संपादकीय

अटल स्मृतियों का दस्तावेज
Posted Date : 21-Jan-2019 12:57:43 pm

अटल स्मृतियों का दस्तावेज

अरुण नैथानी
यूं तो अटल बिहारी वाजपेयी का संपूर्ण जीवन — राजनीतिक कौशल, प्रशासकीय क्षमता, वग्मिता, साहित्य सृजन सदा सम्मोहित करता रहा है। वहीं लंबे सक्रिय राजनीतिक जीवन के बावजूद उन्होंने अपने संवेदनशील रचनाकार को जीवित रखा।
भारतीय राजनीति के अजातशत्रु अटल बिहारी वाजपेयी पर केंद्रित साहित्य अमृत का हालिया अंक पठनीय-संग्रहणीय बन पड़ा है। समाज के हर वर्ग के लोगों ने अपने अनुभवों से अटल जी का भावपूर्ण स्मरण किया है। अंक में प्रतिस्मृति स्तंभ में मकर संक्रांति 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लिखा चौदह पेज का लेख शामिल है, जो उनकी यात्रा और राजनीति के महत्वपूर्ण पड़ावों पर गंभीर दृष्टि को रेखांकित करता है। वहीं ‘विदेश नीति मे अंतर्राष्ट्रीयता का अतिरेक’ शीर्षक लेख में 2 सितंबर 1957 को विदेश नीति पर दिये गए भाषण के प्रेरक अंश शामिल हैं। जनसंघ को सींचने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय के रहस्यमयी अवसान पर ‘मेरे लिये तो रोशनी बुझ गई’ शीर्षक से मर्मस्पर्शी श्रद्धांजलि प्रकाशित है। ‘युद्ध में जीते,संधि में हारे ‘शीर्षक से संसदीय जीवन का पहला भाषण एक याद को संजोने जैसा है। विदेशमंत्री के रूप में यूएनओ की जिनेवा महासभा में 1978 को हिंदी में दिये गये बहुचर्चित भाषण के अंश भी प्रकाशित किये गये हैं। इसके अलावा 1996 में प्रधानमंत्री के रूप में दिये गये पहले भाषण, वर्ष 1998 में लालकिले से राष्ट्र के नाम पहले संबोधन के अंश प्रकाशित है। अंक में उनकी साहित्यिक रचनाएं एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा की पुष्टि करती हैं।
समीक्ष्य अंक में अटलजी के जीवन के हृदयस्पर्शी संस्मरणों तथा उनके साथ बिताये पलों का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडु, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, अमित शाह, आदि राजनेताओं व लेखकों ने उनका भावपूर्ण स्मरण किया है।
इस अंक से गुजरते हुए पाते हैं हर राजनीतिक दल, संगठन, साहित्य, पत्रकारिता, संस्कृति से जुड़े तमाम लोगों ने एक अटल सत्य को शब्द दिये हैं। चित्रों व उन पर केंद्रित चित्रांकनों के जरिये उनके व्यक्तित्व को उभारने की कोशिश हुई है।

 

