हाल में देश भर में हुए किसान आंदोलनों ने आखिरकार खेती को सरकार के अजेंडे पर ला दिया है। पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार किसानों को राहत देने के उपायों पर चर्चा कर रही है। नीति आयोग ने इस संबंध में नए सुझाव पेश किए हैं, जिनका मकसद किसानों की आय बढ़ाना है। आयोग का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से किसानों की समस्या पूरी तरह नहीं सुलझने वाली। लिहाजा कृषि लागत-मूल्य आयोग की जगह उसने एक न्यायाधिकरण की स्थापना करने और मंडियों में बोली लगाकर कृषि उपज की खरीदारी की व्यवस्था बनाने की सिफारिश की है। उसके ये सुझाव वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा जारी ‘नये भारत ञ्च 75 के लिए रणनीति’ दस्तावेज में दर्ज हैं।
नीति आयोग ने कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की जगह न्यूनतम आरक्षित मूल्य (एमआरपी) तय किया जाना चाहिए, जहां से बोली की शुरुआत हो। इससे किसानों को अपनी उपज की एमएसपी से ज्यादा कीमत मिल सकेगी। एमआरपी तय करने के लिए उसने एक समूह के गठन की अनुशंसा की है। नीति आयोग का विचार है कि वायदा कारोबार को प्रोत्साहित किया जाए और बाजार को विस्तार देने के लिए उसमें प्रवेश से जुड़ी बाधाएं हटाई जाएं।
नीति आयोग अनुबंध खेती को बढ़ावा देने के पक्ष में है। उसका सुझाव है कि सरकार को अगले पांच से दस वर्षों को ध्यान में रखकर कृषि निर्यात नीति बनानी चाहिए, जिसकी मध्यावधि समीक्षा का भी प्रावधान हो। दस्तावेज में सिंचाई सुविधाओं, विपणन सुधार, कटाई बाद फसल प्रबंधन और बेहतर फसल बीमा उत्पादों आदि में सुधार के माध्यम से कृषि क्षेत्र का आधुनिकीकरण करने जैसे सुझाव भी हैं। निश्चय ही ये प्रस्ताव बेहद अहम हैं। कृषि उपजों की बिडिंग जैसे उपाय को लागू करने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
सच्चाई यह है कि एमएसपी से किसान कभी संतुष्ट नहीं हुए। अक्सर इसे लागू करने में विवाद होता है। हाल में खरीफ फसलों का जो एमएसपी लागू किया गया, उससे भी किसान नाराज हैं। उनका कहना है कि वादा सी2 यानी संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था। धान की सी2 लागत 1,560 रुपये की डेढ़ गुना कीमत 2,340 रुपये प्रति क्विंटल बैठती है, लेकिन इस वर्ष धान का समर्थन मूल्य 1,750 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है।
किसान संगठनों की शिकायत है कि इससे उन्हें लगभग 600 रुपये प्रति क्विंटल का नुकसान हुआ है। बिडिंग की व्यवस्था में जिस उपज की जितनी मांग रहेगी, उस आधार पर उसकी कीमत बढ़ेगी। इससे किसानों को फायदा हो सकता है। हां, एमआरपी तय करने में सरकार को सावधानी बरतनी होगी। नीति आयोग ने इसके लिए कुछ मानदंड सुझाए हैं। अच्छा होगा कि इस बारे में रबी की फसल आने से पहले ही फैसला ले लिया जाए। कर्जमाफी किसानों का तनाव घटाने का एक फौरी तरीका है। सभी सरकारें इसे आजमा रही हैं, पर इससे बात बन नहीं रही। दूरगामी उपाय ही सबके हित में होगा।
लोकसभा चुनाव में अभी थोड़ा वक्त है लेकिन राजनीतिक दलों की तैयारी शुरू हो चुकी है। क्षेत्रीय दलों में खास तौर से अकुलाहट है और वे अपनी पोजिशनिंग में जुट गए हैं। देश के दोनों प्रमुख सियासी गठबंधनों में साफ दिख रही तनातनी का मुख्य कारण यही है। बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में उथल-पुथल ज्यादा है। मंगलवार को उसकी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के नेता चिराग पासवान ने एक तरह से चेतावनी ही दे डाली कि अगर समय रहते सीट बंटवारे पर बात नहीं बनी तो गठबंधन को नुकसान हो सकता है।
