संपादकीय

23-Apr-2019 1:59:21 pm
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चौथाई सदी का फासला

मैनपुरी में 19 अप्रैल को समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह और बीएसपी सुप्रीमो मायावती का मंच पर आपसी सौहार्द प्रदर्शित करना मौजूदा चुनाव के लिहाज से ही नहीं, भारत की संसदीय राजनीति की दृष्टि से भी एक अहम घटना है। करीब ढाई दशक पहले बाबरी मस्जिद ध्वंस के कुछ ही समय बाद 1993 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी के पहले उभार को थाम लिया था। उस समय इन दोनों नेताओं के साथ आने को न केवल प्रदेश की सत्ता बल्कि सामाजिक वर्चस्व का पारंपरिक ढांचा बदलने की शुरुआत की तरह लिया गया था।

यह दक्षिण भारत की तरह उत्तर भारतीय राजनीति में भी दलितों-पिछड़ों का जोर बढऩे का ऐसा उपक्रम था जिसकी गूंज देशभर में महसूस की गई थी। हालांकि, दो साल के अंदर ही दोनों पार्टियों में असह्य कलह देखने को मिली और 1995 के कुख्यात गेस्टहाउस कांड के बाद मुलायम और मायावती जिस तल्खी के साथ एक-दूसरे से अलग हुए, उसकी मिसाल समकालीन राजनीति की किसी और घटना से नहीं दी जा सकती। फिर एक-दूसरे को जानी दुश्मन की तरह देखते हुए वे यूपी में अपनी-अपनी राजनीति करते रहे और अपना कद भी बढ़ाते रहे। एक समय ऐसा आया जब दोनों नेता प्रदेश में अपने दल की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने में सफल रहे लेकिन उसके बाद दोनों का ग्राफ अचानक इतना नीचे आया जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

मौजूदा आम चुनाव से ठीक पहले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लडऩे की घोषणा की तो यह भी एक बेमिसाल बात ही थी लेकिन इसके साथ यह हकीकत भी जुड़ी थी कि अखिलेश और मायावती में कभी कोई निजी मनमुटाव नहीं रहा। मोटे तौर पर इसे मजबूरी का जुड़ाव माना गया क्योंकि अकेले दम पर बीजेपी को चुनौती देने की हैसियत दोनों में किसी की नहीं थी। इस अंकगणित को रसायनशास्त्र में बदलने का काम दो दौर का मतदान हो जाने के बाद मुलायम के मंच पर मायावती की मौजूदगी से संभव हो पाया है। दोनों नेता आज भी अपने समर्थकों पर जबरदस्त भावनात्मक पकड़ रखते हैं और उनके सौहार्द का संदेश राज्य के सबसे निचले स्तर तक पहुंचेगा।

चुनाव नतीजों पर इसके ठोस प्रभाव का पता बाद में चलेगा लेकिन अभी इससे यह तो साबित हो ही गया है कि राजनीति में कोई भी संभावना अंतिम रूप से समाप्त नहीं होती। हालांकि, ऐसा अप्रत्याशित मेल देश में पहली बार नहीं दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद जिस तरह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने बिहार विधानसभा चुनावों में हाथ मिलाकर बीजेपी को शिकस्त दी, फिर कुछ ही समय बाद नीतीश ने बीजेपी से मिलकर लालू को जो झटका दिया, वह उलटफेर भी इसी श्रेणी में आता है। जाहिर है, 'खत्म कर देने' और 'मिटा देने' जैसी शब्दावली के लिए हमारी राजनीति में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

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