संपादकीय

ठगी से बिगड़ती भारत की छवि
Posted Date : 13-Dec-2018 11:48:05 am

ठगी से बिगड़ती भारत की छवि

अभिषेक कुमार सिंह
देश जिस डिजिटल क्रांति की तरफ बढ़ रहा है, क्या उसका कुल हासिल यही है कि लोग डिजिटल फर्जीवाड़ा करने वाले कुछ गिरोहों और कंपनियों की चपेट में आ जाएं और उनके झांसे में फंसकर अपनी जमा-पूंजी गंवा दें? यह मामला देश की छवि और नौजवानों की प्रतिभा के गलत इस्तेमाल से लेकर उनकी बेरोजगारी का भी है। दर्जनों साइबर गिरोहों के सक्रिय होने और सरहद पार हजारों लोगों को चूना लगाने की उनकी हरकतों ने देश की छवि को बिगाड़ा है।
पिछले कुछ वर्षों में देश ने देखा है कि कैसे नोएडा की एब्लेज इंफो सॉल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने पहले 370 अरब का घोटाला किया और फिर एक अन्य कंपनी-वेब वर्क ट्रेड लिंक पर भी करीब 500 करोड़ के फर्जीवाड़े का आरोप लगा। इधर पिछले कुछ ही महीनों में देश का आईटी हब कहलाने वाले नोएडा-गुडग़ांव के दर्जनों फर्जी कॉल सेंटरों ने ढेरों साइबर फर्जीवाड़े कर डाले। इस मामले में आईटी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के नाम पर भारत से हुए फर्जीवाड़े की शिकायतों पर अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन (एफबीआई), इंटरपोल और कनाडा की रॉयल कनेडियन माउंटेड पुलिस ने गुडग़ांव और नोएडा पुलिस को मामलों की जांच करने को कहा।
दिसंबर के शुरुआती हफ्ते में ऐसे करीब 17 साइबर गिरोहों का पर्दाफाश हुआ और उनसे जुड़े 42 लोगों की धरपकड़ हुई। इनमें से 8 कॉल सेंटर गुडग़ांव के थे, जबकि नौ नोएडा के। इन लोगों ने अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत 15 देशों के करीब 50 हजार लोगों के कंप्यूटरों में माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के नाम से भेजे गए पॉप-अप के जरिए वायरस (मालवेयर) आदि भेजे और फिर मालवेयर हटाने के लिए सौ से हजार डॉलर तक ऐंठ लिए। साइबर फर्जीवाड़े का दायरा कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इससे लग जाता है कि नोएडा में ही वर्ष 2018 के दो महीनों-अक्तूबर और नवंबर में 24 नकली कॉल सेंटरों का भंडाफोड़ हुआ और इनसे जुड़े सौ लोग पकड़े गए। इसी तरह गुडग़ांव में वर्ष 2018 में 25 फर्जी कॉल सेंटरों की धरपकड़ हुई।