आरक्षण की मरीचिका
Posted Date : 19-Jan-2019 1:00:19 pm

आरक्षण की मरीचिका

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिये दस फीसदी आरक्षण बिल के कानून बन जाने के बाद अब केंद्र सरकार इसे उच्च शिक्षा व निजी शिक्षण संस्थानों में जुलाई तक लागू करने पर आमादा है। चुनावी वेला में इसके निहितार्थ समझना कठिन नहीं हैं। मंगलवार को यूजीसी, एआईसीटीई व मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रतिनिधियों के बीच हुई बैठक में सभी विश्वविद्यालयों को सूचना देने तथा इसे प्रॉस्पेक्टस में शामिल करने की बात कही गई है। साथ ही दस फीसदी आरक्षण से अन्य वर्गों के लिये सीटें कम न हों, इसके लिये 25 फीसदी सीटें बढ़ाने की बात कही गई है। राजनीतिक रूप से सरकार के लिये यह निर्णय लाभदायक हो सकता है मगर व्यवहार में इसका क्रियान्यवन संभव नजर नहीं आता। देश के चालीस हजार कॉलेजों और 900 विश्वविद्यालयों में इसे लागू करने की बात कही जा रही है। सबसे बड़ा पेच निजी संस्थानों में आरक्षण लागू करवाना है, जिनमें आरक्षण के मुद्दे पर पहले ही कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। जिसको लेकर असमंजस की स्थिति बनी रहेगी। पहले ही 2009 में पारित शिक्षा के अधिकार कानून के तहत आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को पच्चीस फीसदी सीटें आरक्षित करने को लेकर निजी स्कूलों के प्रबंधन से खींचतान चल रही है।
एक अनुमान के अनुसार यदि केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी, आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों तथा समस्त शैक्षिक संस्थानों में दस फीसदी आरक्षण का क्रियान्वयन होता है तो तकरीबन दस लाख सीटें बढ़ाने की आवश्यकता होगी। शिक्षण संस्थानों की मौजूदा स्थिति का अवलोकन किया जाये तो वहां पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। भवन, जरूरी उपकरणों के अलावा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद रिक्त हैं। सरकार को इतना बड़ा फैसला लेने से पहले निजी शिक्षण संस्थानों को विश्वास में लेकर व्यावहारिक दिक्कतों को जानना चाहिएथा। प्रबंधकों ने बड़ी पूंजी लगाकर लाभ के मकसद से संस्थान खड़े किये हैं। बीते साल ही अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने कम होते दाखिलों के चलते आठ सौ इंजीनियरिंग कॉलेजों को बंद करने का फैसला लिया था। बाजार में रोजगार के अभाव के चलते छात्र इंजीनियरिंग में दाखिला लेने से कतरा रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के अनुरूप योग्यता न होने के कारण भी डिग्रीधारी बेरोजगार घूम रहे हैं। ऐसे में बुनियादी सुविधाओं के अभाव में आरक्षण की सीटें बढ़ाने से क्या कोई लक्ष्य हासिल हो पायेगा आवश्यकता इस बात की भी है कि पहले शिक्षण संस्थानों में अध्यापन के अनुकूल संसाधन जुटाये जायें और पर्याप्त प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्तियां की जायें, तभी आरक्षण के चलते प्रवेश लेने वाले कमजोर वर्ग के छात्रों का भला हो पायेगा।

 

