हो जाते है, जैसे जलती आग से लकड़ी भस्म हो जाते है। मानव शरीर का ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसका पंचगव्य से उपचार नहीं हो सकता। पंचगव्य से पापजनित रोग भी नष्ट हो जाते है।
गाय पालने वालों को अपने गौ माता को सडक़ों पर खुला नहीं छोडऩा चाहिए। खुले छोडऩे के कारण गाय सडक़ों पर दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं। पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए मनुष्यों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे प्लास्टिक झिल्लियों का उपयोग बंद कर दें। अधिकतर मनुष्य प्लास्टिक की झिल्लियों में खाने की सामग्री के साथ कांच, पिन, लोहे का टुकड़ा आदि खुले में फेंक देते हैं। गायों को पर्याप्त भोजन न मिल पाने के कारण वह कूड़ा-करकट में जाकर कागज और पॉलीथीन खा लेती है, जिससे वह बीमार हो जाती है और उससे उनकी मृत्यु भी हो जाती है। मनुष्यों को अपने घर से कुछ आहार गाय के लिए रख देना चाहिए। कुछ स्थानों पर एक समूह बनाकर प्रत्येक घर से दो-दो रोटियां गायों के लिए एकत्रित की जाती है और उसे गायों को खिलाया जाता है, जो कि एक पुण्य का कार्य है। इसी प्रकार सभी मनुष्यों को गायों की रक्षा के लिए उचित प्रयास किया जाना चाहिए।
देश में बेजुबान गाय की निर्मम हत्या करने वाले पापी लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही किया जाना चाहिए। गौ रक्षा के लिए अधिक से अधिक लोगों को आगे आना चाहिए और गौ माता का संरक्षण व संवर्धन करने का प्रयास करना चाहिए।

 