चिंता की बात यह है कि एटीएम फ्रॉड, बीपीओ के जरिये देश-विदेश में ठगी, क्लोनिंग के जरिये क्रेडिट कार्ड से बिना जानकारी धन-निकासी और बड़ी कंपनियों के अकाउंट व वेबसाइट की हैकिंग और फिरौती वसूली की घटनाएं तो बड़े पैमाने पर हो रही हैं, बैंकिंग से जुड़े सुरक्षात्मक उपायों की साइबर अपराधियों ने हवा निकालकर रख दी है। वे बचाव के डिजिटल उपाय करने वाले महारथियों से दो कदम आगे के जानकार साबित हो रहे हैं। आज कोई इसे लेकर आश्वस्त नहीं हो सकता कि जहां कहीं भी पैसे और सामान के लेनदेन का कोई डिजिटल उपाय काम में लाया जा रहा है, वह फूलप्रूफ है और उसमें धांधली की कोई गुंजाइश नहीं है।
साइबर ठगी के शिकार हुए सारे लोग डिजिटल सुरक्षा के उपायों से पूरी तरह अनभिज्ञ नहीं कहे जा सकते। इनमें से बहुत से लोग एटीएम मशीनों में ठगों द्वारा चोरी-छिपे ग्राहकों के कार्ड की सूचनाएं पढऩे के लिए लगाई गई डिवाइसों (स्कीमर) के कारण अथवा अनजाने में फोन पर मांगी जाने वाली सूचना देने पर जालसाजी के शिकार हो जाते हैं। आखिर इन सारे गोरखधंधों के पीछे कौन है।
जाहिर है, यह साइबर अपराधियों की जो नई पौध देश में सामने आई है और जिसने अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई तक को बेचैन कर दिया है, उसने देश के आईटी संस्थानों में ही साइबर-गुर सीखे हैं। इसलिए देखना होगा कि आखिर वे कौन-सी वजहें हैं जो साइबर जानकारों की फौज अपराध की गली मुड़ गई है। इन कारणों में अमेरिका-ब्रिटेन की कठिन वीजा शर्तों को भी शामिल करना पड़ेगा, जिसकी वजह से भारतीय युवा आईटी प्रोफेशनल्स के लिए विदेशों में नौकरी के अवसर सीमित हुए हैं। दूसरे, देश में ही आईटी की नौकरी के अवसर भी सिकुड़े हैं। यही नहीं, देश में काम कर रही आईटी कंपनियां इन युवा प्रोफेशनल्स के साथ रोमन दासों जैसा व्यवहार कर रही हैं।
आईटी सेक्टर के इस घटाटोप का एक संकेत इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने वर्ष 2017 में दिया था। उन्होंने कहा था कि इस सेक्टर के सीनियरों मैनेजरों को लालच छोडऩा चाहिए और इंडस्ट्री में नए शामिल हो रहे नौजवानों के लिए कुछ त्याग करना चाहिए। असल में पिछले करीब एक दशक से सॉफ्टवेयर उद्योग में नवांगतुकों और निचले-मध्य क्रम के कर्मचारियों का वेतन स्थिर बना हुआ है, जबकि वरिष्ठ पदों पर तैनात लोगों का वेतन एक हजार फीसदी तक बढ़ गया है। जबकि इसी दौरान महंगाई दर कहां से कहां पहुंच गई है। ऐसे हालात में अगर युवा साइबर क्राइम करने का जोखिम ले रहे हैं तो इस पर विचार आईटी इंडस्ट्री को खुद और सरकार को करना चाहिए। फिक्र यह है कि कहीं भारत अब उन बदनाम देशों की लिस्ट में न शामिल हो जाए जहां से साइबर क्राइम के अंतर्राष्ट्रीय गोरखधंधों की शुरुआत होती है।

