संपादकीय

22-Apr-2019 2:14:54 pm
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सधे नज़रिये से विसंगतियों पर चोट


मीरा गौतम
मतदान केंद्र पर झपकी’ कवि केदारनाथ की 38 कविताओं का संग्रह है। इसकी मूल पाण्डुलिपि को उन्होंने मृत्यु से पूर्व ही तैयार कर दिया था, जिसे बाद में सुनील कुमार सिंह ने प्रकाशित करवाया। संग्रह की कविताओं में केदारनाथ सिंह अपने गांव से धरती और धरती से पूरे ब्रह्मांड की यात्रा करते हैं। कविताएं आत्म-संवाद की निजी शैली में लिखी गयी हैं। वर्तमान और अतीत की यात्रा करती कविताएं उनके अंतिम क्षणों की मन:स्थिति और चिंतन को पाठकों के सामने रखती हैं। मूलत: कविताओं में उनकी जनवादी सोच अभिव्यक्त हुई है। विसंगतियों पर प्रहार करते केदारनाथ सिंह बेहद विनम्र और सधे हुए नजर आते हैं। यह वसीयत है, जिसे वह पाठकों को सौंप रहे हैं।
शीर्षक कविता ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ में मतदान केंद्र पर वोट देने पहुंचे मतदाता को वोटरलिस्ट से अपना नाम गायब मिलता है। व्यवस्था की इस झपकी से आहत कवि अकेला नहीं है। वंचितों की जमात में वह व्यर्थता में सार्थकता की तलाश करता है, जिसमें धरती उसमें ऊर्जा का संचार करती है और वह नये संघर्ष के लिए तत्पर हो जाता है। इस क्रम में उसे भी सुकून की झपकी आ जाती है। ‘पानी’ कविता भी उस वंचित को समर्पित है, जिसका धर्म पानी है। हवा जिसे दीक्षा देती है। रास्ता ही देवता और घास-पात उसके सहपाठी हैं। मकई का पेड़ उसका कल्पवृक्ष है। साधनहीन यह वंचित दुनिया के चौराहे पर वृद्धावस्था तक भला-चंगा खड़ा है क्योंकि धरती की जड़ों ने उसे पोषित किया है।
‘माचिस लाना न भूलना’ में देश की साइकिल में हवा नहीं है तो क्या हुआ? अंतत: वह जहां पहुंचा दे वहीं से नागरिक अपना रास्ता स्वयं ही चुन लें, उसी में उनकी भलाई है। यही कवि की मार्क्सवादी सोच है, जहां वह व्यवस्था से समझौता करने को तैयार नहीं है। ‘करोड़ों साल पुरानी’ कविता में ब्रह्मांड को वह करोड़ों साल पुरानी जर्जर बैलगाड़ी कहकर उसकी धुरी की मरम्मत की बात कहता है। 21वीं सदी की निरंतर परिवर्तनकामी यात्रा में कवि आकांक्षा अवश्य कर सकता है परंतु यह सदी तो सब कुछ अनसुना करके आगे बढ़ रही है। पीछे तो वही मनुष्य छूटा जा रहा है, जिसके लिए कवि के मन में असंख्य दर्द मौजूद हैं। एक इनसान में एक ऐसा इनसान मौजूद है जो इस दुनिया में पूरी तरह अनफिट है। ‘कालजयी’ कविता में कवि का मानना है कि कालजयी कविता वही होती है जो लिखकर फाड़ दी जाती है। ‘सज्जनता’ कवियों में कवि को सांप से डर नहीं लगता, ‘पर सज्जनों/ क्षमा करना/ मुझे सज्जनता से/ डर लगता है।’ इस कविता में मित्रता का स्वांग भरने वाले कथित भितरघातियों पर व्यंग्य है। ‘खून’ कविता का परिदृश्य अत्यंत विराट है क्योंकि यात्रा के इस महापर्व में, ‘पृथ्वी के सारे खून एक हैं।’ जब-जब खून की एक बूंद कहीं टपकती है तो किसी दूर गांव के बच्चे की धडक़न उसे सुन लेती है। धरती की अरबों धडक़नें एक ही लय में धरती को घुमाती हैं और हर खून एक-दूसरे खून से बतियाने लगता है। ‘वसीयतनामा’ में कवि ने अपनी खाल खेत के नाम कर दी है।
‘खुरपी’ कविता में निहत्थी खुरपी खेत के बीचोंबीच पड़ी रहकर भी धरती की रक्षा का सारा दायित्व निभा लेती है क्योंकि वह धरती का औजार है जिस पर दुनिया के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। ‘उद्दाम संगीत’ कविता में कवि को मृत्यु के सौंदर्य पर लिखी हुई कविता की प्रतीक्षा है। मृत्यु के ऊपर लिखी गयी कविता दुनिया की सर्वोत्तम कविता होगी, जिसे अभी तक लिखा ही नहीं गया है। ‘कितने बरस लगते हैं’ में देश को एक खुले मुंह में रोटी का कोर पहुंचाने में आखिर इतने बरस क्यों लग जाते हैं।
कुल मिलाकर कविताओं में सादगी और विरोधक साथ-साथ चल रहे हैं। कब वह दरवाजे खुलेंगे जो कवि को दुनिया का पंचतंत्र सिखा पायेंगे? कवि ने मनुष्यता की देखरेख की जिम्मेदारी ही अपनी कविताओं को सौंपी है। पाठक भी इस दायित्च को देखें और समझें।
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