जीएसटी की जटिलता में फंसे छोटे उद्यमी
Posted Date : 26-Dec-2018 12:50:48 pm

जीएसटी की जटिलता में फंसे छोटे उद्यमी

हाल के चुनाव में स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों से जनता संतुष्ट नहीं है। जनता की विशेष मांग रोजगार की है जो कि मुख्यत: अपने देश में छोटे उद्योगों द्वारा सृजित होता है। लेकिन जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों की स्थिति बिगड़ गई है और साथ में देश की भी। यही मुख्य कारण दिखता है कि देश की विकास दर गिर रही है। वर्ष 2016-17 में देश का जीडीपी 7.1 प्रतिशत से बढ़ा था। वर्ष 2017-18 में यह दर घट कर 6.7 प्रतिशत रह गई थी। वर्ष 2006 से 2014 तक हर वर्ष सरकार के राजस्व में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि होती थी। अब यह घट गई है। जुलाई 2017 में जीएसटी से 94 हजार करोड़ रुपये का राजस्व मिला था जो कि जून 2018 में 96 हजार करोड़ हो गया था। इसमें मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राजस्व की वृद्धि दर 15 प्रतिशत से घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह गई है।
अर्थव्यवस्था के इस ढीलेपन में छोटे उद्योगों की विशेष भूमिका है। छोटे उद्योगों द्वारा श्रम अधिक एवं मशीन का उपयोग कम किया जाता है। श्रम का अधिक उपयोग होने से इनके द्वारा वेतन अधिक दिया जाता है। इस वेतन को पाकर श्रमिक बाजार से छाते, किताब-कापी, कपड़े इत्यादि की खरीद करते हैं। इस खरीद से बाज़ार में मांग बनती है और निवेशक इन वस्तुओं के उत्पादन में बढक़र निवेश करते हैं। इस प्रकार छोटे उद्योगों के माध्यम से खपत और निवेश का सुचक्र स्थापित होता है। यह सुचक्र जीएसटी के कारण टूट गया है, चूंकि जीएसटी का छोटे उद्योगों पर तीन प्रकार से नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
जीएसटी का छोटे उद्योगों पर प्रमुख नकारात्मक प्रभाव टैक्स के भार में वृद्धि से पड़ा है। कहने को जीएसटी के अंतर्गत छोटे उद्योगों को कंपोजिशन स्कीम में मात्र 1 प्रतिशत का टैक्स देना होता है परन्तु यह पूरी कहानी नहीं बताता है। चूंकि कम्पोजीशन स्कीम में इनपुट पर अदा किये गये जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है। इस कारण खरीददार को छोटे उद्योगों से माल खरीदना भारी पड़ता है। इसे एक उदाहरण से समझें।
मान लीजिये एक बड़ा उद्योग है। वह 80 रुपये के इनपुट की खरीद करता है। इस इनपुट पर वह 18 प्रतिशत से 14.40 रुपए का जीएसटी अदा करता है और कुल इनपुट की खरीद पर 94.4 रुपये अदा करता है। इसमें वह कुछ वैल्यू एड करता है, जैसे कागज पर उसने छपाई की। इस छपे हुए कागज को वह 100 रुपए में बेचता है और इस पर पुन: 18 प्रतिशत से जीएसटी जोड़ करके कुल 118 रुपये में बेचता है। खरीददार द्वारा 118 रुपये में छपा हुआ कागज खरीदा जाता है। लेकिन वह खरीददार बड़े उद्योग द्वारा इस बिक्री पर दिए गये 18 रुपए का जीएसटी का सेट ऑफ़ का रिफंड प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार खरीददार के लिए उस छपे हुए कागज की कीमत केवल 100 रुपये पड़ती है।
