संपादकीय

सस्ती बिजली से कंपनियों को झटका
Posted Date : 13-Feb-2019 11:38:14 am

सस्ती बिजली से कंपनियों को झटका

भरत झुनझुनवाला
कोयले से बिजली बनाने वाली थर्मल पॉवर कम्पनियां परेशानी में हैं। बीते समय में केंद्र सरकार ने कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में इनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए कमेटी बनायी थी। कमेटी ने कोयले से बिजली बनाने वाले 34 थर्मल प्रोजेक्टों के परेशानी में पडऩे का एक प्रमुख कारण यह बताया था कि बिजली के दाम गिर गए हैं। अपने देश में केंद्र सरकार ने इंडिया एनर्जी एक्सचेंज नाम का बाजार बनाया है, जिसमें बिजली की खरीद एवं बिक्री की जाती है। एक्सचेंज में बिजली के दाम उसी प्रकार चढ़ते-उतरते हैं जैसे सब्जी मंडी में। उद्यमियों ने कई प्रोजेक्टों को यह सोचकर लगाया था कि वे उत्पादित बिजली को बाजार में अच्छे दाम पर बेच लेंगे और प्रॉफिट कमाएंगे। लेकिन एक्सचेंज में बिजली के दाम गिर गए, उत्पादित बिजली को उद्यमियों को सस्ते दाम पर बेचना पड़ा और ये घाटे में आ गए।
कुछ ही वर्ष पूर्व तक देश में पॉवर कट लगातार होते थे। आज बिजली खरीदने वाले नहीं रहे। इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है कि बिजली की डिमांड में गिरावट आई है।
वर्तमान में हमारी आर्थिक विकास दर (जीडीपी) लगभग 7 प्रतिशत दर पर टिकी हुई है। बीते चार वर्षों में इसमें वृद्धि नहीं हुई है। लेकिन इन्हीं चार वर्षों में सेंसेक्स लगभग 30 हजार से बढक़र 37 हजार तक पहुंच गया है। प्रश्न है कि विकास दर शिथिल रहने के बावजूद सेंसेक्स क्यों उछल रहा है? कारण है कि नोटबंदी, जीएसटी तथा इनकम टैक्स के खौफ से छोटे उद्यमी सहम गये हैं। छोटी कम्पनियों के बंद होने से बड़ी कम्पनियों को खुली चाल मिल गयी है। इनका धंधा बढ़ रहा है, जिसके कारण सेंसेक्स उछल रहा है। जो माल पहले छोटी कम्पनियों द्वारा उत्पादित होता था उसी का अब बड़ी कम्पनियों द्वारा उत्पादन हो रहा है। इस अंतर का बिजली की डिमांड पर प्रभाव पड़ता है। छोटे उद्यमी आज वॉशिंग मशीन, फ्रिज या एयर कंडिशनर खरीदने को उत्सुक हैं। उनका धंधा ठप होने से वे इन उपकरणों को नहीं खरीद पा रहे हैं और इन उपकरणों से बिजली की जो डिमांड पैदा हो सकती थी, वह उत्पन्न नहीं हो रही है। बड़ी कम्पनियों द्वारा अधिक लाभ कमा कर इसका वितरण डिविडेंड के रूप में शेयरधारकों को भुगतान किया जा रहा है। ये शेयरधारक मुख्यत: सम्भ्रान्त वर्ग के होते हैं। इनके घरों में वॉशिंग मशीन, फ्रिज और एयर कंडिशनर पहले ही लगे हुए हैं। अत: डिविडेंड ज्यादा मिलने से इनके द्वारा बिजली की डिमांड में कोई विशेष वृद्धि नहीं होती है। इस प्रकार छोटे उद्यमियों की परेशानी के कारण देश में बिजली की मांग में वृद्धि कम ही हो रही है।
बिजली की डिमांड कम होने का दूसरा कारण है कि देश की आय में मैनुफेक्चरिंग का योगदान कम और सेवाक्षेत्र का योगदान बढ़ रहा है। मैनुफेक्चरिंग जैसे एल्यूमीनियम तथा स्टील के उत्पादन में बिजली की खपत ज्यादा होती है। तुलना में सेवाक्षेत्र जैसे टूरिस्ट होटल अथवा सॉफ्टवेयर पार्क में बिजली की खपत कम होती है। देश की आय में मैनुफेक्चरिंग का हिस्सा कम होने से बिजली की खपत में वृद्धि नहीं हो रही है और सेवाक्षेत्र के विस्तार से बिजली की खपत में वृद्धि कम ही हो रही है। यही बिजली कम्पनियों के संकट का मुख्य कारण है।
