संपादकीय

01-Feb-2019 11:55:14 am
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शुभेच्छा की भाषा का नहीं कोई धर्म


विश्वनाथ सचदेव
कुछ अर्सा पहले किसी राष्ट्रीयकृत बैंक के एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। जानकर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उस बैंक के सारे कर्मचारी रोज़ सुबह काम की शुरुआत से पहले सामूहिक प्रार्थना में भाग लेते हैं। कर्मचारियों में लगभग सभी धर्मों को मानने वालों की उपस्थिति की संभावना को देखते हुए सहज जिज्ञासा-वश मैंने पूछ लिया था, कौन-सी प्रार्थना होती है रोज़ सवेरे? मुझे अपने स्कूल की प्रार्थना याद आ रही थी— हे प्रभु! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिएज्। मुझे बताया गया कि बैंक के कर्मचारी रोज़ सवेरे ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन में विश्वास कमज़ोर हो नज्’ का पाठ करते हैं। एक हिंदी सिनेमा में गायी गयी यह प्रार्थना सचमुच प्रेरणादायी है। इस चयन के लिए, और इस निर्णय के लिए मैंने बैंक के अधिकारियों की मन ही मन सराहना की थी।
आज एक समाचार पढक़र बैंक वाली यह घटना अचानक याद आ गयी। समाचार के अनुसार उच्चतम न्यायालय में एक मामला चल रहा है। अदालत से यह अपेक्षा की गयी है कि वह देश के केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना पर तत्काल प्रतिबंध लगाये। प्रार्थी की शिकायत यह है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक प्रार्थना संविधान के प्रतिकूल है। प्रार्थी का कहना है कि यह प्रार्थना ‘हिंदू धर्म पर आधारित’ है, इसलिए इसे सरकारी स्कूल में नहीं गाया जाना चाहिए। अदालत ने मामला पांच जजों की सांविधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है। अब इस पीठ के समक्ष होने वाली सुनवाई के बाद ही यह निर्णय हो पायेगा कि केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना संविधान की धाराओं के अनुकूल है अथवा नहीं। लेकिन यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि आखिर इस प्रार्थना में ऐसा क्या है जिस पर आपत्ति की जा रही है। आपत्ति दुहरी है। पहली तो यह कि ‘अल्पसंख्यकों और निरीश्वरवादियों को उनके विश्वासों के प्रतिकूल आचरण के लिए बाध्य किया जा रहा है, और दूसरी आपत्ति यह है कि प्रार्थना में संस्कृत के वाक्य हैं जो कि एक धर्म-विशेष से संबंधित भाषा है।’
जहां तक पहली आपत्ति का सवाल है, न्यायालय इसके बारे में निर्णय करेगा कि इस प्रार्थना का गाया जाना संविधान-विरोधी है अथवा नहीं, लेकिन धर्म-विशेष की भाषा वाली दूसरी आपत्ति पर देश के सामान्य नागरिक को भी गौर करना चाहिए। क्या भाषा भी किसी धर्म-विशेष की होती है?
केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना में संस्कृत की कुछ उक्तियां हैं— ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।’ संस्कृत के इन शब्दों का सीधा-सा अर्थ है, ‘मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाओ, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ। मृत्यु से जीवन की ओर ले जाओ। यह सही है कि ये तीन पंक्तियां उपनिषदों से ली गयी हैं, लेकिन इन पंक्तियों का उपनिषदों से लिया जाना, उपनिषदों का संबंध हिंदू धर्म से होना और संस्कृत में लिखा जाना, इन्हें धर्म-विशेष तक सीमित कैसे कर देता है? किसी भी धर्म का भाषा से क्या लेना-देना?
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। भाषा के द्वारा हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरों की बात भाषा के माध्यम से ही हम तक पहुंचती है। यह भाषा बोली हुई भी हो सकती है और संकेतों वाली भी। मान लो ‘असतो मा सद्गमय’ वाली बात बोलकर नहीं, संकेतों से कही जाये तो? तब भी क्या वह ‘मौन-भाषा’ धर्म-विशेष से जुड़ी रहेगी? यह सही है कि हिंदू धर्म के लगभग सभी प्राचीन ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, लेकिन हज़ारों वर्ष पहले लिखे गये वेद या उपनिषद् धार्मिक ग्रंथ मात्र तो नहीं हैं। उस ज़माने में संस्कृत बोलने वाले हर विषय की बात इसी भाषा में ही तो करते होंगे, फिर यह सिर्फ हिंदुओं की भाषा कैसी हो गयी? संस्कृत में लिखा गया विज्ञान, भूगोल, इतिहास या अर्थशास्त्र सिर्फ हिंदुओं की विरासत कैसे हो सकता है? किसी भी भाषा पर समूची मानव जाति का अधिकार है। क्योंकि बाइबिल अंग्रेज़ी में लिखी गयी है, इसका यह अर्थ तो नहीं कि अंग्रेज़ी ईसाइयों की भाषा है, या फिर अरबी भाषा सिर्फ मुसलमानों की या गुरुमुखी मात्र सिखों की भाषा।
