संपादकीय

12-Apr-2019 2:04:44 pm
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वक्त के साथ रंग बदलती स्कूलगिरी


शमीम शर्मा
स्कूलों में दाखिले का महीना होता है अप्रैल। कहते हैं कि कोई भी धन्धा पिट सकता है पर स्कूलगिरी का नहीं क्योंकि सृष्टि की बेल पर जब तक बच्चों के फूल खिलते रहेंगे तब तक मास्टरों की दादागिरी चलती रहेगी। स्कूल की परिभाषाओं में एक नया फिकरा सुनने को मिलने लगा है कि स्कूल एक ऐसी जगह है जहां हमारे बाप को लूटा जाता है और बच्चों को बेवजह कूटा जाता है। स्कूल के समर्थन या विरोध में चाहे जो कुछ कहा जाये पर अंतिम सत्य यही है कि बच्चे के कैरियर के बीज स्कूल में ही रोपित होते हैं।
स्कूल-कॉलेजों में विद्यार्थी भी कई तरह के होते हैं। कुछ तो मेरिट के ऐसे कीड़े होते हैं जो पहली पंक्ति के बैंच पर बैठने के लिये भागते हैं, हांफते हैं और ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। दूसरी तरफ वे हैं जो लास्ट बैंच पर बैठने के लिये ल_ बजा देते हैं।
एक लड़के की शिकायत है कि जो लड़की उसे यह कहा करती कि वक्त आने पर वह उसके लिये जान भी दे सकती है, वही लड़की परीक्षाओं में जब पांचवें सवाल का उत्तर पूछने पर खांसना शुरू कर देती है तो उसका खून फुक जाता है। अध्यापकों से विद्यार्थियों को यही शिकायत रहती है कि वे ऐसे सवाल पूछते हैं, जिनके उन्हें जवाब नहीं आते और हम ऐसे उत्तर लिखते हैं जो उनको समझ नहीं आते। उत्तरपुस्तिकाओं की जांच करने वाले अध्यापकों की प्रतिक्रिया है कि परीक्षा के आखिरी पंद्रह मिनट में हर विद्यार्थी में डाक्टर की आत्मा प्रवेश कर जाती है और उसकी आड़ी-तिरछी रेखाओं का मूल्यांकन करना जोखिमभरा हो जाता है।
वैसे देखा जाए तो समय में व्यापक बदलाव आया है। पहले शरारत करने पर या कम नम्बर आने पर बच्चे को थप्पड़-मुक्के मार दिया करते थे पर अब तो यूं कहकर धमकाया जाता है कि साले का फोन खोस लेंगे या टीवी की डिश का कनेक्शन कटवा देंगे या मोटरसाइकिल में साइलेंसर लगवा देंगे।
शहरी बच्चे जहां हाजिर जवाबी में अपना सानी नहीं रखते, वहीं ग्राम्यांचल के बच्चों में भोलापन आज भी बरकरार है। गांव के किसी स्कूल में जब एक अध्यापिका ने बच्चे से सवाल किया कि 15 अगस्त को उन्हें क्या मिला था तो बच्चे ने मासूमियत से कहा था-जी गत्ते की छोटी सी कटोरी में जरा-सी बूंदी। दूसरी तरफ शहरी बच्चे से पूछो कि पन्द्रह फलों के नाम बताओ तो जवाब सुनने को मिलेगा- आम, अमरूद, संतरा और एक दर्जन केले।
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