 

नेता बली न होत है, मतदाता बलवान
Posted Date : 13-Dec-2018 11:46:47 am

नेता बली न होत है, मतदाता बलवान

राजकुमार सिंह
लोकतंत्र की जय हो। फिर साबित हो गया : नेता बली न होत है, मतदाता बलवान। अजेय मान लिये गये नरेंद्र मोदी की भाजपा को नौसिखिया माने जा रहे राहुल गांधी की कांग्रेस ने हालिया विधानसभा चुनावों में जैसी पटखनी दी है, वह मतदाता के विवेक और विशेषाधिकार का ही परिणाम है। अगले साल अप्रैल-मई में ही लोकसभा चुनाव होने हैं। इसीलिए पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों को केंद्रीय सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा था। आखिर इन पांच राज्यों में से तीन : मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में न सिर्फ भाजपा सत्तारूढ़ थी, बल्कि उनमें लोकसभा की कुल 65 सीटें हैं, जो लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 10 प्रतिशत से भी ज्यादा है। पिछली लोकसभा में राजस्थान ने तो सभी 25 सीटें भाजपा को दी थीं, जबकि मध्य प्रदेश ने 29 में से 26 और छत्तीसगढ़ ने 11 में से 10 सीटें दी थीं। यह भी कि इन तीन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच लगभग सीधा मुकाबला था। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना रहा कि तेलंगाना और मिजोरम समेत इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव दिल्ली की सत्ता का सेमीफाइनल होंगे और परिणाम फाइनल का संकेतक।
अब जरा सेमीफाइनल के परिणामों और उनके संकेतकों को समझने की कोशिश करें। हर पांच साल में सरकार बदल जाने की परंपरा के चलते भी माना जा रहा था कि राजस्थान में सत्ता परिवर्तन तय है। राजसी पृष्ठभूमि वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कार्यशैली को लेकर खुद भाजपा में असंतोष के स्वर उठते रहे तो किसानों से लेकर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन भी सामने आते रहे। इस सबसे ऐसा लग रहा था कि अपने मिजाज के अनुरूप राजस्थान एकतरफा जनोदश देगा, लेकिन परिणाम वैसे नहीं आये। बेशक राजस्थान में अगली सरकार कांग्रेस की ही बनेगी, लेकिन भाजपा ने उसे जोरदार टक्कर देते हुए सम्मानजनक प्रदर्शन किया है। एकतरफा मुकाबले की उम्मीद के विपरीत कांग्रेस जैसे-तैसे बहुमत ही क्यों प्राप्त कर पायी, इसका विश्लेषण आलाकमान और प्रदेश नेतृत्व को अवश्य करना चाहिए ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में उन गलतियों की पुनरावृत्ति से बचा जा सके। जाहिर है, आत्ममंथन भाजपा भी करेगी कि वो कौन से क्षेत्र थे, जिनमें थोड़ा जोर लगाकर इस परिणाम को पलटा भी जा सकता था। ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा निश्चय ही इससे बेहतर प्रदर्शन करना चाहेगी। इसलिए भी, क्योंकि राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान भी नारे सुनायी पड़े : वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी से बैर नहीं। भाजपा का यह काम आसान होगा या मुश्किल, यह कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री के चयन पर निर्भर करेगा।
मध्य प्रदेश में दोनों दलों में कांटे की टक्कर का अनुमान लगाया जा रहा था, परिणाम भी लगभग वैसे ही आये हैं। राजस्थान में जहां कांग्रेस अनुभवी अशोक गहलोत और युवा सचिन पायलट को आगे कर चुनाव लड़ी, वहीं मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया मोर्चे पर थे। बेशक चुनाव राजनीति में हार-जीत और सत्ता ही अंतिम सत्य होती है, लेकिन लगातार तीन कार्यकाल के बाद भी सत्ता विरोधी भावना का इतना कम असर भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमाएं आपस में मिलती हैं, लेकिन राजनीतिक मूड एकदम अलग दिखा। वैसे वसुंधरा राजे भी मूलत: बेटी तो मध्य प्रदेश की ही हैं।
राजस्थान से तो मध्य प्रदेश की सीमाएं ही जुड़ती हैं, पर छत्तीसगढ़ का तो गठन ही उसके विभाजन से हुआ है। मध्य प्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी भाजपा ने लगातार तीन कार्यकाल शासन किया। बेदाग छवि वाले बताये जाने वाले रमन सिंह मुख्यमंत्री रहे, लेकिन मंगलवार के नतीजों ने उन्हें धूल-धूसरित कर दिया। पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जन कांग्रेस से गठबंधन कर मायावती की बसपा ने हालांकि चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था, लेकिन कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर सभी को चौंका दिया। छत्तीसगढ़ का यह जनादेश इसलिए और भी अहम है क्योंकि राजस्थान-मध्य प्रदेश की तरह वहां कांग्रेस के पास कोई स्थापित नेतृत्व नहीं था। इससे पता चलता है कि जब मतदाता बदलाव का मन बना लेता है, तब नेतृत्व आदि का मुद्दा उसके लिए गौण हो जाता है।