अब इसी प्रक्रिया को छोटे उद्योग के लिए समझें। वही 80 रुपये का कागज उसी 18 रुपये का जीएसटी लगाकर छोटा उद्यमी 94.4 रुपये में खरीदता है, जैसे बड़ा उद्यमी खरीदता है। इसमें वह 20 रुपये की वैल्यू एड करता है, जैसे बड़ा उद्यमी करता है। इस छपे हुए कागज की कीमत 114.40 रुपए पड़ती है। इस पर वह कंपोजिशन स्कीम के अंतर्गत 1 प्रतिशत का जीएसटी अदा करके इससे 115.80 रुपये में बेचता है। लेकिन छोटे उद्यमी से खरीदे गये छपे हुए कागज पर खरीददार को 14.40 रुपये का जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है जो कि उसे बड़े उद्यमी से खरीदने पर मिलता। इस प्रकार खरीददार को छोटे उद्यमी से छपे हुए कागज खरीदने की शुद्ध लागत 115.80 रुपये पड़ती है। बड़े उद्यमी से छपे हुए कागज खरीदने की शुद्ध लागत मात्र 100 रुपये पड़ती। इसलिए छोटे उद्योग कराह रहे हैं। वेतन, मांग एवं निवेश का सुचक्र टूट गया है। यही कारण है कि हमारी विकास दर बढ़ नहीं रही और जीएसटी का संग्रह भी कछुए की चाल से बढ़ रहा है।
साथ-साथ छोटे उद्योगों पर रिटर्न भरने का टंटा आ पड़ा है। कई बड़े उद्यमियों को जीएसटी में कोई टंटा नहीं महसूस हो रहा है। उनके पास ऑफिस स्टाफ एवं कम्प्यूटर आपरेटर हैं। पूर्व के सेन्ट्रल एक्साइज एवं सेल टैक्स से जीएसटी में परिवर्तित होने में उन्हें तनिक भी परेशानी नहीं हुई है बल्कि उन्हें आराम ही हुआ है। लेकिन छोटे उद्यमी के लिए वही कागजी कार्य भारी पड़ गया है। इसलिए आम आदमी परेशान है।
जीएसटी का छोटे उद्यमियों पर तीसरा प्रभाव अन्तर्राज्यीय व्यापार को सरल बनाने का है। प्रथम दृष्टया लगता है कि अन्तर्राज्यीय व्यापार सुगम होने से अर्थव्यस्था को गति मिलेगी। यह बात सही है लेकिन यह गति बड़े उद्यमियों के माध्यम से आएगी क्योंकि बड़े उद्यम ही अन्तर्राज्यीय व्यापार अधिक करते हैं। जैसे मान लीजिए हरिद्वार में एक पर्दे बनाने की छोटे उद्यमी की फैक्टरी है। पूर्व में सूरत से पर्दों को लाना और उन्हें हरिद्वार में बेचना कठिन था क्योंकि उत्तराखंड की सरहद पर टैक्स अदा करना पड़ता था। हरिद्वार के निर्माता को सूरत के निर्माता से सहज ही प्राकृतिक संरक्षण मिलता था और वह अपने माल को बेच पाता था। अब सूरत के पर्दे बेरोकटोक हरिद्वार में बिक रहे हैं और हरिद्वार का छोटा पर्दा निर्माता दबाव में आ गया है। उसका धंधा बंद होने की कगार पर है। इन तीनों कारणों से जीएसटी ने छोटे उद्योगों को संकट में डाला है और इनके संकट से श्रम की मांग कम हुई है। रोजगार नहीं बन रहे हैं। इसलिए आम चुनाव में रोजगार मुख्य मुद्दा रहा है।
लेकिन अब जीएसटी तो लागू हो ही गया है। अब इसकी भर्त्सना मात्र करने का कोई औचित्य नहीं है। उपाय यह है कि छोटे उद्योगों को कंपोजिशन स्कीम में इनपुट पर अदा किये गये जीएसटी का रिफंड लेने की सुविधा दे दी जाए। उपरोक्त उदाहरण में छोटा उद्यमी जो बिना छपे कागज को 94.40 रुपये में खरीदता है। उसमें अदा किये गये 14.40 रुपये के टैक्स को उसे रिफंड दे दिया जाए। तब उसकी बिना छपे कागज की शुद्ध लागत 80 रुपये ही पड़ेगी। उसमें 20 रुपए वैल्यू एड करके और 1 प्रतिशत जीएसटी जोडक़र वह 101 रुपए में उसे बेच सकेगा। तब खरीददार के लिए बड़े उद्यमी से 100 रुपये में छपे हुए कागज को खरीदने की तुलना में 101 रुपये में छोटे उद्यमी से खरीदना लगभग बराबर पड़ेगा और छोटे उद्योगों को फिर से सांस मिलेगी। सरकार को चाहिए कि छोटे उद्यमियों के प्रति नर्म रुख अपनाकर इस परिवर्तन पर विचार करे।

