संपादकीय

19-Apr-2019 2:26:12 pm
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संरक्षण की बाट जोहती अमूल्य विरासतें

दुनिया में संभवत: भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां के भूगोल में विविधता बिखरी पड़ी है। इसीलिए भारत को ‘विविधता में एकता’ का संदेश देने वाली कहावत से जाना जाता है। लेकिन भारत में ऐसे अनेक स्थल और पुस्तकें हैं, जिनका विश्व-धरोहर सूची में शामिल न होना चिंताजनक है। यूनेस्को यानी ‘संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संगठन’ द्वारा जिन धरोहरों को ‘विश्व धरोहर’ में शामिल किया जाता है, वह इस संगठन के मानदंडों के अनुरूप सबसे ज्यादा कहीं हैं तो भारत में हैं।

विडंबना है कि इस संगठन के 16 नवंबर 1945 को अस्तित्व में आने से लेकर अब तक देश की केवल 37 और मध्य प्रदेश की केवल तीन धरोहर खजुराहो, सांची और भीमबेटका को ही विश्व-धरोहर की श्रेणी में लिया गया है। छत्तीसगढ़ की तो एक भी धरोहर इसमें शामिल नहीं है। छत्तीसगढ़ के सिरपुर स्मारकों को जरूर इस श्रेणी में स्थान दिलाने के प्रयास हो रहे हैं। ओरछा को भी विश्व-धरोहर का दर्जा दिलाने की कोशिशें तेज हुई हैं। सूची में भारत की कुल 1074 धरोहरें दर्ज हैं। प्राचीन ग्रंथ वेद भी गडरियों के गीत के रूप में दर्ज हैं।

धरोहर या विरासत शब्द का स्मरण होते ही पर्यटन की जिज्ञासा अनायास ही मन-मस्तिष्क में जाग जाती है। प्राचीनकाल में पर्यटन शब्द का अर्थ सिर्फ भ्रमण से लिया जाता था। उस समय ये यात्राएं दीर्घकालिक व रोमांचकारी हुआ करती थीं। इनमें कोई बड़ा उद्देश्य भी अंतर्निहित रहता था। चीनी यात्री फाहयान ने भारत, श्रीलंका और नेपाल की यात्राएं बौद्ध ग्रंथों को इक_ा करने के लिए की थीं। भारत में यही काम राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत, नेपाल और चीन की यात्रा कर बड़ी संख्या में प्राचीन भारतीय साहित्य की पांडुलिपियां एकत्रित करके किया था। पुर्तगाली वास्को डी गामा ने भारत की यात्रा अपने व्यापार को भारत में स्थापित करने की दृष्टि से की थी। चार्ल्स डार्विन 22 साल की उम्र में ही बीगल नाम के जहाज पर सवार होकर प्रकृति को समझने के लिए निकल पड़ा।

बीसवीं सदी का अंत होते-होते पर्यटन की धारणा में आमूलचूल बदलाव आ गया। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारवाद का प्रभाव पर्यटन पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। फलत: ज्यादातर यात्राएं मौज-मस्ती के लिए होने लगीं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने 18 अप्रैल को ‘विश्व धरोहर दिवस’ मनाने का प्रचलन शुरू करके अनेक पुरातात्विक व ऐतिहासिक स्मारकों और प्रकृति से जुड़े उद्यानों व अभयारण्यों को विश्व धरोहर की श्रेणी में लाने का सिलसिला शुरू किया हुआ है, जिससे विश्व पर्यटन में वृद्धि हो। भारत में प्राचीन स्मारकों और धरोहरों की रक्षा का काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (आईएसआई) करता है। जर्मनी ने अपनी धरोहरों को संभालने के लिए 2013 में करीब 50 करोड़ यूरो खर्च किए थे। यहां 13 लाख स्मारक हैं। हालांकि भारत समेत समूचे विश्व में स्मारकों के निर्माण और संरक्षण की लंबी परंपरा रही है।

दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध में अनेक नगरों को बहुत हानि हुई थी। अमेरिका ने 1945 में नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु हमले करके इन दोनों नगरों को मिट्टी में मिला दिया था। चूंकि युद्ध में नष्ट हुई विरासत का पुनर्निर्माण संभव नहीं था, इसलिए अनेक शिल्पियों ने इनके यथास्थिति में संरक्षण की पैरवी की। 1964 में इटली के वेनिश शहर में संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने और उनके जीर्णोद्धार की वैश्विक संधि हुई। इसमें अकेली इमारतों को ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विकास दिखाने वाले क्षेत्र और नगरों को भी संरक्षण के योग्य माना गया। हमारा अहमदाबाद, मुंबई का विक्टोरिया टर्मिनल रेलवे स्टेशन और पूर्वोत्तर की नैरोगेज रेल लाइन इसी श्रेणी की विश्व धरोहर हैं। जर्मनी ने दुनिया की धरोहरों को बचाने की विशेष पहल की है। बावजूद अफगानिस्तान के तालिबानी आतंकवादियों ने मार्च 2001 में चट्टानों पर उकेरी गई विश्व प्रसिद्ध बुद्ध की प्रतिमाओं को डायनामाइट लगाकर उड़ा दिया था और दुनिया देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाई थी।

बहरहाल विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित किए गए स्थलों के दर्शन करने से ज्ञात होता है कि सभ्य होते मनुष्य की सनातन मानवतावादी संस्कृति दुनिया में खंड-खंड मौजूद है। इस नाते भारत में जो विपुल वन-संपदा और वनवासियों का लोक संस्कृति से जुड़ा जीवन है, उसे भी विश्व-धरोहर के दर्जे में लाना जरूरी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ वन संपदा की दृष्टि से देश में सबसे ज्यादा समृद्धशाली प्रदेश हैं, पर वहां का एक भी उद्यान या अभ्यारण्य अब तक धरोहर सूची में जगह नहीं बना पाया है। सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा प्राचीन मोहनजोदड़ों आज भले ही पाकिस्तान में है, इसे भी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर संरक्षित किया जाना जरूरी है।

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