संपादकीय

25-Apr-2019 1:51:08 pm
Posted Date

आयोग की बंदिशों को दरकिनार कर प्रचार

रेशू वर्मा

लोकतंत्र का कुम्भ चल रहा है और हर कोई इसमें अपनी प्रार्थना के साथ डुबकी लगा रहा है। प्रचार के रोजाना नए तरीके आ रहे हैं और व्यापार के भी। और इन सबके बीच चुनाव आयोग घर का मुखिया बनकर आगे आता है, जिसकी मंजूरी के बिना कोई काम नहीं हो सकता। चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म के प्रदर्शन पर चुनाव ख़त्म होने तक रोक लगा दी है। आयोग के अनुसार चुनाव के दौरान फिल्म का प्रदर्शन आचार संहिता का उल्लंघन माना जायेगा।

चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद फिल्म का प्रदर्शन तो रुक गया लेकिन यह हस्तक्षेप अपने साथ ढेर सारे सवाल और मुद्दे छोड़ गया। सबसे पहला मुद्दा तो यह कि फिल्म को जितना प्रचार आम दिनों में मिलता, उससे ज्यादा उसे प्रदर्शित होने या न होने के विवाद के बाद मिल गया। जिस भी पार्टी को जितना नफा-नुकसान होना था, वो भी हो ही लिया। लेकिन इस सवाल से भी बड़ा सवाल ये है कि देश के गिने चुने सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने से किसी फिल्म को जितने दर्शक मिलते, उससे कहीं ज्यादा आज के समय में यूट्यूब और अन्य वीडियो प्लेटफार्म पर उपलब्ध हैं। यूट्यूब पर चल रहे चुनाव प्रचार का गहराई से विश्लेषण करें तो साफ होता है कि यूट्यूब पर बहुत कुछ ऐसा है जो चुनाव आयोग के नियमों से मुक्त है।

हाल में आये आंकड़ों के मुताबिक भारत यूट्यूब प्रयोक्ताओं के मामले में अमेरिका से आगे निकल गया है। भारत में करीब 26 करोड़ पचास लाख सक्रिय मासिक प्रयोक्ता हैं यूट्यूब के। 2020 तक यूट्यूब के भारतीय प्रयोक्ताओं की तादाद 50 करोड़ के पार जा सकती है। गौर करने की बात यह है कि इस बढ़ोतरी में से अधिकांश बढ़ोतरी छोटे शहरों से आयी है।

अब भारत में दस लाख से ज्यादा सब्सक्राइबरों वाले चैनलों की तादाद 1200 है। पांच साल पहले यह संख्या सिर्फ 15 थी। और भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यूट्यूब पर देखे गये वीडियो में से 95 प्रतिशत क्षेत्रीय भाषाओं में हैं। इस आम चुनाव में भी यूट्यूब और इन्टरनेट के इस्तेमाल को बखूबी देखा जा सकता है। जहां एक तरफ मुख्य मीडिया में आकर अपना प्रचार करना, विज्ञापन देना या वीडियो दिखाना चुनाव आयोग की परिधि में आ सकता है लेकिन सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर पूरी आजादी के साथ दिखाया जा सकता है। इस समय सभी प्रमुख दल अपने प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं।

यूट्यूब पर कई फिल्में ऐसी लोड होती हैं, जिनका सीधा ताल्लुक किसी राजनीतिक दल से नहीं है पर उन्हें किसी राजनीतिक दल के समर्थक द्वारा बनाया गया है। उसका संदेश साफतौर पर पहुंच जाता है कि फिल्म क्या कहना चाहती है। नियम के तहत इस तरह के मैटर, गीत आदि को किसी पार्टी से सीधे तौर पर नहीं जोड़ा जा सकता पर उसका आशय वही है किसी एक पार्टी या व्यक्ति विशेष की वकालत करना। सुपरटोन डिजिटल का एक वीडियो है, जिसमें मैं भी चौकीदार के संदेश के साथ एक गायिका गीत गा रही है। इस गीत को 12 अप्रैल 2019 करीब छह बजे शाम तक नौ लाख से ज्यादा लोग देख चुके थे। यूट्यूब के जरिये यह लाखों लोगों तक पहुंच रहा है। यानी यह वह हर काम कर रहा है, जिस पर चुनाव आयोग अपनी तरफ से नियंत्रण रख़ना चाहता है, पर इस तरह के कई वीडियो लाखों की तादाद में देखे जा रहे हैं जो चुनाव आयोग की बंदिश या किसी भी बंदिश से मुक्त हैं।

यूट्यूब पर एक फिल्म है-मैं हूं चौकीदार। 12 अप्रैल 2019 को करीब छह बजे तक इस फिल्म को करीब 44 लाख व्यू मिल चुके थे। यानी माना जा सकता है कि करीब 44 लाख लोगों ने यह फिल्म देखी। फिल्म में इस तरह के चरित्र दिखाये गये हैं कि सब कुछ साफ समझा जा सकता है कि कौन केजरीवाल है और कौन मनमोहन सिंह। गंभीरता से देखें तो यह फिल्म एक हद तक चुनाव प्रचार भी करती है।

इस तरह की राजनीतिक मार्केटिंग में भाजपा सबसे आगे है, कांग्रेस उसके मुकाबले में कहीं नहीं है यूट्यूब पर। वामपंथी दलों का तो नामोनिशान तक नहीं है इस तरह की राजनीतिक मार्केटिंग के मैदान में। बहुत स्मार्ट तरीके से यूट्यूब के जरिये कुछ राजनीतिक दल अपना संदेश पहुंचा रहे हैं। यूट्यूब का बतौर माध्यम अभी गंभीर अध्ययन किया जाना बाकी है। यह अध्ययन हो तो साफ होगा कि तमाम नियमों से मुक्त राजनीतिक संदेश किस तरह से यूट्यूब के जरिये दिये गये जो किसी राजनीतिक दल के खाते में दर्ज न हुए पर जिनका पूरा फायदा किसी न किसी राजनीतिक दल ने उठाया।

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