अपने देश में इण्डिया एनर्जी एक्सचेंज में हर समय बिजली की खरीद और बिक्री होती रहती है। प्रात:काल और सायंकाल बिजली की मांग ज्यादा होती है और इस समय बिजली के दाम लगभग 4 रुपये प्रति यूनिट हैं। रात्रि और दिन में बिजली की डिमांड कम होती है और बिजली के दाम लगभग 3 रुपये प्रति यूनिट हैं। इन दामों के सामने बिजली की उत्पादन लागत ज्यादा है।
जलविद्युत परियोजनाओं द्वारा बिजली का उत्पादन प्रात:काल और सायंकाल किया जाता है। इन्हें 4 रुपये प्रति यूनिट का दाम मिलता है। लेकिन इनकी उत्पादन लागत लगभग 7 रुपये प्रति यूनिट आती है। 7 रुपये में बिजली उत्पादन करके 4 रुपये में बेचना इनके लिए घाटे का सौदा है। तुलना में कोयले से चलने वाले थर्मल सयंत्रों द्वारा 24 घंटे बिजली सप्लाई की जाती है। इन्हें रात्रि और दिन का 3 रुपए का रेट मिलता है जबकि इनकी उत्पादन लागत लगभग 5 रुपये पड़ती है। 5 रुपये में उत्पादन करके 3 रुपये में बिजली को बेचना इनके लिए घाटे का सौदा है। इसलिए ये बिजली कंपनियां संकटग्रस्त हो रही हैं।
प्रश्न है कि हम इस दल-दल में कैसे फंसे? इस समस्या की जड़ ऊर्जा मंत्रालय की संस्था सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी में है। इस अथॉरिटी द्वारा आने वाले वर्षों में बिजली की डिमांड के अनुमान प्रकाशित किये जाते हैं। इन अनुमान के आधार पर उद्यमी थर्मल एवं हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगते हैं और बैंक इन्हें ऋण देते हैं। अथॉरिटी बिजली की डिमांड के अनुमान बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है। उदाहरणत: वर्ष 2003-04 में अथॉरिटी द्वारा दिए गये अनुमान की तुलना में वास्तविक डिमांड 30 प्रतिशत कम रही थी। इस कृत्रिम डिमांड को पूरा करने के लिए देश के उद्यमियों ने बिजली संयंत्र लगाये जो इस कृत्रिम डिमांड के फलीभूत न होने के कारण आज संकट में पड़ गये हैं।
कहा जा रहा है कि बिजली बोर्डों की खस्ता हालत के कारण बिजली की डिमांड कम है। यह बात नहीं जमती है क्योंकि बिजली बोर्डों की हालत में पहले से सुधार हुआ है। दूसरा कथित कारण कोयले की अनुपलब्धि है। लेकिन कोयले में भी पूर्व की तुलना में सुधार हुआ है। अत: इन कारणों से संकट पैदा हुआ हो यह बात गले नहीं उतरती।
सच यह है कि मैन्युफेक्चरिंग के लिए देश को बिजली की जरूरत कम है क्योंकि हमारा विकास मुख्यत: सेवाक्षेत्र से हो रहा है, जिसमें बिजली की डिमांड कम होती है। खपत के लिए भी बिजली की डिमांड कम है क्योंकि छोटे उद्यमियों पर संकट है और इनके द्वारा बिजली की खपत नहीं बढ़ रही है। अत: इस समस्या को हल करने के लिए सरकार को पहले छोटे उद्यमियों को पुनर्जीवित करने के लिए पॉलिसी बनानी पड़ेगी। साथ-साथ वर्तमान में थर्मल और हाइड्रो पॉवर प्लांट जो संकट में हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए पैसा नहीं देना चाहिए। वर्तमान में सौर ऊर्जा का दाम लगभग 3 रुपये प्रति यूनिट हो गया है। इसलिए आने वाले समय में सौर ऊर्जा से हमको अपनी बिजली की जरूरतें पूरी करना ज्यादा अनुकूल पड़ेगा। थर्मल और हाइड्रो का सूर्यास्त हो रहा है और इसे अस्त हो जाने देना चाहिए।

