संपादकीय

16-Dec-2018 1:17:16 pm
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पिछड़ेपन के बोझ से दरकी कांग्रेस की जमीन

दीपक कुमार
मिजोरम में 10 साल तक राज करने वाली कांग्रेस की पराजय के साथ ही पूरे पूर्वोत्तर में इस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया है। आजादी के बाद से सात दशकों तक इलाके के ज्यादातर राज्यों में उसकी ही सरकारें रहीं। इस क्षेत्र के सात राज्यों में से तीन ईसाई बहुल हैं और इलाके में भगवा भाजपा तेजी से अपनी पैठ बना रही है। इस साल की शुरुआत में कांग्रेस को नागालैंड और मेघालय में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। पूर्वोत्तर के असम, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और अब मिजोरम में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। असम, त्रिपुरा, मणिपुर और अरुणाचल में भाजपा सिंहासन पर काबिज है।
मिजोरम में कांग्रेसी मुख्यमंत्री ललथनहवला को हैट्रिक की उम्मीद थी। लेकिन वहां उसके पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी मिजो नेशनल फ्रंट ने बाजी मार ली। ललथनहवला अपनी दोनों सीटों से चुनाव हार गए। भाजपा भी मिजोरम में कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इस बार उसका खाता खुला है। 26 सीटें एमएनएफ को मिलीं। साल 2013 में मिजोरम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 34 सीटें जीती थीं। इस बार वह पांच सीटों पर ही सिमट गई है। सत्ता पर कब्जा जमाने वाली एमएनएस के अध्यक्ष जोरमथांगा वहां के मुख्यमंत्री होंगे।
पूर्व आईपीएस अधिकारी लालदुहोमा की अगुवाई में पहली बार चुनाव मैदान में उतरे सात क्षेत्रीय दलों के गठबंधन जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) ने आठ सीटें जीतीं। चुनाव आयोग में पंजीकृत नहीं होने की वजह से जेडपीएम के सभी उम्मीदवार निर्दलीय ही मैदान में थे। पार्टी ने 40 में से 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। जेडपीएम की अहमियत को ध्यान में रखते हुए ही कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) अपने चुनाव अभियान के दौरान उस पर सीधा हमला करने से बचती रहीं।
इस पार्टी के नेता लालदुहोमा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंगरक्षक रह चुके हैं। लालदुहोमा ने अपने तीन दशक के लंबे करियर के दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंने इस्तीफा देकर वर्ष 1984 में कांग्रेस का हाथ थामा था। उस दौरान वे मिजोरम के प्रदेश अध्यक्ष होने के साथ सांसद भी बने थे। इसके बाद वह बाद लंदन गए और राज्य में शांति बहाली के लिए तत्कालीन उग्रवादी नेता लालदेंगा को भारत ले आए। लेकिन शांति प्रक्रिया में बाधा पहुंचने पर उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। लालदुहोमा ने उसके बाद मिजो नेशनल यूनियन (एमएनयू) का गठन किया था। लेकिन कुछ समय बाद ब्रिगेडियर साइलो की मिजोरम पीपुल्स पार्टी (एमपीपी) में उसका विलय हो गया। साइलो वर्ष 1979 से 1984 तक मिजोरम के मुख्यमंत्री रहे थे।
दरअसल, कांग्रेस की पूर्वोत्तर में क्षय की पटकथा एक दशक पहले से लिखी जाने लगी थी। मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और इलाके के कुछ अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व और पूरी सरकार के पाला बदलने (अरुणाचल प्रदेश के मामले में) की वजह से कांग्रेस धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगी। हालांकि,उसने असम के अलावा पड़ोसी मेघालय और नागालैंड पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी। लेकिन दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में पहले असम खिसका और फिर इस साल मेघालय और नागालैंड। पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में विकास का कोई काम न होना, लचर आधारभूत ढांचा, बढ़ता उग्रवाद और भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का पनपना कांग्रेस की लुटिया डुबोता गया।
इन राज्यों में बेरोजगारी, घुसपैठ और गरीबी बढ़ती रही। युवकों में पनपी हताशा और आक्रोश ने उग्रवाद की शक्ल ले ली। उग्रवाद की वजह से इलाके में अब तक न तो कोई उद्योग-धंधा लग पाया और न ही विकास परियोजनाओं पर अमल किया गया। मिजोरम में तो लोग दस-दस साल के अंतराल पर कांग्रेस को मौका देते रहे, लेकिन वहां भी विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ। कांग्रेस के रवैये की वजह से ही इलाके के तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ। इन दलों की स्थापना करने वाले नेता वही थे जो पहले कांग्रेस में थे। लोगों का मूड भांप कर उन्होंने नई पार्टियां बनाईं और सत्ता तक पहुंचे।
दूसरी ओर, भाजपा ने ज्यादातर राज्यों में स्थानीय दलों के साथ हाथ मिलाया। मेघालय से लेकर अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और त्रिपुरा तक उसके साथ स्थानीय दल भी सरकार में साझीदार हैं। मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर आर. लालथनलुआंगा कहते हैं-कांग्रेस अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है, जहां से उसके लिए निकट भविष्य में वापसी संभव नहीं है। उसके पास अब पहले की तरह करिश्माई नेता भी नहीं बचे हैं।

 

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