बेशक सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम की सत्ता कांग्रेस ने गंवायी है, पर भाजपा के हाथ भी वहां खाता खोलने से ज्यादा बड़ी उपलब्धि नहीं आयी है। मिजोरम की सत्ता मिजो नेशनल फ्रंट के हाथ जाना ज्यादा नहीं चौंकाता क्योंकि पूर्वोत्तर में इस सोच की जड़ें बहुत गहरी हैं कि उसकी जन आकांक्षाओं को राष्ट्रीय के बजाय क्षेत्रीय दल और नेतृत्व बेहतर समझता है। यह अलग बात है कि ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की सरकारें बेहतर आर्थिक मदद और विकास के लिए केंद्र की सरकार से मित्रवत संबंध ही रखती हैं। फिर भी इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि कांग्रेस के हाथ से मिजोरम की सत्ता फिसल गयी है। मिजोरम की सत्ता गंवाने से कम झटका कांग्रेस को तेलंगाना के परिणामों से भी नहीं लगा होगा, जहां उसने भाजपा के प्रति प्रेमभाव रखने वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति को सत्ता से हटाने के लिए उस तेलुगू देशम से गठबंधन कर लिया, जिसका गठन ही कांग्रेस के विरुद्ध हुआ था। फिर भी टीआरएस को दो-तिहाई बहुमत मिल गया। ऐसा माना जा रहा है कि पृथक तेलंगाना के गठन और विकास में तेलुगू देशम के मुखिया एवं आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने जिस तरह के अड़ंगे लगाये, उसका खामियाजा कांग्रेस को भी भुगतना पड़ा।
अब जरा सेमीफाइनल के नतीजों के आईने में फाइनल की संभावित तस्वीर देखने की कोशिश करें। साफ है कि मोदी और उनकी भाजपा अजेय नहीं हैं। बेशक कांग्रेस भी यही करती रही है, लेकिन विधानसभा चुनावों में पराजय का ठीकरा प्रदेश नेतृत्व के सिर फोडऩे से काम नहीं चलेगा। जब हर चुनाव में मोदी ही भाजपा के स्टार प्रचारक होंगे और उन्हें ही हर जीत का श्रेय भी दिया जायेगा, तब पराजय की जिम्मेदारी खुद ही लेनी होगी यानी मोदी का जादू अब उतरने लगा है। दूसरी ओर पप्पू कह कर जिन राहुल गांधी का मजाक उड़ाया जाता रहा है, उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह बड़ा करिश्मा कर दिखाया है। इससे पहले जब कांग्रेस ने पंजाब की सत्ता अकाली-भाजपा गठबंधन से छीनी थी, तब उसका श्रेय राहुल से ज्यादा कैप्टन अमरेंद्र सिंह को देने की कोशिशें हुईं। बेशक अनुभवी कैप्टन की संजीदा छवि ने आम आदमी पार्टी को पीछे छोड़ कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी, लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई कांग्रेसी चेहरा नहीं, जो जीत के श्रेय का दावेदार नजर आता हो।
जाहिर है, कांग्रेसी सेमीफाइनल के नतीजों को फाइनल का संकेतक बताना चाहेंगे, लेकिन चुनावी राजनीति अंकगणित नहीं है। हर चुनाव में मुद्दे और समीकरण बदलेंगे। लोकसभा चुनाव में मुकाबला सीधे मोदी और राहुल के बीच होगा, जबकि सच यह है कि अनेक राज्यों में कांग्रेस अपने बूते चुनाव लडऩे तक ही हैसियत में नहीं है। मान लिया कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की 65 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ज्यादा जीत सकती है। बदले परिदृश्य में हरियाणा और पंजाब की ज्यादातर लोकसभा सीटें भी कांग्रेस की झोली में जा सकती हैं, पर उससे आगे? 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी है और उसका चुनावी भविष्य सपा-बसपा-रालोद गठबंधन पर निर्भर करेगा। बिहार में कांग्रेस को लालू यादव के राजद की बैसाखियां चाहिए तो आंध्र में तेलुगू देशम की। पश्चिम बंगाल में उसे वाम मोर्चे से हाथ मिलाने की मजबूरी होगी, जिससे केरल में मुकाबला रहता है तो तमिलनाडु में बिखरती द्रमुक के अलावा कोई साथी नजर नहीं आता। कर्नाटक में अवश्य जनता दल (एस) को मुख्यमंत्री पद देने के बाद कांग्रेस लोकसभा सीटों में बड़ी हिस्सेदारी की उम्मीद कर सकती है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक कांग्रेस को मजबूत होते कभी नहीं देखना चाहेंगे। हां, केंद्र में सरकार के लिए जरूरत पडऩे पर समर्थन देने में उन्हें गुरेज नहीं होगा। यह विश्लेषण बहुत विस्तृत हो सकता है, लेकिन निष्कर्ष यही है कि सेमीफाइनल में बढ़त के बावजूद फाइनल के लिए गठबंधन की टीम बनाना और फिर मोदी का मुकाबला करने की चुनौती अभी राहुल गांधी के समक्ष शेष है। वैसे सेमीफाइनल के नतीजे बताते हैं कि किसी भी दल और नेता को महाबली होने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। आखिर वर्ष 2004 में विजयी गठबंधन के जरिये ही राजनीतिक नौसिखिया सोनिया गांधी ने आजाद भारत के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक अटल बिहारी वाजपेयी के नीचे से सत्ता सिंहासन खिसका दिया था।