 

पिछड़ें ही हैं दलित और आदिवासी
Posted Date : 25-Dec-2018 12:22:01 pm

पिछड़ें ही हैं दलित और आदिवासी

देश के राजनीतिक अजेंडे में दलित और आदिवासियों का स्थान बड़ा ऊंचा है। प्राय: हर राजनीतिक पार्टी उनकी हालत सुधारने का वादा करती है या उनके साथ हो रहे भेदभाव का मुद्दा उठाती है। लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति को देखें तो निराशा होती है। आज भी यह तबका समाज में ‘नीच’ समझे जाने वाले पेशों में ही लगा है। अच्छी नौकरियां उनके लिए सपना ही हैं। गैर कृषि श्रम से संबंधित जनगणना के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं। निजी क्षेत्र में इनकी उपस्थिति लगभग नगण्य है। कॉपोरेट सेक्टर में मैनेजर स्तर पर 93 प्रतिशत गैर दलित-आदिवासी लोग हैं।
हां, सरकारी नौकरियों में उनकी स्थिति कुछ बेहतर है। सरकारी स्कूलों में काम करने वाले दलितों की संख्या 8.9 प्रतिशत और अस्पतालों में 9.3 प्रतिशत है। पुलिस में दलितों की संख्या 13.7 फीसदी है जबकि आदिवासियों की तादाद 9.3 फीसदी है। आज भी झाड़ू लगाने और चमड़े के काम में दलितों की बहुतायत है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में चमड़े का काम करने वाले कुल 46000 लोगों में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 41000 है। उसी तरह राजस्थान में कुल 76000 सफाईकर्मी हैं जिनमें अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 52000 है। इनमें युवा अच्छी-खासी संख्या में हैं, जो इस बात का संकेत है कि विकास की लंबी प्रक्रिया और सबको शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिशों के बावजूद कुछ जातियां अपना परंपरागत पेशा अपनाने को मजबूर हैं। जबकि हमारे राष्ट्र निर्माताओं का सपना था कि जात-पांत के बंधन खत्म हो जाएं और हर नागरिक को तरक्की के समान अवसर मिलें। यह भी सोचा गया था कि जब आर्थिक विकास तेज होगा और समाज में जनतंत्र का प्रसार होगा तो कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं रह जाएगा। हर तरह के काम को बराबर सम्मान दिया जाएगा। पर ये दोनों ही लक्ष्य पूरे नहीं हुए। 
आज 21 वीं शताब्दी में भी तमाम नियम-कानून के बावजूद देश के दलित-आदिवासी दूसरे तबकों की तुलना में पिछड़े हैं और उनका कई स्तरों पर उत्पीडऩ जारी है। सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजातियों को नौकरियों में आरक्षण तो दे दिया, पर उनकी शिक्षा की मुकम्मल व्यवस्था नहीं की। दलित और आदिवासी बेहतर नौकरियों के लिए तैयार ही नहीं हो पाते क्योंकि वे उच्च शिक्षा तक पहुंच नहीं पाते। गांवों में किसी तरह सरकारी स्कूलों में ये प्राथमिक शिक्षा हासिल कर लेते हैं। फिर गरीबी के कारण उनमें से ज्यादातर आगे नहीं पढ़ पाते। आज ऊंचे दर्जे की पढ़ाई छोडऩे की दलितों की दर, गैर दलितों के मुकाबले दोगुनी है। उदारीकरण के बाद सरकारी नौकरियां कम हुई हैं। निजी क्षेत्र की जो अपेक्षाएं हैं, उनके अनुरूप शिक्षा और तकनीकी निपुणता हासिल करना इन जातियों के लिए बेहद मुश्किल है। इसलिए प्राइवेट सेक्टर में बड़ी नौकरियों के दरवाजे इनके लिए नहीं खुल रहे। सिर्फ नारों से दलित-आदिवासियों का उत्थान नहीं होगा। सरकार को वे तमाम प्रयास करने होंगे जिनसे वे उच्च शिक्षित और निपुण बन सकें।

