संपादकीय

31-Jan-2019 11:39:16 am
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कैसे मिटे गरीबी


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो देश के सभी गरीबों को न्यूनतम आमदनी की गारंटी दी जाएगी। कांग्रेस के लोगों का कहना है कि हर गरीब व्यक्ति को हर महीने 1500 से 1800 रुपये सीधे बैंक खाते में दिए जा सकते हैं।
इस तरह पार्टी ने अपना चुनावी अजेंडा साफ कर दिया है। गरीबों और किसानों के सवाल वह लोकसभा चुनाव में उठाएगी। ऐसे सवाल कांग्रेस पहले भी उठा चुकी है। राजनीति में इंदिरा गांधी की धमक ही गरीबी हटाओ के नारे से बनी थी। लेकिन गरीबों को सीधे पैसे बांटने की बात चुनाव में पहली बार उठी है। पिछले कुछ चुनावों में, खासकर विधानसभा चुनावों में एक रुपये किलो चावल से लेकर मंगलसूत्र, मिक्सी, रेडियो, कंप्यूटर, लैपटॉप जैसी चीजें देने के वादे विविध पार्टियां करती रही हैं। कहीं-कहीं इन पर अमल भी हुआ है, लेकिन इस मिजाज के लोकलुभावन वादे लोकसभा चुनाव में शायद इस बार ही देखने को मिलें। कांग्रेस के वादे की काट में बीजेपी भी अपना पिटारा खोल सकती है। कहा जा रहा है, सरकार बजट में गरीबों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम का ऐलान कर सकती है। किसानों को शून्य ब्याज दर पर कर्ज या प्रति एकड़ प्रति फसल के हिसाब से तयशुदा रकम दी जा सकती है। 
भुखमरी की समस्या भारत में एक बड़ी आबादी के सामने आज भी बनी हुई है लिहाजा गरीब समर्थक योजनाओं की जरूरत तो रहेगी। उनके हाथ सीधे कुछ पैसे आते हैं तो इससे उन्हें कुछ राहत जरूर मिलेगी। लेकिन इससे उनका जीवन नहीं बदलने वाला और गरीबी हरगिज नहीं मिटने वाली। अरबपतियों की सबसे तेज बढ़ती संख्या वाले देश भारत में भुखमरी की समस्या का मौजूद होना यहां की नीतिगत प्राथमिकताओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। अब तक की सभी सरकारें गरीबों को किसी तरह जिंदा रखने की नीति पर ही काम करती रही हैं। उनकी हालत में आमूल बदलाव करना और उन्हें विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाना सरकारी चिंता से बाहर रहा है। 
नब्बे के दशक से शुरू हुई नई अर्थनीति ने अर्थव्यवस्था को गति दी है और देश में खुशहाली का स्तर ऊंचा किया है, लेकिन इसके साथ जुड़ा आर्थिक असमानता का रोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस अर्थनीति के तहत अमीरी और गरीबी का फासला इतना बढ़ गया है, जिसकी कुछ समय पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में भारत में जितनी संपत्ति पैदा हुई, उसका 73 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 फीसदी धनाढ्य लोगों के हाथों में चला गया, जबकि नीचे के 67 करोड़ भारतीयों को इस संपत्ति के सिर्फ एक फीसदी हिस्से पर संतोष करना पड़ा है। इस आर्थिक मॉडल को नकारने की उम्मीद राजनेताओं की मौजूदा पीढ़ी से नहीं की जा सकती, लेकिन अगर वे टीबी का इलाज माथे पर बाम लगाकर ही करने पर अड़े हैं तो उन्हें टोका जरूर जाना चाहिए।
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