 

चैनलों के लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक कवायद
Posted Date : 13-Feb-2019 11:37:32 am

चैनलों के लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक कवायद

आलोक पुराणिक
बुजुर्ग हैं अमिताभ बच्चन साहब उनकी कोई बात टालनी नहीं चाहिए। बच्चन साहब कह रहे हैं कि सोनी के फलां-फलां चैनल चुनें, और देखते रहें। बच्चन साहब कुछेक रुपयों के लिए ऐसा विनम्र और इमोशनल अनुरोध कर रहे हैं, हम कैसे टाल सकते हैं अब सोनी मिक्स पर गाने सुनेंगे और चाहे कितनी ही बार सोनी वाले सूर्यवंशम् फिल्म दिखायें, हम देखेंगे, देखते ही रहेंगे।
टेलीकाम अथॉरिटी ऑफ इंडिया उर्फ ट्राई के नये नियमों के मुताबिक दर्शकों को चैनल चुनने का अधिकार है, अपनी मर्जी से चुनो। चैनलों में लोकतंत्र मचा हुआ है। हर दर्शक को चुनने का हक है। लोकतंत्र के बहुत फायदे हैं, उस चैनल की नागिन चुनिये या इस चैनल की डायन चुनिये। चुनिये चुनिये। चुनिये। स्टार वाले कह रहे हैं हमें देखिये। कुछ तो कह रहे हैं कि मुफ्त में ही देख लीजिये। कई चैनल तो ऐसे चल रहे हैं कि मन होता है उनसे कहें कि भइया कुछ पैसे दो हम देखेंगे तुम्हारा चैनल।
देखिये, देखिये, देखते रहिये। गाने देखिये, अफेयर देखिये, चुड़ैल देखिये, भूत देखिये, देखते ही रहिये। कंपीटिशन हो लिया भूतों में। कुछ दिनों में टीवी पर चुड़ैलें खुद आकर प्रमोशन करेंगी, मैं कितनी क्यूट चुड़ैल हूं बहुत सस्ती सिर्फ एक रुपये में रोज देखिये फलां चैनल। उस चैनल की चुड़ैल के मुकाबले हमारी डायन ज्यादा खतरनाक है, ज्यादा खतरनाक चुड़ैल कम रेट पर देखें। मतलब भूतों, चुड़ैलों और नागिनों वाले चैनल इस कदर इश्तिहारबाजी में मार मचा रहे हैं कि नागिनों को बहुत बेइज्जत टाइप फील हो सकता है। अरबों के किलों पर खरबों के खजाने की रक्षा करने वाली नागिनों के कार्यक्रम वाले चैनल एक रुपये रोज पर सेल हो रहे हैं, नागिनों की ऐसी वैल्यू खराब भारतीय टीवी पर कभी न देखी गयी।
बड़े-बड़े भूत नागिन रुपयों के आगे डांस करते हैं। नागिन भूत चैनल कम ही सही पैसे चार्ज तो कर रहे हैं, पर बडक़े-बडक़े न्यूज चैनल कह रहे हैं देख लो, फ्री में ही देख लो। नागिन सस्ती हो गयी है, पर न्यूज तो एकदम मुफ्त टाइप हो गयी है। नागिन जैसी भी हो, अब भी न्यूज पर भारी है, यह ख्याल करके नागिनें अपनी बेइज्जती कुछ कम फील कर सकती हैं।
देखें, देखें, देखें, जरूर ही देखें। अमिताभ बच्चन कह रहे हैं। उस फेमस टीवी सीरियल की भाभी कह रही हैं। उस सीरियल का वह विलेन कह रहा है जो कइयों के करोड़ों रुपये मारने के चक्कर में रहता है पर कुछ रुपयों के लिए वह आपसे अपील कर रहा है कि उसे देखें, देखें प्लीज। देख ही लें प्लीज।
ओ भाई, सुबह से शाम तक हम देखते ही रहेंगे, तो हमारा काम काज, रोजगार धंधा कौन देखेगा।
इस सवाल का जवाब अमिताभ बच्चन से जब तक पूछ पाता, वह दूसरे चैनल पर ब्यूटी क्रीम लेने की अपील कर रहे थे, मैं ब्यूटी क्रीम खरीदकर लौट रहा हूं। अमिताभ साहब की बात कौन टाल सकता है।