 

गालिब की टीस में दौर का ज़हनी सफर
Posted Date : 24-Dec-2018 12:09:53 pm

गालिब की टीस में दौर का ज़हनी सफर

मिर्जा असद उल्लाह खां ‘गालिब’ की पहचान उनके दिलों पर असर करने वाले कलाम से है। उनकी शायरी से जहां फलसफा झांकता है, वहीं उनकी तहरीरों में इतिहास का अक्स दिखायी देता है। एक तरफ अगर वह शायर हैं तो वहीं अपने समय के इतिहासकार भी रहे हैं। फिर चाहे बात उनके ‘दस्तंबू’ जैसे ऐतिहासिक दस्तावेज की हो या उनके बेमिसाल खतों की, जिनमें उनका जमाना सांस लेता नजर आता है। 1857 की क्रांति के वह न सिर्फ गवाह थे, बल्कि भुक्तभोगी भी थे। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार देखे, मुगल दौर देखा और उनकी बर्बादी भी। उन हालात को उन्होंने न सिर्फ एहसास में समेटा, बल्कि कलमबंद भी किया।
वह अपने बारे में लिखते हैं, ‘हकीकत हाल इससे ज्यादा नहीं कि अब तक जीता हूं, भाग नहीं गया, लुटा नहीं और किसी महकमे के द्वारा तलब नहीं किया गया। आइंदा देखिए क्या होता है। इंसाफ करो, लिखो तो क्या लिखो, बस इतना ही कि अब तक हम-तुम जिंदा हैं।
1857 के बाद ‘गालिब’ ने एक-दो नहीं कई बार अपनी इस पीड़ा को व्यक्त किया कि उनका शे’ र लिखने का शौक पहले जैसा नहीं रहा। उनके खतों में भी यही दर्द बयां हुआ। दरअसल, उनके दिल पर 1857 के माहौल ने काफी असर किया था और यह भी एक कारण रहा कि उन्होंने काव्य यानी गजल के बजाय गद्य की ओर तवज्जो की। ‘दस्तंबू’ के अलावा उनके कई खत और उनकी कई तहरीरों से उनके दौर के हालात को समझा जा सकता है। क्योंकि गालिब बहादुर शाह जफर के उस्ताद भी थे और उनकी गज़़लों पर इस्लाह दिया करते थे। मगर शाही दरबार से ताल्लुक रखने की बिना पर उन्हें बतौर अपराधी कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया गया। हालांकि इसकी उन्हें कोई सजा तो नहीं मिली मगर उनकी पेंशन जरूर जब्त हो गयी। उनकी पेंशन का रुकना उनके सामने रोटी का संकट ले आया। गालिब ने कई बार अपने समय को जीया। वह इस तरह कि एक बार वह उसके भुक्तभोगी और गवाह बने तो दूसरी बार उन एहसासों को लिखते समय वह उसी दर्द से गुजरे। वह लिखते हैं, ‘झूठ न जानना। अमीर, गरीब सब चले गये और जो नहीं गये, वे शहर से निकाले गये। कल से यह हुक्म निकला है कि मकानों को ढा दो और आगे न बनें, यह भी मनाही कर दो।’ वह आगे लिखते हैं, ‘हालात इतने बदतर थे कि पास के रहने वाले लोग दूर निकल गये थे और शहर से कुछ मील दूर कच्चे मकानों, गड्ढों, छ्प्परों में छुप कर पनाह लिये हुए थे। मुगल शहजादे गोली का शिकार हुए या फांसी पर लटका दिये गये।’
जो शहर कभी अदब की महफिलों से गूंजा करता था, उस शहर की वीरानगी के बारे में वह लिखते हैं, ‘शहर की आबो-हवा में एक सन्नाटा पसरा हुआ है। लाहौरी दरवाजे पर पहरा बिठा दिया गया है। जो उधर जाता है, पकड़ कर हवालात में डाल दिया जाता है। उसे पांच-पांच बेत लगते हैं या दो रुपया जुर्माना, 8 दिन कैद में भी रखा जाता है।
भाई वह जमाना आया है कि सैकड़ों अजीज राही मुल्के-अदम (परलोक) गये, सैकड़ों ऐसे हैं कि उनके जीने-मरने की कुछ खबर ही नहीं। जो दो चार बाकी रह गये हैं, हम उनको देखने को भी तरसते हैं।’
दिल्ली की बर्बादी और लूटमार के नतीजे में गालिब ने भी बहुत नुकसान उठाये। अपने भाई को उन्होंने 1857 के हंगामे में खो दिया। दिमागी तौर पर कुछ बीमार उनके भाई यूसुफ दिल्ली में फैली अफरा-तफरी में घर से बाहर निकले और किसी अंग्रेज की गोली का शिकार हो गये। भाई की मौत की खबर ने उन्हें परेशान कर दिया। शहर में सन्नाटा था, मकान वीरान पड़े हुए थे। ऐसे में दफनाने का इंतजाम कैसे हो, जनाजा कौन उठाये। मजबूरन घर से ही दो चादरें ली गयीं, नहलाया गया और मोहल्ले की एक मस्जिद के आंगन में उनको दफना दिया गया।
अंग्रेजों के जाने माने दोस्तों और जासूसों के सिवा सारे शहर वालों की गर्दनों पर फांसी का फंदा लटकता रहा। अंग्रेजों के अत्याचारों की रस्सी बराबर लम्बी होती जा रही थी और उसके सिरे फांसी के फंदों, बंदूकों की नलियों और तोपों के मुंह से जाकर मिल गये थे।’
गालिब को एक बड़ा रंज यह था कि उनके ज्यादातर मिलने वाले या तो मारे गये या तबाह हो गये।
लिखते हैं ‘किस-किस को याद करूं, किससे फरियाद करूं। जियूं तो कोई गम ख्वार नहीं, मरूं तो कोई रोने वाला नहीं।’ गालिब इस शहरे-आरजू दिल्ली के तमाशाई नहीं, मातमदार थे। मीर मेहदी को लिखे एक खत में 1857 के हालात इस तरह कलमबंद करते हैं, ‘बिन खाये मुझको जीने का ढंग आ गया है। कुछ और खाने को न मिला तो गम तो है।’ वह आगे लिखते हैं, ‘अंग्रेज जीत के बाद कश्मीरी दरवाजे के सामने के रास्ते से आगे बढ़े और जो कोई भी सडक़ पर उन्हें मिला, उसे कत्ल कर डाला। उनके डर से हर शरीफ और होशमंद इंसान ने अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। सडक़ों पर सन्नाटा पसरा है और हालात हैबतनाक हैं।’
जो शहर दिल्ली गालिब के अशआर से गूंजता था, वह ख़मोश है। यही वजह है कि कई जगह उन्होंने दिल्ली को शहरे-खामोश नाम से पुकारा है और अपने दर्द को कुछ यूं बयां किया है कि एक वक्त था जब इस शहर में हजारों लोग पहचान के थे और हर घर में कोई न कोई दोस्त था और एक यह दौर है कि हर तरफ सन्नाटा है। गालिब के शब्दों में अगर 1857 की कहानी को सुना जाये तो उस दौर का जहनी सफर किया जा सकता है।