थाली बदलने का वक्त
Posted Date : 19-Jan-2019 1:00:06 pm

थाली बदलने का वक्त

अगर स्वस्थ रहना है और आनेवाली पीढिय़ों का भी ध्यान रखना है तो हमें अपना खानपान जल्दी बदलना होगा। दुनिया के कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों की साझा राय है कि सन 2050 तक दस अरब के आंकड़े को पार कर जानेवाली विश्व जनसंख्या का पेट भरने के लिए जरूरी है कि हम अभी से अपने खाने की थाली में तब्दीली करें। ईट-लांसेट कमिशन के तहत संसार के 37 बड़े आहार विज्ञानियों ने मिलकर ‘द प्लैनेट्री हेल्थ डायट’ तैयार किया है। उनका कहना है कि मानव जाति अगर अपने खाने में रेड मीट और शुगर की मात्रा आधी करके उसकी जगह फल और सब्जियां बढ़ा दे तो न सिर्फ कई बीमारियों से बचाव होगा बल्कि लोगों की आयु भी बढ़ेगी।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यूरोप और नॉर्थ अमेरिका के लोग रेड मीट बहुत ज्यादा खाते हैं। उन्हें इसमें कमी करने की जरूरत है। पूर्वी एशिया में मछली खाने का चलन बहुत ज्यादा है, जिसमें कटौती की आवश्यकता है। अफ्रीका के लोगों को स्टार्च वाली सब्जियां (आलू, शकरकंद) कम खानी चाहिए। इस तरह अगर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद लोग अपने भोजन में अलग-अलग तरह के बदलाव करें तो एक परफेक्ट डायट तैयार होगी जो हार्ट अटैक, स्ट्रोक और कैंसर जैसी कई बीमारियों से बचाएगी। इससे हर साल करीब 1 करोड़ लोगों की समय से पहले होने वाली मौत को रोका जा सकेगा। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार इस डायट प्लान से धरती और पर्यावरण की रक्षा भी हो सकेगी। इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटेगा, जो पर्यावरण पर छाई बीमारी की सबसे बड़ी वजह है। इससे धरती पर अभी मौजूद कई जीव जातियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। 
कुछ लोगों को लग सकता है कि ये दूर की समस्याएं हैं। लेकिन भारत के अपने समुद्री इलाकों में भी बड़े मछलीमार जहाज कई जल जीवों और वनस्पतियों के साथ-साथ मछुआरों की भी बर्बादी का सबब बन रहे हैं। इसके विरोध में चले उनके आंदोलन आज भी बेनतीजा हैं। जाहिर है, भोजन में मछलियां कम होंगी तो हमारे समुद्र तट ज्यादा खुशहाल रहेंगे। लेकिन सिर्फ डायट बदलने से बहुत ज्यादा फायदा तब तक नहीं होगा जब तक खाने की बर्बादी न रुके। 
हमारे खानपान का संबंध हमारे भूगोल के अलावा हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं से भी रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में बाजार ने इस पर गहरा असर डाला है। खाने का एक ग्लोबल बाजार तैयार हुआ है, जिसने इसे जरूरत के बजाय फैशन और स्टाइल जैसी चीज बना डाला है। भारत में जंक फूड इसीलिए इतनी तेजी से फैला है और महंगे मांसाहार के नाम पर ऐसे व्यंजन प्रचलित हो गए हैं, जो जीवन की अवमानना करते हैं और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं। इसे सोच-विचार का हिस्सा बनाए बगैर स्वस्थ डायट को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। वैज्ञानिकों की इस सलाह को ध्यान में रखकर सरकारें भी फूड सेक्टर को रेगुलेट कर सकती हैं, लेकिन सामाजिक जागरूकता इसकी पहली शर्त है।

 

