संपादकीय

23-Apr-2019 1:59:58 pm
Posted Date

मौसम की तल्खी

पिछले दिनों आंधी-तूफान के साथ तेज बारिश व ओलों ने जहां गेहूं की तैयार-कटी फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया वहीं पचास से अधिक जानें भी गईं। अप्रैल के महीने में मई जैसे तूफान व बारिश मौसम के बदले मिजाज की ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि, यह मौसमी संकट पश्चिमी विक्षोभ के चलते पैदा हुआ, मगर हमें आने वाले समय में मौसम के मिजाज में लगातार आ रही तल्खी के निहितार्थों को गंभीरता से समझना होगा। तमाम वैज्ञानिक व मौसम संबंधी उन्नति के बावजूद ऐसी मौसमी प्रवृत्तियों को टाला तो नहीं जा सकता मगर जन-धन की हानि से कुछ बचाव तो किया ही जा सकता है। ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की समय रहते चेतावनी और कारगर राहत-बचाव से जन-धन की हानि को कम जरूर किया जा सकता है। दरअसल, धरती के लगातार बढ़ते तापमान के मूल में हमारे पर्यावरणीय विरोधी विकास व प्रदूषण की बड़ी भूमिका है, जिसे कम करने में विकसित देश जिम्मेदारी से बच रहे हैं और उसका बोझ विकासशील देशों पर डाल रहे हैं। दरअसल, विकासशील देश दोहरी मार झेल रहे हैं। एक तो उनकी खाद्य शृंखला इस बदलाव से बुरी तरह प्रभावित हो सकती है वहीं तापमान बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के नाम पर विकास को धीमा करने का दबाव है।

दरअसल, पिछले कुछ समय से मौसम के मिजाज में तेजी से आ रहे बदलाव को गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है। हाल के आंधी-तूफान और बारिश व ओलों से जहां गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचा है, वहीं आम व लीची की फसल भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऐसे में मौसम व कृषि विज्ञानियों को चाहिए कि मौसम में आ रहे दीर्घकालिक बदलावों का गंभीर अध्ययन करें। इसी के अनुरूप नये फसल चक्र को तैयार करने की जरूरत है ताकि तैयार फसल की तबाही से किसान आत्महत्या करने को मजबूर न हों। शोधों में यह बात शिद्दत से उभरकर सामने आई है कि एक ही क्षेत्र में मौसम अलग-अलग तरह से व्यवहार कर रहा है। कहीं बाढ़ है तो कहीं सूखा है। रेगिस्तानी इलाकों में भी बाढ़ की खबरें आने लगी हैं। ऐसे में किसानों को बदलते मौसम के अनुरूप ढालने के लिये जागरूक करने की जरूरत है। जरूरत इस बात की भी है कि ग्लोबल वार्मिंग को समय का सत्य मानते हुए इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता की सूची में शामिल किया जाये।

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