गौरतलब है कि एनडीए की सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) गठबंधन से पहले ही निकल चुकी है और उसके नेता उपेंद्र कुशवाहा यूपीए में शामिल होने का संकेत दे चुके हैं। शिवसेना तो सालों से अलग राग अलापती आ रही है। मंगलवार को मुंबई में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का बहिष्कार कर उसने एक बार फिर अपनी नाराजगी दिखाई। बिहार में सीट बंटवारे को लेकर असल पेच फंसा हुआ है। बीजेपी अपनी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी जेडीयू को नाराज नहीं करना चाहती लेकिन इस चक्कर में छोटे पार्टनर परेशान हो गए हैं। हाल के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद वे मुखर हुए हैं और कड़ी सौदेबाजी करना चाहते हैं। लेकिन रही बात विपक्ष की तो कांग्रेस के तीन राज्यों में सरकार बना लेने के बाद भी सभी विपक्षी दल उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
इससे मोदी करिश्मे के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठजोड़ उभरने की संभावना कमजोर पड़ी है। राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत के शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनाकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की सुप्रीमो मायावती ने संकेत दे दिया था कि वे कांग्रेस से दूरी बनाकर चलेंगे और बीजेपी के खिलाफ सभी विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बनाने के प्रॉजेक्ट का हिस्सा नहीं बनेंगे। कहा जा रहा है कि इन दोनों ने कांग्रेस को किनारे रखकर यूपी के लिए आपस में गठबंधन भी कर लिया है। बीएसपी 39 और एसपी 37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। अजित सिंह की आरएलडी को 2 सीटें दी जा सकती हैं, जबकि कांग्रेस के लिए रायबरेली और अमेठी की सीटें छोड़ दी जाएंगी। अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी की उम्मीदवारी से भी असहमति जताई है। उन्होंने कहा कि निजी तौर पर कोई राहुल को पीएम कैंडिडेट कह सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह गठबंधन की भी राय है। यही स्टैंड वामपंथी दलों का भी है, और उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी। देखना है, बीजेपी और कांग्रेस किस हद तक अपने सहयोगियों को एकजुट कर पाती हैं।
मुकुल व्यास
भारत ने 2023 में शुक्र ग्रह पर एक परिक्रमा यान भेजने की योजना बनाई है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने भारत के इस इरादे का स्वागत किया है क्योंकि जांच-पड़ताल की दृष्टि से शुक्र अभी तक उपेक्षित ग्रह ही है। पिछले दो दशकों में खगोल वैज्ञानिकों और अंतरिक्ष एजेंसियों का अधिकतर ध्यान मंगल और चंद्रमा की तरफ ही गया है। भारत ने इस यान पर उपकरण भेजने के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिकों को अपने प्रस्ताव भेजने को कहा है।
भारतीय यान शुक्र की जांच के लिए उसके वायुमंडल में एक गुब्बारा भेजेगा। यान का वजन संभवत: 2500 किलोग्राम होगा। उसके द्वारा ले जाये जाने वाले पेलोड का वजन 100 किलोग्राम तक हो सकता है। इसे भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली रॉकेट, भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्क 3 से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाएगा। परिक्रमा यान को शुरू में शुक्र की अंडाकार कक्षा में स्थापित किया जाएगा। पृथ्वी की तरह शुक्र की आयु करीब 4.5 अरब वर्ष है। उसका आकार और द्रव्यमान भी लगभग पृथ्वी के बराबर है। इस ग्रह पर ग्रीन हाउस प्रभाव की वजह से कार्बनडाईऑक्साइड का घना वायुमंडल बना।