थाली बदलने का वक्त
Posted Date : 19-Jan-2019 1:00:06 pm

थाली बदलने का वक्त

अगर स्वस्थ रहना है और आनेवाली पीढिय़ों का भी ध्यान रखना है तो हमें अपना खानपान जल्दी बदलना होगा। दुनिया के कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों की साझा राय है कि सन 2050 तक दस अरब के आंकड़े को पार कर जानेवाली विश्व जनसंख्या का पेट भरने के लिए जरूरी है कि हम अभी से अपने खाने की थाली में तब्दीली करें। ईट-लांसेट कमिशन के तहत संसार के 37 बड़े आहार विज्ञानियों ने मिलकर ‘द प्लैनेट्री हेल्थ डायट’ तैयार किया है। उनका कहना है कि मानव जाति अगर अपने खाने में रेड मीट और शुगर की मात्रा आधी करके उसकी जगह फल और सब्जियां बढ़ा दे तो न सिर्फ कई बीमारियों से बचाव होगा बल्कि लोगों की आयु भी बढ़ेगी।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यूरोप और नॉर्थ अमेरिका के लोग रेड मीट बहुत ज्यादा खाते हैं। उन्हें इसमें कमी करने की जरूरत है। पूर्वी एशिया में मछली खाने का चलन बहुत ज्यादा है, जिसमें कटौती की आवश्यकता है। अफ्रीका के लोगों को स्टार्च वाली सब्जियां (आलू, शकरकंद) कम खानी चाहिए। इस तरह अगर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद लोग अपने भोजन में अलग-अलग तरह के बदलाव करें तो एक परफेक्ट डायट तैयार होगी जो हार्ट अटैक, स्ट्रोक और कैंसर जैसी कई बीमारियों से बचाएगी। इससे हर साल करीब 1 करोड़ लोगों की समय से पहले होने वाली मौत को रोका जा सकेगा। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार इस डायट प्लान से धरती और पर्यावरण की रक्षा भी हो सकेगी। इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटेगा, जो पर्यावरण पर छाई बीमारी की सबसे बड़ी वजह है। इससे धरती पर अभी मौजूद कई जीव जातियों को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। 
कुछ लोगों को लग सकता है कि ये दूर की समस्याएं हैं। लेकिन भारत के अपने समुद्री इलाकों में भी बड़े मछलीमार जहाज कई जल जीवों और वनस्पतियों के साथ-साथ मछुआरों की भी बर्बादी का सबब बन रहे हैं। इसके विरोध में चले उनके आंदोलन आज भी बेनतीजा हैं। जाहिर है, भोजन में मछलियां कम होंगी तो हमारे समुद्र तट ज्यादा खुशहाल रहेंगे। लेकिन सिर्फ डायट बदलने से बहुत ज्यादा फायदा तब तक नहीं होगा जब तक खाने की बर्बादी न रुके। 
हमारे खानपान का संबंध हमारे भूगोल के अलावा हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं से भी रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में बाजार ने इस पर गहरा असर डाला है। खाने का एक ग्लोबल बाजार तैयार हुआ है, जिसने इसे जरूरत के बजाय फैशन और स्टाइल जैसी चीज बना डाला है। भारत में जंक फूड इसीलिए इतनी तेजी से फैला है और महंगे मांसाहार के नाम पर ऐसे व्यंजन प्रचलित हो गए हैं, जो जीवन की अवमानना करते हैं और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं। इसे सोच-विचार का हिस्सा बनाए बगैर स्वस्थ डायट को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। वैज्ञानिकों की इस सलाह को ध्यान में रखकर सरकारें भी फूड सेक्टर को रेगुलेट कर सकती हैं, लेकिन सामाजिक जागरूकता इसकी पहली शर्त है।

 