 

विकराल बेरोजगारी
Posted Date : 08-Feb-2019 12:03:42 pm

विकराल बेरोजगारी

हाल ही में लीक हुए बेरोजगारी के आंकड़े और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के कार्यवाहक चेयरपर्सन व एक सदस्य के इस्तीफे के बाद भले ही नीति आयोग ने सफाई दी हो, मगर उभरती तस्वीर चिंताजनक है। चुनावी साल में इस रिपोर्ट का लीक होना और एक समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित करने से विपक्ष को मोदी सरकार को घेरने का एक मुद्दा मिल गया है।?रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी है जो कि 1970 के दशक के बाद सबसे ज्यादा है। इससे पहले वर्ष 2011-12 में यह 2.2 फीसदी थी। यूं तो इस ?आंकड़े की वृद्धि में कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कारक भी हैं, मगर यह केंद्र सरकार की कार्यशैली की ओर भी इशारा करती है। दरअसल, भारतीय नौकरशाही व अर्थव्यवस्था का स्वरूप रोजगार सृजन गतिशील नहीं बनाता है, मगर सरकारों के कुछ फैसलों ने समस्या को विस्तार दिया। ऐसा भी नहीं है कि बेरोजगारी सिर्फ मोदी सरकार के पिछले चार साल के कार्यकाल के दौरान ही बढ़ी हो। मगर मोदी सरकार के दौरान वर्ष 2016 में नोटबंदी के फैसले ने स्थिति पर प्रतिकूल असर डाला। सरकार ने पांच सौ और हजार के नोट बंद किये तो इसका असंगठित क्षेत्र पर बुरा असर पढ़ा। इसी तरह कृषि क्षेत्र पर भी प्रतिकूल असर पढ़ा। दरअसल, इन क्षेत्रों में लेनदेन नकदी पर आधारित होता है। छोटे कारोबार ज्यादा प्रभावित हुए उन्होंने कारोबार बचाने के लिये नौकरियां कम की। इस तरह वर्ष 2017 में जीएसटी को अव्यावहारिक रूप से लागू करने से छोटे कारोबारों पर प्रतिकूल असर पड़ा और रोजगार का संकुचन हुआ।
विपक्ष लगातार सरकार के इन दो फैसलों से बेरोजगारी बढऩे के आरोप लगाता रहा है। दरअसल, बेरोजगारी का यह आंकड़ा नोटबंदी व जीएसटी के बाद जुलाई, 2017 व जून, 2018 के बीच का है। इस रिपोर्ट को जारी न करने देने का आरोप लगाते हुए हाल ही में राष्ट्रीय संख्यिकी आयोग के कार्यकारी चेयरपर्सन व एक सदस्य ने इस्तीफा दिया था। भारत को युवाओं का देश कहते हैं, मगर इन हाथों को काम न दे पाना हमारी नाकामी ही कही जायेगी। लीक रिपोर्ट में शहरी क्षेत्र में 15 से 29 साल के 18.7 पुरुष व 27.2 फीसदी महिलाएं काम की तलाश में थीं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में ?इसी आयु वर्ग में 17.4 पुरुष व 13.6 फीसदी महिलाएं काम की तलाश में थीं। वर्ष 2014 के आम चुनाव में रोजगार एक बड़ा मुद्दा था और हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने का वादा भाजपा की तरफ से किया गया था। जबकि हकीकत इसके विपरीत नजर आ रही है, जो विपक्ष को सरकार के विरुद्ध हमलावर होने का मौका देता है। नि:संदेह बेरोजगारी की समस्या पिछली सरकारों के समय भी थी। इसके लिये मौजूदा समय में रोजगार सृजन के गंभीर प्रयासों की जरूरत है।?सवाल हमारी शैक्षिक प्रणाली पर भी उठते हैं जो युवाओं में ऐसा कौशल विकसित नहीं कर पाती जो उद्यमशीलता का मार्ग?उन्मुख करे। देश के नीति-नियंताओं को स्थिति को गंभीरता से लेते हुए भविष्य की रोजगार उन्मुख नीतियों को प्राथमिकता देनी होगी। कालांतर में बेरोजगारी से उपजा असंतोष समाज में अशांति का कारक भी बन सकता है।