शुक्र के वायुमंडल के अध्ययन से वैज्ञानिकों को पृथ्वी के वायुमंडल के गठन को समझने में मदद मिलेगी। शुक्र की विषम परिस्थितियों को देखते हुए उसका अध्ययन करना आसान नहीं है। उसके घने बादलों के कारण परिक्रमा यान से भी रिसर्च करना कठिन है। भीषण गर्मी, उच्च दबाव और सल्फ्यूरिक एसिड (तेजाब) की बूंदों के कारण ग्रह की सतह पर उतरना तकनीकी दृष्टि से एक बहुत बड़ी चुनौती है। शुक्र पर अभी तक भेजे गए 40 से अधिक मिशनों में करीब आधे विफल रहे हैं और कुछ गिनेचुने यान ही उसकी सतह पर उतरने में सफल रहे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने यान के साथ भेजे जाने वाले 12 उपकरणों का चुनाव कर लिया है और अब वह यह चाहता है कि दूसरे देशों के वैज्ञानिक भी इसमें शामिल हों।
शुक्र अन्वेषण के लिहाज से एक दिलचस्प ग्रह है। कुछ वैज्ञानिकों ने शुक्र के बादलों में जीवन की तलाश करने का सुझाव दिया है। भारतीय मूल के वैज्ञानिक संजय लिमये के नेतृत्व में रिसर्चरों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एस्ट्रोबायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित शोधपत्र में शुक्र के वायुमंडल में पारलौकिक जीवाणु जीवन के विद्यमान होने की संभावना जताई है। लिमये अमेरिका की विस्कोंसिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के स्पेस साइंस इंजीनियरिंग सेंटर के ग्रह-वैज्ञानिक हैं।
लिमये ने बताया कि शुक्र ग्रह के पास जीवन के विकसित होने के लिए पर्याप्त समय था। शुक्र के विकास के कुछ मॉडलों से पता चलता है कि शुक्र पर कभी आवास योग्य जलवायु थी और उसकी सतह पर लगभग दो अरब वर्ष तक तरल जल की मौजूदगी थी। इतने लंबे समय तक तो शायद मंगल पर भी पानी मौजूद नहीं रहा।
इस शोधपत्र के सहलेखक और नासा के एम्स रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक डेविड जे.स्मिथ ने कहा कि पृथ्वी की सतह पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया जैसे जीवाणु वायुमंडल में पहुंच सकते हैं। वैज्ञानिकों ने विशेष उपकरणों से युक्त गुब्बारों की मदद से पृथ्वी की सतह से 41 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर इन जीवाणुओं को जीवित पाया है। पृथ्वी पर ऐसे जीवाणुओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो अत्यंत विषम परिस्थितियों में वास करते हैं। दुनिया के गर्म पानी के स्रोतों,गहरे समुद्रों में जलतापीय छिद्रों, प्रदूषित इलाकों के विषाक्त कीचड़ और तेजाबी झीलों में भी जीवाणुओं को पनपते हुए देखा गया है। शोधपत्र के एक अन्य सहलेखक राकेश मोगुल का कहना है कि पृथ्वी पर बहुत ही तेजाबी परिस्थितियों में भी जीवन पनप सकता है और कार्बनडाईऑक्साइड से भी पोषित हो सकता है। उन्होंने बताया कि शुक्र के बादलों से भरे अत्यंत परावर्ती और तेजाबी वायुमंडल में मुख्य रूप से कार्बनडाईऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड से युक्त पानी की बूंदें पाई जाती हैं।
शुक्र ग्रह की आवास योग्यता का विचार सबसे पहले 1967 में प्रसिद्ध जीव-भौतिकविद हेरल्ड मोरोविट्ज और खगोल-वैज्ञानिक कार्ल सेगन ने रखा था। कुछ दशकों बाद ग्रह-वैज्ञानिकों डेविड ग्रीनस्पून, मार्क बुलक और उनके सहयोगियों ने इस विचार को और आगे बढ़ाया। शुक्र के वायुमंडल में जीवन की संभावना के मद्देनजर 1962 और 1978 के बीच शुक्र पर कई खोजी अंतरिक्ष यान भेजे गए थे। इन यानों से भेजे गए आंकड़ों से पता चला कि शुक्र पर 40 से 60 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल के मध्य भाग में तापमान और दबाव की परिस्थितियां जीवन के विपरीत नहीं हैं लेकिन ग्रह की सतह पर आग बरसती है।
