संपादकीय

26-Dec-2018 12:50:48 pm
Posted Date

जीएसटी की जटिलता में फंसे छोटे उद्यमी

हाल के चुनाव में स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों से जनता संतुष्ट नहीं है। जनता की विशेष मांग रोजगार की है जो कि मुख्यत: अपने देश में छोटे उद्योगों द्वारा सृजित होता है। लेकिन जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों की स्थिति बिगड़ गई है और साथ में देश की भी। यही मुख्य कारण दिखता है कि देश की विकास दर गिर रही है। वर्ष 2016-17 में देश का जीडीपी 7.1 प्रतिशत से बढ़ा था। वर्ष 2017-18 में यह दर घट कर 6.7 प्रतिशत रह गई थी। वर्ष 2006 से 2014 तक हर वर्ष सरकार के राजस्व में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि होती थी। अब यह घट गई है। जुलाई 2017 में जीएसटी से 94 हजार करोड़ रुपये का राजस्व मिला था जो कि जून 2018 में 96 हजार करोड़ हो गया था। इसमें मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राजस्व की वृद्धि दर 15 प्रतिशत से घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह गई है।
अर्थव्यवस्था के इस ढीलेपन में छोटे उद्योगों की विशेष भूमिका है। छोटे उद्योगों द्वारा श्रम अधिक एवं मशीन का उपयोग कम किया जाता है। श्रम का अधिक उपयोग होने से इनके द्वारा वेतन अधिक दिया जाता है। इस वेतन को पाकर श्रमिक बाजार से छाते, किताब-कापी, कपड़े इत्यादि की खरीद करते हैं। इस खरीद से बाज़ार में मांग बनती है और निवेशक इन वस्तुओं के उत्पादन में बढक़र निवेश करते हैं। इस प्रकार छोटे उद्योगों के माध्यम से खपत और निवेश का सुचक्र स्थापित होता है। यह सुचक्र जीएसटी के कारण टूट गया है, चूंकि जीएसटी का छोटे उद्योगों पर तीन प्रकार से नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
जीएसटी का छोटे उद्योगों पर प्रमुख नकारात्मक प्रभाव टैक्स के भार में वृद्धि से पड़ा है। कहने को जीएसटी के अंतर्गत छोटे उद्योगों को कंपोजिशन स्कीम में मात्र 1 प्रतिशत का टैक्स देना होता है परन्तु यह पूरी कहानी नहीं बताता है। चूंकि कम्पोजीशन स्कीम में इनपुट पर अदा किये गये जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है। इस कारण खरीददार को छोटे उद्योगों से माल खरीदना भारी पड़ता है। इसे एक उदाहरण से समझें।
मान लीजिये एक बड़ा उद्योग है। वह 80 रुपये के इनपुट की खरीद करता है। इस इनपुट पर वह 18 प्रतिशत से 14.40 रुपए का जीएसटी अदा करता है और कुल इनपुट की खरीद पर 94.4 रुपये अदा करता है। इसमें वह कुछ वैल्यू एड करता है, जैसे कागज पर उसने छपाई की। इस छपे हुए कागज को वह 100 रुपए में बेचता है और इस पर पुन: 18 प्रतिशत से जीएसटी जोड़ करके कुल 118 रुपये में बेचता है। खरीददार द्वारा 118 रुपये में छपा हुआ कागज खरीदा जाता है। लेकिन वह खरीददार बड़े उद्योग द्वारा इस बिक्री पर दिए गये 18 रुपए का जीएसटी का सेट ऑफ़ का रिफंड प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार खरीददार के लिए उस छपे हुए कागज की कीमत केवल 100 रुपये पड़ती है।