 

कब तक बचेगी गंगा
Posted Date : 08-Feb-2019 12:03:03 pm

कब तक बचेगी गंगा

भारत की जीवन रेखा कहलाने वाली नदी गंगा के अस्तित्व पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। जी नहीं, इस खतरे का संबंध नमामि गंगे और गंगा ऐक्शन प्लान जैसी सरकारी योजनाओं की विफलता से नहीं है। यह मैदानों के प्रदूषण से नहीं, ठेठ गंगा की जड़ गोमुख ग्लेशियर से आ रहा है और अकेली गंगा नहीं, दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया की बहुतेरी नदियां इस खतरे की जद में हैं। ‘हिंदूकुश-हिमालय असेसमेंट’ नामक अध्ययन में बताया गया है कि इन दोनों पर्वतमालाओं से निकलने वाले ग्लेशियर (हिमनद) लगातार पिघल रहे हैं और इनमें से दो-तिहाई इस सदी के अंत तक खत्म हो सकते हैं। 210 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार यह रिपोर्ट काठमांडू में स्थित ‘इंटरनेशनल सेंटर फार इंटीग्रेटेड माउंटेन डिवेलपमेंट’ द्वारा जारी की गई है।
स्टडी के अनुसार इस सदी के अंत तक दुनिया का तापमान पेरिस जलवायु समझौते के मुताबिक 1.5 डिग्री सेल्सियस ही बढऩे दिया जाए, तो भी इलाके के एक-तिहाई ग्लेशियर नहीं बचेंगे और बढ़ोतरी अगर 2 डिग्री सेल्सियस होती है, जिसकी आशंका ज्यादा है, तो दो-तिहाई ग्लेशियर नहीं रहेंगे। दरअसल पूरी दुनिया में हिमनदों के पिघलने का सिलसिला 1970 से ही तेज हो चुका है। इसके एक सीमा पार करते ही नदियों की दिशा व बहाव में बदलाव आ सकता है। बर्फ पिघलने से यांगत्सी, मीकांग, ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु के प्रवाह पर फर्क पड़ेगा और इनमें से कुछ बरसाती नदी बनकर रह जाएंगी। इन नदियों पर बड़ी संख्या में किसान निर्भर करते हैं। 25 करोड़ पर्वतीय और 165 करोड़ मैदानी लोगों का जीवन इन पर टिका है। 
नदी के प्रवाह में बदलाव से फसलों की पैदावार के साथ ही बिजली उत्पादन पर भी फर्क पड़ेगा। वैकल्पिक नजरिये से देखें तो ब्रिटिश वैज्ञानिक वूटर ब्यूटार्ट इस रिपोर्ट के निष्कर्षों से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि इस मामले में अभी और ज्यादा रिसर्च की जरूरत है क्योंकि ग्लेशियर पिघलने के बाद भी नदियों को और जगहों से पानी मिल जाता है। जो भी हो, ग्लेशियर खत्म होने की बात को अब गंभीरता से लेना हमारी मजबूरी है। ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए चला विश्वव्यापी अभियान भी पिछले कुछ समय से ठिठका हुआ सा लग रहा है। सारे देश एक-दूसरे को नसीहत ही देते हैं। खुद अपने यहां कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते, क्योंकि इससे उनकी अर्थव्यवस्था पर उलटा असर पड़ सकता है। 
उद्योग-धंधे लगाने में पर्यावरणीय शर्तों की अनदेखी अभी हमारे यहां ही आम बात हो चली है, जबकि हिमालय का संकट सबसे ज्यादा नुकसान हमें ही पहुंचाने वाला है। एक तो हमारी बहुत बड़ी आबादी हिमालय पर निर्भर है, दूसरे गंगा के बिना भारतीय सभ्यता की कल्पना भला कौन कर सकता है/ अच्छा हो कि हम इस संकट के बारे में और ठोस जानकारी जुटाएं और इससे निपटने के कार्यभार को जल्द से जल्द अपने नीतिगत ढांचे में शामिल करें।

 