इसका तापमान 450 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। लिमये ने पोलैंड की जिएलोना गोरा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जी.स्लोविक से मुलाक़ात के बाद शुक्र के वायुमंडल की पड़ताल करने का मन बनाया। स्लोविक ने लिमये को बताया कि पृथ्वी पर ऐसे बैक्टीरिया मौजूद हैं, जिनका प्रकाश को सोखने वाला गुण शुक्र के वायुमंडल में मौजूद अज्ञात कणों से मिलता है। ये कण काले धब्बों के रूप के रूप में मौजूद हैं। इन धब्बों को पहली बार करीब एक सदी पहले जमीनी दूरबीनों से देखा गया था। तभी से इनका रहस्य बना हुआ है। स्पेक्ट्रोस्कोप से जांच करने पर पता चला कि इन धब्बों में सल्फ्यूरिक एसिड और प्रकाश को सोखने वाले दूसरे अज्ञात कण मौजूद हैं।
दीपक कुमार
मिजोरम में 10 साल तक राज करने वाली कांग्रेस की पराजय के साथ ही पूरे पूर्वोत्तर में इस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया है। आजादी के बाद से सात दशकों तक इलाके के ज्यादातर राज्यों में उसकी ही सरकारें रहीं। इस क्षेत्र के सात राज्यों में से तीन ईसाई बहुल हैं और इलाके में भगवा भाजपा तेजी से अपनी पैठ बना रही है। इस साल की शुरुआत में कांग्रेस को नागालैंड और मेघालय में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। पूर्वोत्तर के असम, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और अब मिजोरम में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। असम, त्रिपुरा, मणिपुर और अरुणाचल में भाजपा सिंहासन पर काबिज है।
मिजोरम में कांग्रेसी मुख्यमंत्री ललथनहवला को हैट्रिक की उम्मीद थी। लेकिन वहां उसके पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी मिजो नेशनल फ्रंट ने बाजी मार ली। ललथनहवला अपनी दोनों सीटों से चुनाव हार गए। भाजपा भी मिजोरम में कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इस बार उसका खाता खुला है। 26 सीटें एमएनएफ को मिलीं। साल 2013 में मिजोरम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 34 सीटें जीती थीं। इस बार वह पांच सीटों पर ही सिमट गई है। सत्ता पर कब्जा जमाने वाली एमएनएस के अध्यक्ष जोरमथांगा वहां के मुख्यमंत्री होंगे।
पूर्व आईपीएस अधिकारी लालदुहोमा की अगुवाई में पहली बार चुनाव मैदान में उतरे सात क्षेत्रीय दलों के गठबंधन जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) ने आठ सीटें जीतीं। चुनाव आयोग में पंजीकृत नहीं होने की वजह से जेडपीएम के सभी उम्मीदवार निर्दलीय ही मैदान में थे। पार्टी ने 40 में से 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। जेडपीएम की अहमियत को ध्यान में रखते हुए ही कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) अपने चुनाव अभियान के दौरान उस पर सीधा हमला करने से बचती रहीं।
इस पार्टी के नेता लालदुहोमा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंगरक्षक रह चुके हैं। लालदुहोमा ने अपने तीन दशक के लंबे करियर के दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंने इस्तीफा देकर वर्ष 1984 में कांग्रेस का हाथ थामा था। उस दौरान वे मिजोरम के प्रदेश अध्यक्ष होने के साथ सांसद भी बने थे। इसके बाद वह बाद लंदन गए और राज्य में शांति बहाली के लिए तत्कालीन उग्रवादी नेता लालदेंगा को भारत ले आए। लेकिन शांति प्रक्रिया में बाधा पहुंचने पर उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। लालदुहोमा ने उसके बाद मिजो नेशनल यूनियन (एमएनयू) का गठन किया था। लेकिन कुछ समय बाद ब्रिगेडियर साइलो की मिजोरम पीपुल्स पार्टी (एमपीपी) में उसका विलय हो गया। साइलो वर्ष 1979 से 1984 तक मिजोरम के मुख्यमंत्री रहे थे।
