संपादकीय

25-Dec-2018 12:22:01 pm
Posted Date

पिछड़ें ही हैं दलित और आदिवासी

देश के राजनीतिक अजेंडे में दलित और आदिवासियों का स्थान बड़ा ऊंचा है। प्राय: हर राजनीतिक पार्टी उनकी हालत सुधारने का वादा करती है या उनके साथ हो रहे भेदभाव का मुद्दा उठाती है। लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति को देखें तो निराशा होती है। आज भी यह तबका समाज में ‘नीच’ समझे जाने वाले पेशों में ही लगा है। अच्छी नौकरियां उनके लिए सपना ही हैं। गैर कृषि श्रम से संबंधित जनगणना के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं। निजी क्षेत्र में इनकी उपस्थिति लगभग नगण्य है। कॉपोरेट सेक्टर में मैनेजर स्तर पर 93 प्रतिशत गैर दलित-आदिवासी लोग हैं।
हां, सरकारी नौकरियों में उनकी स्थिति कुछ बेहतर है। सरकारी स्कूलों में काम करने वाले दलितों की संख्या 8.9 प्रतिशत और अस्पतालों में 9.3 प्रतिशत है। पुलिस में दलितों की संख्या 13.7 फीसदी है जबकि आदिवासियों की तादाद 9.3 फीसदी है। आज भी झाड़ू लगाने और चमड़े के काम में दलितों की बहुतायत है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में चमड़े का काम करने वाले कुल 46000 लोगों में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 41000 है। उसी तरह राजस्थान में कुल 76000 सफाईकर्मी हैं जिनमें अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 52000 है। इनमें युवा अच्छी-खासी संख्या में हैं, जो इस बात का संकेत है कि विकास की लंबी प्रक्रिया और सबको शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिशों के बावजूद कुछ जातियां अपना परंपरागत पेशा अपनाने को मजबूर हैं। जबकि हमारे राष्ट्र निर्माताओं का सपना था कि जात-पांत के बंधन खत्म हो जाएं और हर नागरिक को तरक्की के समान अवसर मिलें। यह भी सोचा गया था कि जब आर्थिक विकास तेज होगा और समाज में जनतंत्र का प्रसार होगा तो कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं रह जाएगा। हर तरह के काम को बराबर सम्मान दिया जाएगा। पर ये दोनों ही लक्ष्य पूरे नहीं हुए। 
आज 21 वीं शताब्दी में भी तमाम नियम-कानून के बावजूद देश के दलित-आदिवासी दूसरे तबकों की तुलना में पिछड़े हैं और उनका कई स्तरों पर उत्पीडऩ जारी है। सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजातियों को नौकरियों में आरक्षण तो दे दिया, पर उनकी शिक्षा की मुकम्मल व्यवस्था नहीं की। दलित और आदिवासी बेहतर नौकरियों के लिए तैयार ही नहीं हो पाते क्योंकि वे उच्च शिक्षा तक पहुंच नहीं पाते। गांवों में किसी तरह सरकारी स्कूलों में ये प्राथमिक शिक्षा हासिल कर लेते हैं। फिर गरीबी के कारण उनमें से ज्यादातर आगे नहीं पढ़ पाते। आज ऊंचे दर्जे की पढ़ाई छोडऩे की दलितों की दर, गैर दलितों के मुकाबले दोगुनी है। उदारीकरण के बाद सरकारी नौकरियां कम हुई हैं। निजी क्षेत्र की जो अपेक्षाएं हैं, उनके अनुरूप शिक्षा और तकनीकी निपुणता हासिल करना इन जातियों के लिए बेहद मुश्किल है। इसलिए प्राइवेट सेक्टर में बड़ी नौकरियों के दरवाजे इनके लिए नहीं खुल रहे। सिर्फ नारों से दलित-आदिवासियों का उत्थान नहीं होगा। सरकार को वे तमाम प्रयास करने होंगे जिनसे वे उच्च शिक्षित और निपुण बन सकें।

 

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