शुभेच्छा की भाषा का नहीं कोई धर्म
Posted Date : 01-Feb-2019 11:55:14 am

शुभेच्छा की भाषा का नहीं कोई धर्म


विश्वनाथ सचदेव
कुछ अर्सा पहले किसी राष्ट्रीयकृत बैंक के एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। जानकर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उस बैंक के सारे कर्मचारी रोज़ सुबह काम की शुरुआत से पहले सामूहिक प्रार्थना में भाग लेते हैं। कर्मचारियों में लगभग सभी धर्मों को मानने वालों की उपस्थिति की संभावना को देखते हुए सहज जिज्ञासा-वश मैंने पूछ लिया था, कौन-सी प्रार्थना होती है रोज़ सवेरे? मुझे अपने स्कूल की प्रार्थना याद आ रही थी— हे प्रभु! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिएज्। मुझे बताया गया कि बैंक के कर्मचारी रोज़ सवेरे ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन में विश्वास कमज़ोर हो नज्’ का पाठ करते हैं। एक हिंदी सिनेमा में गायी गयी यह प्रार्थना सचमुच प्रेरणादायी है। इस चयन के लिए, और इस निर्णय के लिए मैंने बैंक के अधिकारियों की मन ही मन सराहना की थी।
आज एक समाचार पढक़र बैंक वाली यह घटना अचानक याद आ गयी। समाचार के अनुसार उच्चतम न्यायालय में एक मामला चल रहा है। अदालत से यह अपेक्षा की गयी है कि वह देश के केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना पर तत्काल प्रतिबंध लगाये। प्रार्थी की शिकायत यह है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक प्रार्थना संविधान के प्रतिकूल है। प्रार्थी का कहना है कि यह प्रार्थना ‘हिंदू धर्म पर आधारित’ है, इसलिए इसे सरकारी स्कूल में नहीं गाया जाना चाहिए। अदालत ने मामला पांच जजों की सांविधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। अब इस पीठ के समक्ष होने वाली सुनवाई के बाद ही यह निर्णय हो पायेगा कि केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना संविधान की धाराओं के अनुकूल है अथवा नहीं। लेकिन यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि आखिर इस प्रार्थना में ऐसा क्या है जिस पर आपत्ति की जा रही है। आपत्ति दुहरी है। पहली तो यह कि ‘अल्पसंख्यकों और निरीश्वरवादियों को उनके विश्वासों के प्रतिकूल आचरण के लिए बाध्य किया जा रहा है, और दूसरी आपत्ति यह है कि प्रार्थना में संस्कृत के वाक्य हैं जो कि एक धर्म-विशेष से संबंधित भाषा है।’
जहां तक पहली आपत्ति का सवाल है, न्यायालय इसके बारे में निर्णय करेगा कि इस प्रार्थना का गाया जाना संविधान-विरोधी है अथवा नहीं, लेकिन धर्म-विशेष की भाषा वाली दूसरी आपत्ति पर देश के सामान्य नागरिक को भी गौर करना चाहिए। क्या भाषा भी किसी धर्म-विशेष की होती है?
केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना में संस्कृत की कुछ उक्तियां हैं— ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।’ संस्कृत के इन शब्दों का सीधा-सा अर्थ है, ‘मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाओ, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ। मृत्यु से जीवन की ओर ले जाओ। यह सही है कि ये तीन पंक्तियां उपनिषदों से ली गयी हैं, लेकिन इन पंक्तियों का उपनिषदों से लिया जाना, उपनिषदों का संबंध हिंदू धर्म से होना और संस्कृत में लिखा जाना, इन्हें धर्म-विशेष तक सीमित कैसे कर देता है? किसी भी धर्म का भाषा से क्या लेना-देना?
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। भाषा के द्वारा हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरों की बात भाषा के माध्यम से ही हम तक पहुंचती है। यह भाषा बोली हुई भी हो सकती है और संकेतों वाली भी। मान लो ‘असतो मा सद्गमय’ वाली बात बोलकर नहीं, संकेतों से कही जाये तो? तब भी क्या वह ‘मौन-भाषा’ धर्म-विशेष से जुड़ी रहेगी? यह सही है कि हिंदू धर्म के लगभग सभी प्राचीन ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, लेकिन हज़ारों वर्ष पहले लिखे गये वेद या उपनिषद् धार्मिक ग्रंथ मात्र तो नहीं हैं। उस ज़माने में संस्कृत बोलने वाले हर विषय की बात इसी भाषा में ही तो करते होंगे, फिर यह सिर्फ हिंदुओं की भाषा कैसी हो गयी? संस्कृत में लिखा गया विज्ञान, भूगोल, इतिहास या अर्थशास्त्र सिर्फ हिंदुओं की विरासत कैसे हो सकता है? किसी भी भाषा पर समूची मानव जाति का अधिकार है। क्योंकि बाइबिल अंग्रेज़ी में लिखी गयी है, इसका यह अर्थ तो नहीं कि अंग्रेज़ी ईसाइयों की भाषा है, या फिर अरबी भाषा सिर्फ मुसलमानों की या गुरुमुखी मात्र सिखों की भाषा।