दरअसल, कांग्रेस की पूर्वोत्तर में क्षय की पटकथा एक दशक पहले से लिखी जाने लगी थी। मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और इलाके के कुछ अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व और पूरी सरकार के पाला बदलने (अरुणाचल प्रदेश के मामले में) की वजह से कांग्रेस धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगी। हालांकि,उसने असम के अलावा पड़ोसी मेघालय और नागालैंड पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी। लेकिन दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में पहले असम खिसका और फिर इस साल मेघालय और नागालैंड। पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में विकास का कोई काम न होना, लचर आधारभूत ढांचा, बढ़ता उग्रवाद और भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का पनपना कांग्रेस की लुटिया डुबोता गया।
इन राज्यों में बेरोजगारी, घुसपैठ और गरीबी बढ़ती रही। युवकों में पनपी हताशा और आक्रोश ने उग्रवाद की शक्ल ले ली। उग्रवाद की वजह से इलाके में अब तक न तो कोई उद्योग-धंधा लग पाया और न ही विकास परियोजनाओं पर अमल किया गया। मिजोरम में तो लोग दस-दस साल के अंतराल पर कांग्रेस को मौका देते रहे, लेकिन वहां भी विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ। कांग्रेस के रवैये की वजह से ही इलाके के तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ। इन दलों की स्थापना करने वाले नेता वही थे जो पहले कांग्रेस में थे। लोगों का मूड भांप कर उन्होंने नई पार्टियां बनाईं और सत्ता तक पहुंचे।
दूसरी ओर, भाजपा ने ज्यादातर राज्यों में स्थानीय दलों के साथ हाथ मिलाया। मेघालय से लेकर अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और त्रिपुरा तक उसके साथ स्थानीय दल भी सरकार में साझीदार हैं। मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर आर. लालथनलुआंगा कहते हैं-कांग्रेस अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है, जहां से उसके लिए निकट भविष्य में वापसी संभव नहीं है। उसके पास अब पहले की तरह करिश्माई नेता भी नहीं बचे हैं।
सही मायनों में पांच राज्यों खासकर तीन हिंदी भाषी राज्यों की जनता ने राजनेताओं को स्पष्ट संदेश दिया है कि हवा-हवाई वादों का जमीन पर भी असर दिखना चाहिए। यह भी कि बेरोजगारों व किसानों को नजरअंदाज करके सुनहरे सपने दिखाने से काम नहीं चलेगा। एकतरफा जनादेश की आशा पालने वाली कांग्रेस के लिए भी संकेत है कि उसकी सरकारों का भविष्य भी इस बात पर निर्भर करेगा कि वे जनाकांक्षाओं पर किस हद तक खरी उतरती हैं। नि:संदेह राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ठीक एक साल बाद विपक्ष के नेता के रूप में छवि हासिल कर पाये हैं। लंबे समय से सत्ता से बाहर रहने वाले कांग्रेसियों के लिए चुनाव परिणाम प्राणवायु की तरह हैं। बशर्ते वे आने वाले आम चुनाव तक सजगता-सक्रियता बनाये रखें। कहना जल्दबाजी होगा कि यह जनादेश मोदी-शाह की जोड़ी के लिए खतरे की घंटी है। निर्विवाद रूप से मोदी की अजेय छवि प्रभावित हुई है, उनके बूते विधानसभा चुनाव जीतने का तिलिस्म टूटा है। मगर नहीं भूलना चाहिए कि इस जोड़ी ने देश में चुनाव-शैली में अप्रत्याशित बदलाव करके बार-बार चौंकाया है। फिर इन चुनाव परिणामों ने उन्हें चेताया है।
