संपादकीय

21-Apr-2019 1:54:19 pm
Posted Date

बेलगाम बदजुबानी

आखिरकार चुनाव आयोग बिगड़े बोल बोलने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई को मजबूर हुआ। मगर मलाल इस बात का कि ऐसा उसने सुप्रीमकोर्ट की सख्ती के बाद किया जो उसे बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था। आयोग अपने अधिकार क्षेत्र व शक्तियों को लेकर लाचारगी दिखाता रहा है, जबकि एक मजबूत संवैधानिक संस्था के नाते संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत कार्रवाई के लिये उसके पास पर्याप्त अधिकार हैं। दरअसल, आयोग को टी. एन. शेषन जैसे कड़े फैसले लेने वाले अधिकारियों की जरूरत है। बहरहाल, आयोग ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण व बंटवारे के बोल बोलने वाले नेताओं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, सपा के दिग्गज नेता आजम खान और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के खिलाफ कुछ समय के लिये चुनाव प्रचार में भाग लेने पर रोक लगा दी है। बाकी नेता जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशें रचते नजर आए, वहीं सपा नेता आजम खान ने तो मर्यादाओं की सभी सीमाएं लांघ दी। उन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा की जयाप्रदा के खिलाफ शर्मसार करने वाली जो टिप्पणियां कीं, उससे लोकतंत्र हतप्रभ है। पिछले चुनाव में भी आजम खान पर आयोग ने प्रतिबंध लगाया था और शीर्ष अदालत ने माफी मांगने को कहा था।

बात इन नेताओं की ही नहीं है, पूरे देश से आये दिन नेताओं के बड़बोलेपन और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने वाले बयान सामने आते रहते हैं। हिमाचल के भाजपा अध्यक्ष ने जहां कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ असंसदीय बयान दिया वहीं सुप्रीमकोर्ट ने अदालत की टिप्पणियों को तोड़मरोडक़र प्रधानमंत्री के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने पर राहुल गांधी को अवमानना का नोटिस भेजा है। दरअसल, बिना रीढ़ के नेता अपने वायदों-घोषणापत्रों को लेकर आश्वस्त नहीं होते और दुष्प्रचार का सहारा लेते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद व प्रांतवाद का जहर घोलते हैं। चुनाव के दौरान राजनेताओं की जुबान बावन गज की हो जाती है। येन-केन-प्रकारेण प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके सत्ता की चाबी तलाशने वाले नेता यह भूल जाते हैं कि जनता के ज्वलंत मुद्दे क्या हैं। नकारात्मक प्रचार के जरिये सुर्खियों में बने रहने की लालसा नेताओं को बड़बोले बयान दिलाती है। यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए कि सात दशक के लोकतांत्रिक परिदृश्य में विमर्श का स्तर इतना कैसे गिर गया। क्यों विकास, बिजली-पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जैसे ज्वलंत मुद्दे चुनावी विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाते। दरअसल, नेताओं को महज प्रचार करने से रोकना समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक ऐसे नेताओं के चुनाव लडऩे पर रोक नहीं लगती और जनता इनका बहिष्कार नहीं करती तब तक समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है।

००

Share On WhatsApp