कृषि सुधार से हासिल करें दीर्घकालीन लक्ष्य
Posted Date : 15-Jan-2019 1:05:07 pm

कृषि सुधार से हासिल करें दीर्घकालीन लक्ष्य

देविंदर शर्मा
यह लगातार चौथा साल है जब आगरा जिले के एक किसान प्रदीप शर्मा को आलू की फसल में घाटा उठाना पड़ा है। इस साल उन्होंने 10 एकड़ रकबे में बिजाई की थी और जब मंडी में 19,000 किलो तैयार आलू की जो कीमत लगी, उसमें इस पूरी फसल पर महज 490 रुपये का फायदा होते पाया। क्षुब्ध प्रदीप ने यह ‘भारी मुनाफा’ प्रधानमंत्री को यह सोचकर भेज दिया कि शायद इस कदम से ही सही, उन्हें ‘मुझ जैसों की समस्या’ का पता चल जाए ! इस प्रसंग के कुछ दिन बाद मध्य प्रदेश की मंदसौर मंडी में 27,000 किलो प्याज केवल 10,000 रुपये में बेचने के बाद अवसाद में आए किसान भूरेलाल मालवीय की सदमे से मौत हो गई।
किसानों की इस तरह की त्रासदियां पिछले कई सालों से मीडिया में सुर्खियां बनती आई हैं। साल-दर-साल होते घाटे के कारण किसान एक तरह से उधार पर जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं। यह कर्ज वे आधिकारिक या गैर आधिकारिक स्रोतों से उठा रहे हैं। सिंतबर 2016 तक कृषि संबंधी बकाये कर्ज की कुल मात्रा 12.60 लाख करोड़ रुपये थी, अब इसका मिलान यदि देश के 17 राज्यों में पिछले लगभग 50 सालों में किसानों की वार्षिक औसत आय, जो लगभग 20,000 रुपये बैठती है, से किया जाए तो घाटे की मार साफ दिखाई देती है।
कृषक संकट पर बहस मुख्यत: जिन बातों पर है, उसमें अव्वल यह है कि क्या कृषि ऋण माफी किसानों की समस्या का हल है और दूसरी कि राज्य सरकारें इस मद में पडऩे वाले बोझ को कैसे सहेंगी? मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्रियों ने अपना ओहदा संभालते ही जिस तेज गति से कृषि ऋण माफ करने की घोषणा की है, उससे सवाल उठने लगे हैं कि राजनीतिक रूप से फायदा लेने हेतु किए गए इस किस्म के फैसलों की ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ क्या है।
सबसे पहले तेलंगाना सरकार ने ‘रायतु-बंधु योजना’ शुरू की है, जिसमें किसानों को प्रति एकड़ 8,000 रुपये सालाना सीधी आय (बाद में बढ़ाकर 10,000 रुपये कर दिया गया है) देने का प्रावधान है। इस कदम ने अन्य राज्य सरकारों को भी ऐसी योजनाएं अपने यहां हू-ब-हू या कुछ सुधार वाले प्रारूप में लागू करने को उत्प्रेरित किया है। इस कड़ी में सबसे पहले कर्नाटक की निवर्तमान कांग्रेस सरकार ने सिंचाई-विहीन खेत मालिक कृषकों को प्रति एकड़ 5,000 रुपये अनुदान आय देने की घोषणा की थी। हिन्दी भाषी राज्यों में हाल में हुए विधानसभा चुनाव में राजनीतिक हार झेलने वाली भाजपा ने कांग्रेस के डर से ओडिशा के आगामी विधानसभा चुनाव में किसानों को लुभाने के लिए वादा किया है कि सत्ता मिलने पर उन्हें आर्थिक पैकेज दिया जाएगा। इसके तहत कर्ज माफी की बजाय पहले तीन सालों में 10,800 करोड़ रुपये वाली ‘कालिया’ नामक ‘कृषक जीवनयापन एवं आय सुधार योजना’ उलीकी गई है और इसमें भूमि मालिक किसान, किराए पर खेत लेकर कृषि करने वाले, भूमिविहीन खेती-मजदूर एवं अन्य संबंधित कृषि पेशेवर भी शामिल हैं। इससे 57 लाख परिवारों को फायदा होना बताया गया है।
इसके तुरंत बाद झारखंड ने भी अपने 22.76 लाख छोटे और हाशिए पर आते किसानों के लिए 2,250 करोड़ रुपये वाली योजना लागू कर दी, जिसके तहत 5,000 रुपये प्रति एकड़ सालाना आय यकीनी बनाई गई है, इसके लिए लाभ की अधिकतम सीमा 5 एकड़ रखी गई है। अब हरियाणा भी अपने यहां किसानों को पेंशन स्कीम देने पर विचार कर रहा है, वहीं बंगाल ने ‘कृषक बंधु योजना’ उलीकी है, जिसके अंतर्गत कृषक को 10,000 रुपये प्रति एकड़ सालाना आय देने के अलावा 18 से 60 साल तक के हर किसान का 2 लाख रुपये मूल्य का बीमा करवाना तय किया है, जिसकी किश्तें राज्य सरकार भरेगी। इसमें हर्जाना प्राप्त करने की वजह कोई भी हो सकती है।
