संपादकीय

20-Apr-2019 2:14:28 pm
Posted Date

चंदे की पारदर्शिता

निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से चुनाव चंदे में पारदर्शिता को लेकर उठायी जा रही आशंकाओं का निराकरण होगा जो कि पारदर्शिता की दिशा में स्वागतयोग्य कदम है। शीर्ष अदालत ने राजनीतिक दलों को निर्देश दिया है कि वे 30 मई तक बंद लिफाफों में चुनाव आयोग को चुनावी चंदा देने वाले स्रोत की जानकारी दें। राजनीतिक दल चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाते हैं और चंदे के स्रोत पर जैसे पर्दा डालने का प्रयास करते हैं, वह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का उल्लंघन ही है। सरकार चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर जिस चुनावी बांड व्यवस्था को लेकर आई थी, उसके निहितार्थों को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही शंका जताता रहा है। इसमें बैंक के जरिये बांड खरीदकर मोटा चंदा देने वालों की पहचान तो होती है मगर यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि किस राजनीतिक दल को चंदा दिया गया है। खबरें हैं भाजपा को ही चुनावी बांडों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ। इस नई व्यवस्था को चुनाव आयोग तथा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स चुनाव सुधारों के लिए प्रतिगामी कदम मानते रहे हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड पर रोक तो नहीं लगायी मगर उसमें पारदर्शिता लाने की पहल जरूर की है। सरकार की दलीलें—लोकतंत्र में चुनाव सुधार पक्षधरों के गले नहीं उतरती। हास्यास्पद ही है कि कोर्ट में एटॉर्नी जनरल कहे कि जनता का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा कहां-कहां से मिला है।

भारत में चुनावी चंदे के जरिये काला धन खपाने और जीतने वाले दल की सरकार से प्रत्युत्तर में प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ उठाने के आरोप लगते रहे हैं। राजग सरकार की दलील गले नहीं उतरती कि चुनावी बांड से चुनावी चंदे की व्यवस्था अब पारदर्शी होगी। राजनीतिक दल बताने के लिए बाध्य नहीं थे कि चुनाव बांड किसने दिया। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए सक्रिय संस्थाएं और चुनाव आयोग प्रक्रिया में सुधार की मांग कर रहे थे। जरूरी है कि चुनावी चंदा देने वाले की पहचान उजागर हो ताकि उन द्वारा भविष्य में अनुचित लाभ उठाने के प्रयास पर निगाह रखी जा सके। वैसे विसंगति यह भी है कि पहचान उजागर होने पर सत्ता परिवर्तन के बाद उस चंदा देने वाले व्यक्ति को इस बात के लिए परेशान किया जा सकता है कि उसने फलां राजनीतिक दल को चंदा दिया था। पहले बीस हजार रुपये तक का चंदा देने वाले की पहचान उजागर करने की आवश्यकता नहीं थी। तब राजनीतिक दलों का अधिकांश चंदा इस छूट के रास्ते मिलता था। अब इस सीमा को दो हजार तक घटाने का भी कोई लाभ नजर नहीं आता। इससे जुड़ा चिंताजनक पहलू यह भी है कि कोई विदेशी कंपनी भी ये बांड खरीद सकती है। जाहिर है इसके जरिये भारतीय लोकतंत्र की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश भी हो सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब शीर्ष अदालत इस बाबत अंतिम फैसला लेगी तो इन चिंताओं के निराकरण की दिशा में कदम बढ़ाएगी।

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