 

कांग्रेस की वापसी
Posted Date : 13-Dec-2018 11:46:08 am

कांग्रेस की वापसी

विधानसभा चुनावों के नतीजों ने जनता के बदलते मन-मिजाज की एक झलक पेश की है। इन चुनावों को 2019 के आम चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा है, इसलिए इनके नतीजों में सभी राजनीतिक दलों के लिए कुछ न कुछ संदेश जरूर छिपा है। एक बात साफ है कि केंद्र और देश के ज्यादातर राज्यों में सत्तारूढ़ बीजेपी को करारा झटका लगा है। 2014 के आम चुनाव और उसके बाद के कई विधानसभा चुनावों में जीत के जरिये उसने अपनी अजेयता का एक मिथक रच डाला था।
मामूली अंतर से मिली जीत को, यहां तक कि गोवा में मिली हार को भी वह अपने पक्ष में एकतरफा जनादेश बताने में सफल रही। लेकिन पांच राज्यों के परिणामों से स्पष्ट है कि अब माहौल उसके खिलाफ हो रहा है। अब तक बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे के सहारे चुनाव दर चुनाव जीत रही थी, लेकिन अभी जीत का सिलसिला अचानक टूट जाना यह बताता है कि मोदी का करिश्मा चल नहीं पा रहा। जनता अब स्थानीय मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दे रही है। सबसे बड़ी बात यह कि हिंदीभाषी राज्यों में उसे कांग्रेस में उम्मीद नजर आ रही है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस की वापसी हो रही है। 
छत्तीसगढ़ में तो पार्टी का नेतृत्व ही खत्म हो गया था। वहां कांग्रेस ने एकतरफा बहुमत हासिल किया है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में अंदरूनी टकराहटों से उबरकर उसने अपना जमीनी ढांचा दोबारा खड़ा किया है। इससे यह धारणा टूटी है कि कांग्रेस में मोदी का मुकाबला करने की क्षमता नहीं है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले एक वर्ष में लगातार अपने को किसानों, आदिवासियों, दलितों और युवाओं के मुद्दे पर फोकस किया और केंद्र सरकार की नाकामियों की ओर जनता का ध्यान खींचा। कांग्रेस के पक्ष में आए जनादेश को भविष्य के नेता के रूप में राहुल गांधी की स्वीकृति की तरह भी देखा जाएगा, हालांकि उनकी आगे की यात्रा काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगी कि कांग्रेस की सरकारें जनता की अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतरती हैं। 
उन्हें इस तरह काम करना होगा कि पार्टी उनकी मिसाल लोकसभा चुनावों में दे सके। इसके साथ ही कांग्रेस के साथ कभी हां कभी ना के रिश्ते में जुड़े क्षेत्रीय दलों में भी राहुल गांधी के नेतृत्व से जुड़े संशय कुछ कम हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो बीजेपी विरोधी महागठबंधन को मजबूती मिलेगी। मामले का दूसरा पहलू यह है कि तमाम नाराजगी के बावजूद बीजेपी के लिए सूपड़ा साफ जैसी स्थिति कहीं नहीं है और दोनों बड़े हिंदीभाषी राज्यों में उसने कांग्रेस को कांटे की टक्कर दी है। वोटरों का संदेश यही है कि जो वादे पार्टियां करें, वे पूरे भी होने चाहिए। भावनात्मक मुद्दों की हवा निकलना इन नतीजों का दूसरा संदेश है। आम चुनावों में तीन-चार महीने का वक्त बाकी है। देखें, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता से जुड़ाव बनाने में इस समय का कैसा इस्तेमाल करते हैं।

 

