संपादकीय

24-Dec-2018 12:09:53 pm
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गालिब की टीस में दौर का ज़हनी सफर

मिर्जा असद उल्लाह खां ‘गालिब’ की पहचान उनके दिलों पर असर करने वाले कलाम से है। उनकी शायरी से जहां फलसफा झांकता है, वहीं उनकी तहरीरों में इतिहास का अक्स दिखायी देता है। एक तरफ अगर वह शायर हैं तो वहीं अपने समय के इतिहासकार भी रहे हैं। फिर चाहे बात उनके ‘दस्तंबू’ जैसे ऐतिहासिक दस्तावेज की हो या उनके बेमिसाल खतों की, जिनमें उनका जमाना सांस लेता नजर आता है। 1857 की क्रांति के वह न सिर्फ गवाह थे, बल्कि भुक्तभोगी भी थे। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार देखे, मुगल दौर देखा और उनकी बर्बादी भी। उन हालात को उन्होंने न सिर्फ एहसास में समेटा, बल्कि कलमबंद भी किया।
वह अपने बारे में लिखते हैं, ‘हकीकत हाल इससे ज्यादा नहीं कि अब तक जीता हूं, भाग नहीं गया, लुटा नहीं और किसी महकमे के द्वारा तलब नहीं किया गया। आइंदा देखिए क्या होता है। इंसाफ करो, लिखो तो क्या लिखो, बस इतना ही कि अब तक हम-तुम जिंदा हैं।
1857 के बाद ‘गालिब’ ने एक-दो नहीं कई बार अपनी इस पीड़ा को व्यक्त किया कि उनका शे’ र लिखने का शौक पहले जैसा नहीं रहा। उनके खतों में भी यही दर्द बयां हुआ। दरअसल, उनके दिल पर 1857 के माहौल ने काफी असर किया था और यह भी एक कारण रहा कि उन्होंने काव्य यानी गजल के बजाय गद्य की ओर तवज्जो की। ‘दस्तंबू’ के अलावा उनके कई खत और उनकी कई तहरीरों से उनके दौर के हालात को समझा जा सकता है। क्योंकि गालिब बहादुर शाह जफर के उस्ताद भी थे और उनकी गज़़लों पर इस्लाह दिया करते थे। मगर शाही दरबार से ताल्लुक रखने की बिना पर उन्हें बतौर अपराधी कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया गया। हालांकि इसकी उन्हें कोई सजा तो नहीं मिली मगर उनकी पेंशन जरूर जब्त हो गयी। उनकी पेंशन का रुकना उनके सामने रोटी का संकट ले आया। गालिब ने कई बार अपने समय को जीया। वह इस तरह कि एक बार वह उसके भुक्तभोगी और गवाह बने तो दूसरी बार उन एहसासों को लिखते समय वह उसी दर्द से गुजरे। वह लिखते हैं, ‘झूठ न जानना। अमीर, गरीब सब चले गये और जो नहीं गये, वे शहर से निकाले गये। कल से यह हुक्म निकला है कि मकानों को ढा दो और आगे न बनें, यह भी मनाही कर दो।’ वह आगे लिखते हैं, ‘हालात इतने बदतर थे कि पास के रहने वाले लोग दूर निकल गये थे और शहर से कुछ मील दूर कच्चे मकानों, गड्ढों, छ्प्परों में छुप कर पनाह लिये हुए थे। मुगल शहजादे गोली का शिकार हुए या फांसी पर लटका दिये गये।’
जो शहर कभी अदब की महफिलों से गूंजा करता था, उस शहर की वीरानगी के बारे में वह लिखते हैं, ‘शहर की आबो-हवा में एक सन्नाटा पसरा हुआ है। लाहौरी दरवाजे पर पहरा बिठा दिया गया है। जो उधर जाता है, पकड़ कर हवालात में डाल दिया जाता है। उसे पांच-पांच बेत लगते हैं या दो रुपया जुर्माना, 8 दिन कैद में भी रखा जाता है।
भाई वह जमाना आया है कि सैकड़ों अजीज राही मुल्के-अदम (परलोक) गये, सैकड़ों ऐसे हैं कि उनके जीने-मरने की कुछ खबर ही नहीं। जो दो चार बाकी रह गये हैं, हम उनको देखने को भी तरसते हैं।’
दिल्ली की बर्बादी और लूटमार के नतीजे में गालिब ने भी बहुत नुकसान उठाये। अपने भाई को उन्होंने 1857 के हंगामे में खो दिया। दिमागी तौर पर कुछ बीमार उनके भाई यूसुफ दिल्ली में फैली अफरा-तफरी में घर से बाहर निकले और किसी अंग्रेज की गोली का शिकार हो गये। भाई की मौत की खबर ने उन्हें परेशान कर दिया। शहर में सन्नाटा था, मकान वीरान पड़े हुए थे। ऐसे में दफनाने का इंतजाम कैसे हो, जनाजा कौन उठाये। मजबूरन घर से ही दो चादरें ली गयीं, नहलाया गया और मोहल्ले की एक मस्जिद के आंगन में उनको दफना दिया गया।
अंग्रेजों के जाने माने दोस्तों और जासूसों के सिवा सारे शहर वालों की गर्दनों पर फांसी का फंदा लटकता रहा। अंग्रेजों के अत्याचारों की रस्सी बराबर लम्बी होती जा रही थी और उसके सिरे फांसी के फंदों, बंदूकों की नलियों और तोपों के मुंह से जाकर मिल गये थे।’
गालिब को एक बड़ा रंज यह था कि उनके ज्यादातर मिलने वाले या तो मारे गये या तबाह हो गये।
लिखते हैं ‘किस-किस को याद करूं, किससे फरियाद करूं। जियूं तो कोई गम ख्वार नहीं, मरूं तो कोई रोने वाला नहीं।’ गालिब इस शहरे-आरजू दिल्ली के तमाशाई नहीं, मातमदार थे। मीर मेहदी को लिखे एक खत में 1857 के हालात इस तरह कलमबंद करते हैं, ‘बिन खाये मुझको जीने का ढंग आ गया है। कुछ और खाने को न मिला तो गम तो है।’ वह आगे लिखते हैं, ‘अंग्रेज जीत के बाद कश्मीरी दरवाजे के सामने के रास्ते से आगे बढ़े और जो कोई भी सडक़ पर उन्हें मिला, उसे कत्ल कर डाला। उनके डर से हर शरीफ और होशमंद इंसान ने अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। सडक़ों पर सन्नाटा पसरा है और हालात हैबतनाक हैं।’
जो शहर दिल्ली गालिब के अशआर से गूंजता था, वह ख़मोश है। यही वजह है कि कई जगह उन्होंने दिल्ली को शहरे-खामोश नाम से पुकारा है और अपने दर्द को कुछ यूं बयां किया है कि एक वक्त था जब इस शहर में हजारों लोग पहचान के थे और हर घर में कोई न कोई दोस्त था और एक यह दौर है कि हर तरफ सन्नाटा है। गालिब के शब्दों में अगर 1857 की कहानी को सुना जाये तो उस दौर का जहनी सफर किया जा सकता है।

 

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