अब इसी प्रक्रिया को छोटे उद्योग के लिए समझें। वही 80 रुपये का कागज उसी 18 रुपये का जीएसटी लगाकर छोटा उद्यमी 94.4 रुपये में खरीदता है, जैसे बड़ा उद्यमी खरीदता है। इसमें वह 20 रुपये की वैल्यू एड करता है, जैसे बड़ा उद्यमी करता है। इस छपे हुए कागज की कीमत 114.40 रुपए पड़ती है। इस पर वह कंपोजिशन स्कीम के अंतर्गत 1 प्रतिशत का जीएसटी अदा करके इससे 115.80 रुपये में बेचता है। लेकिन छोटे उद्यमी से खरीदे गये छपे हुए कागज पर खरीददार को 14.40 रुपये का जीएसटी का रिफंड नहीं मिलता है जो कि उसे बड़े उद्यमी से खरीदने पर मिलता। इस प्रकार खरीददार को छोटे उद्यमी से छपे हुए कागज खरीदने की शुद्ध लागत 115.80 रुपये पड़ती है। बड़े उद्यमी से छपे हुए कागज खरीदने की शुद्ध लागत मात्र 100 रुपये पड़ती। इसलिए छोटे उद्योग कराह रहे हैं। वेतन, मांग एवं निवेश का सुचक्र टूट गया है। यही कारण है कि हमारी विकास दर बढ़ नहीं रही और जीएसटी का संग्रह भी कछुए की चाल से बढ़ रहा है।
साथ-साथ छोटे उद्योगों पर रिटर्न भरने का टंटा आ पड़ा है। कई बड़े उद्यमियों को जीएसटी में कोई टंटा नहीं महसूस हो रहा है। उनके पास ऑफिस स्टाफ एवं कम्प्यूटर आपरेटर हैं। पूर्व के सेन्ट्रल एक्साइज एवं सेल टैक्स से जीएसटी में परिवर्तित होने में उन्हें तनिक भी परेशानी नहीं हुई है बल्कि उन्हें आराम ही हुआ है। लेकिन छोटे उद्यमी के लिए वही कागजी कार्य भारी पड़ गया है। इसलिए आम आदमी परेशान है।
जीएसटी का छोटे उद्यमियों पर तीसरा प्रभाव अन्तर्राज्यीय व्यापार को सरल बनाने का है। प्रथम दृष्टया लगता है कि अन्तर्राज्यीय व्यापार सुगम होने से अर्थव्यस्था को गति मिलेगी। यह बात सही है लेकिन यह गति बड़े उद्यमियों के माध्यम से आएगी क्योंकि बड़े उद्यम ही अन्तर्राज्यीय व्यापार अधिक करते हैं। जैसे मान लीजिए हरिद्वार में एक पर्दे बनाने की छोटे उद्यमी की फैक्टरी है। पूर्व में सूरत से पर्दों को लाना और उन्हें हरिद्वार में बेचना कठिन था क्योंकि उत्तराखंड की सरहद पर टैक्स अदा करना पड़ता था। हरिद्वार के निर्माता को सूरत के निर्माता से सहज ही प्राकृतिक संरक्षण मिलता था और वह अपने माल को बेच पाता था। अब सूरत के पर्दे बेरोकटोक हरिद्वार में बिक रहे हैं और हरिद्वार का छोटा पर्दा निर्माता दबाव में आ गया है। उसका धंधा बंद होने की कगार पर है। इन तीनों कारणों से जीएसटी ने छोटे उद्योगों को संकट में डाला है और इनके संकट से श्रम की मांग कम हुई है। रोजगार नहीं बन रहे हैं। इसलिए आम चुनाव में रोजगार मुख्य मुद्दा रहा है।
लेकिन अब जीएसटी तो लागू हो ही गया है। अब इसकी भर्त्सना मात्र करने का कोई औचित्य नहीं है। उपाय यह है कि छोटे उद्योगों को कंपोजिशन स्कीम में इनपुट पर अदा किये गये जीएसटी का रिफंड लेने की सुविधा दे दी जाए। उपरोक्त उदाहरण में छोटा उद्यमी जो बिना छपे कागज को 94.40 रुपये में खरीदता है। उसमें अदा किये गये 14.40 रुपये के टैक्स को उसे रिफंड दे दिया जाए। तब उसकी बिना छपे कागज की शुद्ध लागत 80 रुपये ही पड़ेगी। उसमें 20 रुपए वैल्यू एड करके और 1 प्रतिशत जीएसटी जोडक़र वह 101 रुपए में उसे बेच सकेगा। तब खरीददार के लिए बड़े उद्यमी से 100 रुपये में छपे हुए कागज को खरीदने की तुलना में 101 रुपये में छोटे उद्यमी से खरीदना लगभग बराबर पड़ेगा और छोटे उद्योगों को फिर से सांस मिलेगी। सरकार को चाहिए कि छोटे उद्यमियों के प्रति नर्म रुख अपनाकर इस परिवर्तन पर विचार करे।

 

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