ईमानदार नहीं सरकार गंगा की परिपूर्णता पर
Posted Date : 12-Dec-2018 11:43:39 am

ईमानदार नहीं सरकार गंगा की परिपूर्णता पर

भरत झुनझुनवाला
केन्द्र सरकार ने हाल में एक विज्ञप्ति में गंगा की परिपूर्णता को पुन: स्थापित करने के प्रति अपना संकल्प जताया है। सरकार के इस मंतव्य का स्वागत है। गंगा के अस्तित्व पर इस समय जल विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं के संकट हैं। इन परियोजनाओं के अंतर्गत गंगा के पाट में एक किनारे से दूसरे किनारे तक बैराज या डैम बना दिया जाता है और नदी का पूरा पानी इन बैराज के पीछे रुक जाता है। बैराज के नीचे नदी सूख जाती है। गंगा अपने साथ हिमालय से जो आध्यात्मिक शक्तियां लाती हैं, जो गंगा में मछलियां नीचे से ऊपर जाती हैं और जो गाद ऊपर से नीचे आती है, यह सब बैराजों के पीछे रुक जाता है।
पूर्व यूपीए सरकार ने गंगा को पुनर्जीवित करने के लिये सात आईआईटी के समूह को गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट प्लान बनाने का कार्य दिया था। इस कार्य में देरी होने के चलते यूपीए सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव बी. के. चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। इस कमेटी ने संस्तुति दी कि गंगा पर बन रही जल विद्युत परियोजनाओं से 20 से 30 प्रतिशत पानी लगातार छोड़ा जाना चाहिये। कमेटी ने स्पष्ट लिखा था कि उनकी यह संस्तुति केवल उस अंतरिम समय तक के लिये है जब तक आईआईटी के समूह द्वारा अन्तिम संस्तुतियां नहीं दी जातीं। वर्तमान एनडीए सरकार ने चतुर्वेदी कमेटी की इस संस्तुति को लागू कर दिया है। केरल सरकार द्वारा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में कहा गया है कि पर्यावरण मंत्रालय नई जलविद्युत परियोजनाओं से 20 से 30 प्रतिशत पानी छोडऩे को कह रहा है।
इसके बाद आईआईटी समूह की रपट प्रस्तुत हुई। आईआईटी समूह ने संस्तुति दी कि लगभग 50 प्रतिशत पानी गंगा की परिपूर्णता बनाये रखने के लिये छोड़ा जाना चाहिये। लेकिन वर्तमान एनडीए सरकार को यह संस्तुति नहीं पसंद आयी। इसलिये उन्होंने एक दूसरी कमेटी बनाई। इस कमेटी ने आईआईटी समूह की 50 प्रतिशत की संस्तुति को घटाकर बी. के. चतुर्वेदी की 20 से 30 प्रतिशत की संस्तुति पर अपनी मोहर लगा दी। इस दूसरी कमेटी में आईआईटी दिल्ली के एक प्रोफेसर सदस्य थे जो कि आईआईटी समूह में भी भागीदार थे। इन्होंने अपने ही द्वारा दी गई संस्तुतियों को सरकार के इशारे पर घटा दिया। सरकार की सदा यह रणनीति रहती है कि एक कमेटी के ऊपर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी कमेटी बनाते जाओ जब तक कोई कमेटी सरकार की इच्छानुसार संस्तुति न दे।
इस समय गंगा और उसकी सहायक नदियों पर चार जल विद्युत परियोजनायें बन रही हैं—फाटा, सिंगोली, विष्णुगाड एवं तपोवन। वर्तमान विज्ञप्ति में कहा गया है कि इन परियोजनाओं द्वारा भी 20 से 30 प्रतिशत पानी पर्यावरणीय प्रवाह के लिये छोड़ा जायेगा। वास्तव में डैम बनाकर उससे पानी छोडऩे से नदी की परिपूर्णता स्थापित नहीं होती। बैराज के पीछे पानी के ठहरे रहने से पानी में निहित आध्यात्मिक शक्तियां कमजोर हो जाती हैं। मछलियां नीचे से ऊपर नहीं जा पाती हैं। ये मछलियां ही पानी को साफ रखती हैं। ऊपर से आने वाली गंगा की गाद में तांबा, थोरियम तथा अन्य लाभप्रद धातुएं पायी जाती हैं। इस गाद के डैम के पीछे रुक जाने से नीचे के पानी में ये तत्व समावेश नहीं करते। केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन पूना ने एक अध्ययन में बताया है कि डैमों का आकार इस प्रकार बनाया जा सकता है कि उसमें बीच का एक हिस्सा खुला रहे, जिससे पानी के बहाव की निरन्तरता बनी रहे तथा मछली और गाद का आवागमन हो सके। जरूरी था कि वर्तमान में बन रही परियोजनाओं के डिजाइन को बदला जाता और इनसे पानी के निरन्तर बहाव को स्थापित किया जाता लेकिन वर्तमान विज्ञप्ति में इसका उल्लेख नहीं है।