छत्तीसगढ़ सरकार 2 लाख तक के कृषि ऋण को माफ करने के लिए पहले चरण में 1,248 करोड़ रुपये अब तक 3.5 लाख किसानों के खाते में हस्तांतरित कर चुकी है। पंजाब में भी धीमी गति के बावजूद सहकारी एवं व्यावसायिक बैंकों से कर्ज लेने वाले 4.14 लाख छोटे और हाशिए पर आते किसानों, जो कर्ज अदायगी करने में असमर्थ थे, का 3,500 करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया है। इस तरह पूरे देश में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु सरकारों ने कुल मिलाकर कृषि ऋणों में 2.3 लाख करोड़ रुपये की माफी घोषित की है। इससे 3.4 करोड़ किसान परिवार लाभान्वित होंगे।
वहीं कॉर्पोरेट जगत का रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 के बीच 4 साल के दौरान 3.16 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया गया है, जबकि बकाया कर्ज की उगाही केवल 32,693 करोड़ रुपये हुई है। 30 सितम्बर 2018 तक की बात करें तो सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के अलावा इन कर्जदारों की संख्या महज 528 थी, जिन पर कुल मिलाकर 6.28 लाख करोड़ का ऋण बकाया है और इनके खाते में समयबद्ध किश्तों की अदायगी अर्से से बंद है, इनमें भी 1000 करोड़ रुपये से ऊपर के कर्जदारों की संख्या मात्र 95 है। जहां इन मु_ीभर बड़े कॉर्पोरेट्स का ऋण माफ करते वक्त ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ पर कोई सवाल नहीं खड़े किए जा रहे वहीं किसानों के मामले में तमाम गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई हैं।
इस दौरान कर्ज की किश्तें समय पर अदा न करने वाले (एनपीए) कुल खाताधारियों की संख्या में 11.2 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है और यह मद 2017-18 में 10.93 लाख करोड़ तक पहुंच गई है जबकि बहुप्रचारित ‘दिवालिया एवं कुर्की संस्थान’ और ‘सरफेसी अधिनियम’ के तहत उगाही केवल 40,400 करोड़ रुपयों की हुई है। यह बढ़ोतरी पिछले एक दशक से उद्योग जगत को दी गई 18.60 लाख करोड़ की आर्थिक सहायता के बावजूद हुई है। यह वर्ष 2008-09 की बात है जब वैश्विक आर्थिक मंदी से उत्पन्न हुई स्थिति से निपटने हेतु सरकार ने उद्योगों-कॉर्पोरेटों को मदद हेतु 1.86 लाख करोड़ रुपये का प्रोत्साहन पैकेज देना शुरू किया था, जो आज तक जारी है।
संकेत हैं कि केंद्र सरकार किसानों की ऋण माफी के लिए कुछ राज्य सरकारों द्वारा अपनाए गए पैमानों से कुछ कम मात्रा वाली मदद यानी 4,000 रुपये सालाना सीधी आय देना उलीक रही है। अनुमान के मुताबिक राजकोष पर इसका बोझ 2 लाख करोड़ रुपये का होगा। वहीं तथ्य यह है कि 4,000 रुपये सालाना का मतलब है प्रति माह 340 रुपये से कम की राहत। अगरचे 340 रुपये प्रति माह त्रस्त हुए बैठे किसान को माकूल आर्थिक सहायता के लिए काफी है तो यह दर्शाता है कि किस हद तक देश में वर्गों के बीच आर्थिक असमानता और तंगी व्याप्त है।
दूसरी ओर किसानों को सीधी आय मुहैया करवाना समस्या का स्थायी हल नहीं है। कृषि क्षेत्र को आज तत्काल राहत के अलावा चुस्त सुधारों की सख्त जरूरत है। अगर सरकार छोटे और बड़े उद्योग धंधे स्थापित करने में आसानी बनाने हेतु सरकार 7,000 कदम उठा सकती है तो कोई वजह नहीं कि इसी तरह के उपाय कृषि को आसान बनाने के लिए न किए जाएं। आखिरकार इस व्यवसाय में लगे लोगों की संख्या देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत है। ऐसा किए जाने पर ही ‘सबका साथज्सबका विकास’ वाले नारे में निहित आदर्श आर्थिक तरक्की फलीभूत हो पाएगी।