यह पहली बार नहीं है जब हमारे देश में किसी भाषा को धर्म के साथ जोड़ा जा रहा है। पहले भी हम उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना-बता कर धर्मांधता का परिचय दे चुके हैं। उर्दू का जन्म भारत में हुआ। आम बोल-चाल से लेकर साहित्य लेखन तक उर्दू का उपयोग होता रहा और उर्दू का प्रयोग करने वाले वे सब मुसलमान नहीं थे। उर्दू के महान लेखकों में फिराक गोरखपुरी और प्रेमचंद की भी गणना होती है। हिंदी की तरह उर्दू भी एक हिंदुस्तानी भाषा है, उर्दू के लगभग दो-तिहाई शब्दों का मूल संस्कृत और प्राकृत में मिलता है। उर्दू की नब्बे प्रतिशत से अधिक क्रियाएं मूलत: संस्कृत और प्राकृत से ही ली गयी हैं। फिर उर्दू मुसलमानों की भाषा कैसे हो गयी? भाषाओं को धर्म के साथ जोडऩे का अर्थ उस विविधता को अपमानित करना है जो भारतीय समाज की एक ताकत है। उर्दू को मुसलमानों की या संस्कृत अथवा हिंदी को हिंदुओं की भाषा बनाकर हम अपने समाज को, भारतीय समाज को बांटने का काम ही कर रहे हैं।
धर्मग्रंथों की भाषा चाहे कोई भी हो, मूलत: धर्म-ग्रंथ पूरी मनुष्यता के होते हैं। धर्म-ग्रंथों का काम आदर्श जीवन की राह बताना है। भाषा तो माध्यम है इसे बताने का। असतो मा सद्गमय का संदेश चाहे किसी भी भाषा में दिया जाये, उसका उद्देश्य मानव-समाज को बेहतर बनाना है। अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने की लालसा एक वैश्विक सत्य है; ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है, का संदेश हर मनुष्य के लिए है। सब ईश्वर की संतान हैं या सब खुदा के बंदे हैं, का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है। ईश्वर को हिंदू या खुदा को मुसलमान या फिर गॉड को ईसाई बताकर हम अपने अज्ञान और अपनी मूढ़ता का ही परिचय देते हैं। यही बात भाषा को हिंदू या मुसलमान या ईसाई बताने पर भी लागू होती है। धर्म के आधार पर भाषाओं का बंटवारा उतना ही ग़लत है, जितना भाषा के आधार पर किसी का धर्म निर्धारित करना।
मुंबई के उस बैंक में जहां रोज़ सुबह प्रार्थना होती है, हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, सिख आदि सब मिलकर ‘दाता’ से शक्ति मांगते हैं। इस दाता को ईश्वर कह लें या खुदा, इससे क्या फर्क पड़ता है? उद्देश्य तो किसी शक्ति से उसका वह हिस्सा ही मांगना है, जो हमारे मन के विश्वास को कमज़ोर न होने दे। इस विश्वास में यह विश्वास भी शामिल हैं कि हम किसी भी भाषा में प्रार्थना करें, ‘उस’ तक पहुंच जायेगी। हमें यह बात भी समझनी होगी कि ऐसी कोई शक्ति यदि है तो वह हिंदू प्रार्थना और मुसलमान प्रार्थना में, या फिर हिंदू भाषा और मुसलमान भाषा में अंतर नहीं करती।
मेरे स्कूल में जो प्रार्थना बोली जाती थी, उसमें ‘आनंददाता प्रभु’ से ‘ज्ञान’ मांगा गया था; आज केंद्रीय विद्यालयों में भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के माध्यम से ज्ञान की ज्योति की आकांक्षा ही की जा रही है। इससे हमारे संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन होता है अथवा नहीं, लेकिन किसी भाषा को धर्म-विशेष से जोडक़र हम संविधान की मूल भावनाओं का अपमान अवश्य कर रहे हैं। गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में हमेशा ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ का संदेश देते थे। ईश्वर को संस्कृत और अल्ला को अरबी से जोडक़र हम क्या संदेश देना चाहते हैं?