वर्तमान में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर सात जल विद्युत परियोजनायें चालू हैं। मनेरी भाली 1, मनेरी भाली 2, टिहरी, कोटेश्वर, विष्णुप्रयाग, श्रीनगर और चीला। इन परियोजनाओं के लिये विज्ञप्ति में कहा गया है कि तीन साल के अन्तर्गत ये 20 से 30 प्रतिशत पानी छोडऩे की व्यवस्था करेंगे। इन्हें तीन साल की अवधि देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। हर बैराज के नीचे गेट लगे होते हैं। इन गेटों को सप्ताह या पन्द्रह दिन में एक बार खोला जाता है, जिससे बैराज के पीछे जमा बालू निकल कर नीचे चली जाये। इन गेटों को खोल कर 20 से 30 प्रतिशत पानी तत्काल छोड़ा जा सकता था लेकिन सरकार ने इन्हें तीन साल का समय देकर तीन साल तक उस पानी का उपयोग कर लाभ कमाने की छूट दे दी है।
आईआईटी समूह ने सिंचाई के बैराजों के लिये कोई स्पष्ट संस्तुति नहीं दी थी। लेकिन 1917 में स्वर्गीय मदन मोहन मालवीय की अगुआई में ब्रिटिश सरकार से एक समझौता हुआ था। इसमें हरिद्वार में बैराज के लिये कहा गया था कि इसमें बीच में एक हिस्सा खुला छोड़ा जायेगा, जिस पर कोई रेग्यूलेटर नहीं लगाया जायेगा। इस खुले हिस्से से पानी निरन्तर बहेगा और गंगा की आध्यात्मिक शक्ति, मछलियों एवं गाद का प्रवाह बना रहेगा। इस समझौते में यह भी कहा गया था कि 28 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेन्ड (क्यूमिक) पानी हरिद्वार की हर की पैड़ी से बहने वाली नहर में सदा बनाये रखा जायेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने इस समझौते को आधार बनाते हुए कहा है कि हरिद्वार से 36 क्यूमिक और नरौरा से 24 क्यूमिक पानी छोड़ा जायेगा। सरकार का यह मंतव्य कमजोर है। पहला यह कि मालवीयजी के समझौते में बैराज में बिना रेग्यूलेटर के एक खुले दरवाजे की व्यवस्था थी जो कि हरिद्वार और नरौरा में नहीं है। दूसरे, मालवीयजी के समझौते में 28 क्यूमिक पानी नदी के लिये नहीं छोड़ा गया था बल्कि नदी से निकाली जाने वाली नहर, जिस पर हर की पैड़ी बनी हुई है, उसके लिये नहीं छोड़ा गया था। निकाले जाने वाले पानी के आधार पर नदी के प्रवाह को स्थापित करना पूर्णतया अनुचित है। तीसरे, हरिद्वार में 36 क्यूमिक तथा नरौरा में 24 क्यूमिक पानी इन स्थानों पर नदी में बहने वाले पानी का मात्र 6 प्रतिशत और 3 प्रतिशत बैठता है। यह आईआईटी समूह द्वारा हाइड्रोपावर के लिये संस्तुति दिये गये 50 प्रतिशत से बहुत ही कम है।
देश की नदियों को पुनर्जीवित करने के लिये जरूरी है कि बैराज तथा डैम में एक हिस्सा खुला छोड़ा जाये। एनडीए सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है। इसलिये देश की नदियों का भविष्य संकट में ही दिख रहा है। हाल ही में आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल ने 111 दिन की निराहार तपस्या कर शरीर छोड़ दिया। सन्त गोपाल दास को भोजन त्यागे हुए 130 दिन से अधिक हो चुके हैं और स्वामी आत्मबोधानन्द को लगभग 40 दिन। दोनों को अस्पताल में जबरन ले जाकर जबरदस्ती खिलाया जा रहा है। लगता है कि मोदी सरकार आंख मूंदे हुए है।
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मौत के गड्ढे
Posted Date : 10-Dec-2018 11:50:50 am