 

परायी हवा में उडऩा नहीं अच्छा
Posted Date : 13-Jan-2019 12:08:53 pm

परायी हवा में उडऩा नहीं अच्छा

सहीराम
रवायतों के खिलाफ जाने और बोलने का जिम्मा कायदे से विद्रोहीजनों का होता है जो अंतत: सूली पर लटकाए जाते हैं। बाद में बेशक कवि और शायर उनके गीत गाते रहते हैं। हालांकि प्रेमीजन भी ऐसे जोखिम अक्सर उठा लेते हैं, लेकिन अंतत: उनकी लाशें भी यहां-वहां पायी जाती हैं। उनके गीत कोई नहीं गाता।
खैर, नेताओं का यह काम नहीं है। उनका काम है वे वैसे ही अपने नेता के गुण गाते रहें, जैसे कि भक्तजन प्रभु के गुण गाते रहते हैं। लोगों का कहना है कि ऐसे भक्त अब होने लगे हैं। हालांकि विद्रोह तो राजनीति में भी होता है,पर वास्तव में और कम से कम आज की राजनीति में तो वह विद्रोह का प्रहसन ही ज्यादा होता है। राजनीतिक पार्टियों में पहले असंतुष्ट भी हुआ करते थे। लेकिन जब से भाजपा का राज आया है, यह प्रजाति लुप्तप्राय है। क्योंकि जो असंतुष्ट होते हैं, वे अपने को पूर्णरूपेण संतुष्ट दिखाते रहते हैं और मौका लगते ही दूसरे पाले में छलांग लगा देते हैं। पहले ऐसे छलांग लगाने वाले अक्सर भाजपा के पाले में आकर गिरते थे। लेकिन इधर भाजपा की बजाय दूसरे पाले में ज्यादा गिर रहे हैं। कम से कम असंतुष्ट दल तो उधर ही गिर रहे हैं। पर कुल मिलाकर रवायतों के खिलाफ जाने का काम नेताओं का नहीं है।
फिर भी गडकरीजी यह जोखिम ले रहे हैं, पता नहीं क्यों। जैसे इधर उन्होंने इंदिराजी की तारीफ कर दी। मोदीजी के रहते गांधी-नेहरू परिवार के किसी सदस्य की कोई यूं तारीफ करे, यह तो गुनाह है न। उन्होंने अगर विजय माल्या की तारीफ कर दी थी तो समझ में आता है क्योंकि आखिर तो राहुलजी उसे मोदी जी के दोस्तों में शुमार करते हैं। पर इंदिराजी की तारीफ? इससे पहले उन्होंने तीन राज्यों में भाजपा की हार की जिम्मेदारी भी मोदीजी और अमित शाह पर डालने की कोशिश की थी। उन्होंने तो पार्टी के विधायकों तथा सांसदों के निकम्मेपन तक के लिए पार्टी अध्यक्ष को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की। फिर एक दिन अचानक उन्होंने केजरीवालजी और आप वालों की भी तारीफ कर दी। जबकि राहुल जी की तरह ही केजरीवाल जी भी भाजपा को फूटी आंख नहीं सुहाते, ऐसा लोगों का आरोप है।
ऐसा लगता है भाजपा नेताओं के अलावा आजकल वे सबकी तारीफ कर रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि पार्टी में यह रवायत नहीं है भाई। कहीं उन्होंने बगावत का झंडा तो नहीं उठा लिया है? लोग बताते हैं कि वे संघ के काफी करीब हैं। उनके चहेते तो उन्हें मोदी जी की जगह प्रधानमंत्री तक बनाने पर आमादा हैं। लेकिन परायी हवा में उडऩ़ा कोई अच्छी बात थोड़े ही है। कुछ तो खौफ खाइए!