 

कैसे मिटे गरीबी
Posted Date : 31-Jan-2019 11:39:16 am

कैसे मिटे गरीबी


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो देश के सभी गरीबों को न्यूनतम आमदनी की गारंटी दी जाएगी। कांग्रेस के लोगों का कहना है कि हर गरीब व्यक्ति को हर महीने 1500 से 1800 रुपये सीधे बैंक खाते में दिए जा सकते हैं।
इस तरह पार्टी ने अपना चुनावी अजेंडा साफ कर दिया है। गरीबों और किसानों के सवाल वह लोकसभा चुनाव में उठाएगी। ऐसे सवाल कांग्रेस पहले भी उठा चुकी है। राजनीति में इंदिरा गांधी की धमक ही गरीबी हटाओ के नारे से बनी थी। लेकिन गरीबों को सीधे पैसे बांटने की बात चुनाव में पहली बार उठी है। पिछले कुछ चुनावों में, खासकर विधानसभा चुनावों में एक रुपये किलो चावल से लेकर मंगलसूत्र, मिक्सी, रेडियो, कंप्यूटर, लैपटॉप जैसी चीजें देने के वादे विविध पार्टियां करती रही हैं। कहीं-कहीं इन पर अमल भी हुआ है, लेकिन इस मिजाज के लोकलुभावन वादे लोकसभा चुनाव में शायद इस बार ही देखने को मिलें। कांग्रेस के वादे की काट में बीजेपी भी अपना पिटारा खोल सकती है। कहा जा रहा है, सरकार बजट में गरीबों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम का ऐलान कर सकती है। किसानों को शून्य ब्याज दर पर कर्ज या प्रति एकड़ प्रति फसल के हिसाब से तयशुदा रकम दी जा सकती है। 
भुखमरी की समस्या भारत में एक बड़ी आबादी के सामने आज भी बनी हुई है लिहाजा गरीब समर्थक योजनाओं की जरूरत तो रहेगी। उनके हाथ सीधे कुछ पैसे आते हैं तो इससे उन्हें कुछ राहत जरूर मिलेगी। लेकिन इससे उनका जीवन नहीं बदलने वाला और गरीबी हरगिज नहीं मिटने वाली। अरबपतियों की सबसे तेज बढ़ती संख्या वाले देश भारत में भुखमरी की समस्या का मौजूद होना यहां की नीतिगत प्राथमिकताओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। अब तक की सभी सरकारें गरीबों को किसी तरह जिंदा रखने की नीति पर ही काम करती रही हैं। उनकी हालत में आमूल बदलाव करना और उन्हें विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाना सरकारी चिंता से बाहर रहा है। 
नब्बे के दशक से शुरू हुई नई अर्थनीति ने अर्थव्यवस्था को गति दी है और देश में खुशहाली का स्तर ऊंचा किया है, लेकिन इसके साथ जुड़ा आर्थिक असमानता का रोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस अर्थनीति के तहत अमीरी और गरीबी का फासला इतना बढ़ गया है, जिसकी कुछ समय पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में भारत में जितनी संपत्ति पैदा हुई, उसका 73 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 फीसदी धनाढ्य लोगों के हाथों में चला गया, जबकि नीचे के 67 करोड़ भारतीयों को इस संपत्ति के सिर्फ एक फीसदी हिस्से पर संतोष करना पड़ा है। इस आर्थिक मॉडल को नकारने की उम्मीद राजनेताओं की मौजूदा पीढ़ी से नहीं की जा सकती, लेकिन अगर वे टीबी का इलाज माथे पर बाम लगाकर ही करने पर अड़े हैं तो उन्हें टोका जरूर जाना चाहिए।
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