यह पहली बार नहीं है जब हमारे देश में किसी भाषा को धर्म के साथ जोड़ा जा रहा है। पहले भी हम उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना-बता कर धर्मांधता का परिचय दे चुके हैं। उर्दू का जन्म भारत में हुआ। आम बोल-चाल से लेकर साहित्य लेखन तक उर्दू का उपयोग होता रहा और उर्दू का प्रयोग करने वाले वे सब मुसलमान नहीं थे। उर्दू के महान लेखकों में फिराक गोरखपुरी और प्रेमचंद की भी गणना होती है। हिंदी की तरह उर्दू भी एक हिंदुस्तानी भाषा है, उर्दू के लगभग दो-तिहाई शब्दों का मूल संस्कृत और प्राकृत में मिलता है। उर्दू की नब्बे प्रतिशत से अधिक क्रियाएं मूलत: संस्कृत और प्राकृत से ही ली गयी हैं। फिर उर्दू मुसलमानों की भाषा कैसे हो गयी? भाषाओं को धर्म के साथ जोडऩे का अर्थ उस विविधता को अपमानित करना है जो भारतीय समाज की एक ताकत है। उर्दू को मुसलमानों की या संस्कृत अथवा हिंदी को हिंदुओं की भाषा बनाकर हम अपने समाज को, भारतीय समाज को बांटने का काम ही कर रहे हैं।
धर्मग्रंथों की भाषा चाहे कोई भी हो, मूलत: धर्म-ग्रंथ पूरी मनुष्यता के होते हैं। धर्म-ग्रंथों का काम आदर्श जीवन की राह बताना है। भाषा तो माध्यम है इसे बताने का। असतो मा सद्गमय का संदेश चाहे किसी भी भाषा में दिया जाये, उसका उद्देश्य मानव-समाज को बेहतर बनाना है। अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने की लालसा एक वैश्विक सत्य है; ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है, का संदेश हर मनुष्य के लिए है। सब ईश्वर की संतान हैं या सब खुदा के बंदे हैं, का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है। ईश्वर को हिंदू या खुदा को मुसलमान या फिर गॉड को ईसाई बताकर हम अपने अज्ञान और अपनी मूढ़ता का ही परिचय देते हैं। यही बात भाषा को हिंदू या मुसलमान या ईसाई बताने पर भी लागू होती है। धर्म के आधार पर भाषाओं का बंटवारा उतना ही ग़लत है, जितना भाषा के आधार पर किसी का धर्म निर्धारित करना।
मुंबई के उस बैंक में जहां रोज़ सुबह प्रार्थना होती है, हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, सिख आदि सब मिलकर ‘दाता’ से शक्ति मांगते हैं। इस दाता को ईश्वर कह लें या खुदा, इससे क्या फर्क पड़ता है? उद्देश्य तो किसी शक्ति से उसका वह हिस्सा ही मांगना है, जो हमारे मन के विश्वास को कमज़ोर न होने दे। इस विश्वास में यह विश्वास भी शामिल हैं कि हम किसी भी भाषा में प्रार्थना करें, ‘उस’ तक पहुंच जायेगी। हमें यह बात भी समझनी होगी कि ऐसी कोई शक्ति यदि है तो वह हिंदू प्रार्थना और मुसलमान प्रार्थना में, या फिर हिंदू भाषा और मुसलमान भाषा में अंतर नहीं करती।
मेरे स्कूल में जो प्रार्थना बोली जाती थी, उसमें ‘आनंददाता प्रभु’ से ‘ज्ञान’ मांगा गया था; आज केंद्रीय विद्यालयों में भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के माध्यम से ज्ञान की ज्योति की आकांक्षा ही की जा रही है। इससे हमारे संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन होता है अथवा नहीं, लेकिन किसी भाषा को धर्म-विशेष से जोडक़र हम संविधान की मूल भावनाओं का अपमान अवश्य कर रहे हैं। गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में हमेशा ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ का संदेश देते थे। ईश्वर को संस्कृत और अल्ला को अरबी से जोडक़र हम क्या संदेश देना चाहते हैं?

 

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