चुनावों के दौरान जो कर्कश आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चला, उसके बाद राहुल गांधी ने जिस सौम्यता के साथ मुख्यमंत्री रहे भाजपा के नेताओं के कामकाज को सराहा और उनके काम को आगे बढ़ाने की बात कही, वह सुखद है। ऐसी ही भाषा डॉ. रमन सिंह, शिवराज चौहान व वसुंधरा राजे ने भी अभिव्यक्त की। बहुत संभव है मोदी-शाह की जोड़ी बाकी बचे समय में उस आक्रामकता का परित्याग करे, जिसके लिये उन्हें दंभी कहा जाता रहा है। संभव है कि राजग के कई दलों के अलग होने और शिव सेना जैसे अन्य दलों के तेवर दिखाने के बाद नये सहयोगी तलाशने के लिये मोदी लचीला रुख अपनायें। नहीं भूलना चाहिए कि मिजोरम में कांग्रेस ने सरकार गंवाई है, तेलंगाना में गठबंधन हारा है और मध्यप्रदेश व राजस्थान में भाजपा से कांग्रेस को कड़ी चुनौती मिली है। ऐसे में इन परिणामों को 2019 का सेमीफाइनल मान लेना निष्कर्षों की सरल व्याख्या होगी। कहा भी जा रहा है कि जैसा 19 का पहाड़ा याद करना बेहद मुश्किल होता है, 2019 का आम चुनाव भी खासा जटिल होने वाला है। जनता ने हार-जीत के कई पत्ते अभी राजनेताओं से साझे नहीं किये हैं। जनता सोशल मीडिया के दौर में काफी सचेत है। आम चुनावों के लिये बाकी महीनों में कई नये विमर्श व रणनीतियां सामने आएंगी, ऐसे में फाइनल का निष्कर्ष देना दूर की कौड़ी ही होगी।
सही मायनों में पांच राज्यों खासकर तीन हिंदी भाषी राज्यों की जनता ने राजनेताओं को स्पष्ट संदेश दिया है कि हवा-हवाई वादों का जमीन पर भी असर दिखना चाहिए। यह भी कि बेरोजगारों व किसानों को नजरअंदाज करके सुनहरे सपने दिखाने से काम नहीं चलेगा। एकतरफा जनादेश की आशा पालने वाली कांग्रेस के लिए भी संकेत है कि उसकी सरकारों का भविष्य भी इस बात पर निर्भर करेगा कि वे जनाकांक्षाओं पर किस हद तक खरी उतरती हैं। नि:संदेह राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ठीक एक साल बाद विपक्ष के नेता के रूप में छवि हासिल कर पाये हैं। लंबे समय से सत्ता से बाहर रहने वाले कांग्रेसियों के लिए चुनाव परिणाम प्राणवायु की तरह हैं। बशर्ते वे आने वाले आम चुनाव तक सजगता-सक्रियता बनाये रखें। कहना जल्दबाजी होगा कि यह जनादेश मोदी-शाह की जोड़ी के लिए खतरे की घंटी है। निर्विवाद रूप से मोदी की अजेय छवि प्रभावित हुई है, उनके बूते विधानसभा चुनाव जीतने का तिलिस्म टूटा है। मगर नहीं भूलना चाहिए कि इस जोड़ी ने देश में चुनाव-शैली में अप्रत्याशित बदलाव करके बार-बार चौंकाया है। फिर इन चुनाव परिणामों ने उन्हें चेताया है।
चुनावों के दौरान जो कर्कश आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चला, उसके बाद राहुल गांधी ने जिस सौम्यता के साथ मुख्यमंत्री रहे भाजपा के नेताओं के कामकाज को सराहा और उनके काम को आगे बढ़ाने की बात कही, वह सुखद है। ऐसी ही भाषा डॉ. रमन सिंह, शिवराज चौहान व वसुंधरा राजे ने भी अभिव्यक्त की। बहुत संभव है मोदी-शाह की जोड़ी बाकी बचे समय में उस आक्रामकता का परित्याग करे, जिसके लिये उन्हें दंभी कहा जाता रहा है। संभव है कि राजग के कई दलों के अलग होने और शिव सेना जैसे अन्य दलों के तेवर दिखाने के बाद नये सहयोगी तलाशने के लिये मोदी लचीला रुख अपनायें। नहीं भूलना चाहिए कि मिजोरम में कांग्रेस ने सरकार गंवाई है, तेलंगाना में गठबंधन हारा है और मध्यप्रदेश व राजस्थान में भाजपा से कांग्रेस को कड़ी चुनौती मिली है। ऐसे में इन परिणामों को 2019 का सेमीफाइनल मान लेना निष्कर्षों की सरल व्याख्या होगी। कहा भी जा रहा है कि जैसा 19 का पहाड़ा याद करना बेहद मुश्किल होता है, 2019 का आम चुनाव भी खासा जटिल होने वाला है। जनता ने हार-जीत के कई पत्ते अभी राजनेताओं से साझे नहीं किये हैं। जनता सोशल मीडिया के दौर में काफी सचेत है। आम चुनावों के लिये बाकी महीनों में कई नये विमर्श व रणनीतियां सामने आएंगी, ऐसे में फाइनल का निष्कर्ष देना दूर की कौड़ी ही होगी।