 

अजेंडे पर आए किसान
Posted Date : 22-Dec-2018 1:14:34 pm

अजेंडे पर आए किसान

हाल में देश भर में हुए किसान आंदोलनों ने आखिरकार खेती को सरकार के अजेंडे पर ला दिया है। पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार किसानों को राहत देने के उपायों पर चर्चा कर रही है। नीति आयोग ने इस संबंध में नए सुझाव पेश किए हैं, जिनका मकसद किसानों की आय बढ़ाना है। आयोग का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से किसानों की समस्या पूरी तरह नहीं सुलझने वाली। लिहाजा कृषि लागत-मूल्य आयोग की जगह उसने एक न्यायाधिकरण की स्थापना करने और मंडियों में बोली लगाकर कृषि उपज की खरीदारी की व्यवस्था बनाने की सिफारिश की है। उसके ये सुझाव वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा जारी ‘नये भारत ञ्च 75 के लिए रणनीति’ दस्तावेज में दर्ज हैं।
नीति आयोग ने कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की जगह न्यूनतम आरक्षित मूल्य (एमआरपी) तय किया जाना चाहिए, जहां से बोली की शुरुआत हो। इससे किसानों को अपनी उपज की एमएसपी से ज्यादा कीमत मिल सकेगी। एमआरपी तय करने के लिए उसने एक समूह के गठन की अनुशंसा की है। नीति आयोग का विचार है कि वायदा कारोबार को प्रोत्साहित किया जाए और बाजार को विस्तार देने के लिए उसमें प्रवेश से जुड़ी बाधाएं हटाई जाएं। 
नीति आयोग अनुबंध खेती को बढ़ावा देने के पक्ष में है। उसका सुझाव है कि सरकार को अगले पांच से दस वर्षों को ध्यान में रखकर कृषि निर्यात नीति बनानी चाहिए, जिसकी मध्यावधि समीक्षा का भी प्रावधान हो। दस्तावेज में सिंचाई सुविधाओं, विपणन सुधार, कटाई बाद फसल प्रबंधन और बेहतर फसल बीमा उत्पादों आदि में सुधार के माध्यम से कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने जैसे सुझाव भी हैं। निश्चय ही ये प्रस्ताव बेहद अहम हैं। कृषि उपजों की बिडिंग जैसे उपाय को लागू करने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। 
सच्चाई यह है कि एमएसपी से किसान कभी संतुष्ट नहीं हुए। अक्सर इसे लागू करने में विवाद होता है। हाल में खरीफ फसलों का जो एमएसपी लागू किया गया, उससे भी किसान नाराज हैं। उनका कहना है कि वादा सी2 यानी संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था। धान की सी2 लागत 1,560 रुपये की डेढ़ गुना कीमत 2,340 रुपये प्रति क्विंटल बैठती है, लेकिन इस वर्ष धान का समर्थन मूल्य 1,750 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है। 
किसान संगठनों की शिकायत है कि इससे उन्हें लगभग 600 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान हुआ है। बिडिंग की व्यवस्था में जिस उपज की जितनी मांग रहेगी, उस आधार पर उसकी कीमत बढ़ेगी। इससे किसानों को फायदा हो सकता है। हां, एमआरपी तय करने में सरकार को सावधानी बरतनी होगी। नीति आयोग ने इसके लिए कुछ मानदंड सुझाए हैं। अच्छा होगा कि इस बारे में रबी की फसल आने से पहले ही फैसला ले लिया जाए। कर्जमाफी किसानों का तनाव घटाने का एक फौरी तरीका है। सभी सरकारें इसे आजमा रही हैं, पर इससे बात बन नहीं रही। दूरगामी उपाय ही सबके हित में होगा।