मौत के गड्ढे

प्रशासनिक संवेदनहीनता की दास्तां
सुप्रीमकोर्ट की पहल पर बनी सडक़ सुरक्षा कमेटी की रिपोर्ट चौंकाती है कि चार सालों में करीब पंद्रह हजार लोग सडक़ों पर बने गड्ढों की वजह से मौत का शिकार हुए हैं। रिपोर्ट पर कड़ी नाराजगी जताते हुए सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी उद्वेलित करती है कि सीमा पर आतंकवादियों के हमले में उतने लोग नहीं मरते, जितने गड्ढों में गिरने की वजह से मरते हैं। ये आंकड़े स्थानीय प्रशासन व निकायों की आपराधिक लापरवाही को ही उजागर करते हैं कि उन्हें लोगों की जान की कितनी परवाह है। ये कहानी हर छोटे-बड़े शहर की है। ‘सब चलता है’ की तर्ज पर शहरों में सडक़ों के गड्ढे महीनों खुले रहते हैं जब तक कि कोई दुर्घटना होने पर जनता का दबाव न पड़े। जो बताता है कि स्थानीय प्रशासन कितनी लापरवाही से लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रहा है। जो हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि ये गंभीर समस्या स्थानीय चुनावों में मुद्दा क्यों नहीं बनती। हमारी राजनीति लगातार कृत्रिम मुद्दे उभारकर आम आदमी से जुड़े उन गंभीर मुद्दों को हाशिये पर डाल देती है, जिनसे लोगों का रोज का वास्ता पड़ता है। यह स्थिति कमोबेश सारे देश में है।
ऐसे में देखना यह होगा कि सुप्रीमकोर्ट की सक्रियता के बाद गड्ढों को लेकर अधिकारी कितने सजग और सक्रिय होते हैं। पिछले दिनों सुप्रीमकोर्ट ने ऐसी ही सख्ती स्पीड ब्रेकरों से होने वाली दुर्घटनाओं की बाबत दिखायी थी। मगर किसी गली-मोहल्ले में चले जायें तो तमाम मानकों के विपरीत बने स्पीड ब्रेकर नजर आयेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि हर मामले में कोर्ट को ही पहल क्यों करनी पड़ती है। स्थानीय प्रशासन और निकायों के निर्वाचित प्रतिनिधियों व सरकारी अधिकारियों का क्या यह दायित्व नहीं बनता कि वे तुरंत गड्ढों का संज्ञान लेकर कार्रवाई करें ताकि किसी दुर्घटना की गुंजाइश ही न रहे। यहां सवाल नागरिकों की जिम्मेदारी का भी है कि वे ऐसे मामलों में अपने स्तर पर पहल क्यों नहीं करते। गड्ढे न भी भरवा सकें तो भी मीडिया व सामाजिक समूहों के जरिये प्रशासन पर दबाव तो बनवा ही सकते हैं। यहां सवाल शहरीकरण को लेकर अपनायी जा रही ढुलमुल नीतियों का भी है जो ठेकदारों के भरोसे सडक़ों को छोड़ देती हैं और सडक़ निर्माण की गुणवत्ता की जांच-पड़ताल नहीं करती। सडक़ों में गड्ढे होना जहां घटिया निर्माण सामग्री का परिणाम है, वहीं सडक़ों व अन्य निर्माण कार्यों को लेकर दूरदर्शी तकनीकी नजरिये का अभाव होना भी है।

 

डॉक्टरों पर निगाहें
Posted Date : 10-Dec-2018 11:49:51 am

डॉक्टरों पर निगाहें

महंगी दवाओंं से बचाने की पहल
हिमाचल की जनता के लिए फिलहाल महंगी दवाओं से कुछ राहत की उम्मीदें जगी हैं। सरकार ने डॉक्टरों को सस्ती जेनेरिक दवाएं देने के लिए अपने नियमों में परिवर्तन किए हैं। वर्ष के पूर्वार्ध में ही सरकार ने डॉक्टरों को महंगी ब्रांड वाली दवाओं की अपेक्षा उसी रसायन की जेनेरिक दवाएं देने का निर्देश दिया था। साथ ही यह कि यदि वे कुछ महंगी दवाएं रोगियों को लिख रहे हैं तो उनका स्पष्टीकरण उन्हें लिखित में देना होगा। सरकार ने सरकारी डॉक्टरों को पर्चों की कार्बन कॉपी साथ में रखने की और उन्हें सरकारी कार्यालय में जमा कराने का निर्देश दिया था। बाद में लेखा पुनरीक्षण में पाया गया कि लगभग 400 डॉक्टरों ने जेनेरिक दवाओं की अपेक्षा फार्मा कंपनी द्वारा प्रायोजित महंगी दवाएं ही लिखीं। उन पर कार्रवाई की जा रही है। डॉक्टरों और बड़ी फार्मा कंपनियों की जुगलबंदी को बंद करने के लिए सरकार को अभी कई कदम आगे चलना है। सरकार को इससे संबंधित एक विधेयक लाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि जेनेरिक दवाएं सभी स्थानों पर सुविधापूर्वक मिल जाएं और उनमें प्रयोग किए गए रसायनों की उचित गुणवत्ता की जांच की जाए। साथ ही हर गरीब को यह सुविधा व सूचना प्रदान की जाए कि सस्ती जेनेरिक दवाएं सभी स्थानों और सभी लोगों की पहुंच में उपलब्ध होंगी।
दरअसल, हालत यह है कि जिन दवाओं की कीमत फार्मा कंपनियां 8 रुपये तय करती हैं, जेनेरिक दवाओं में वे एक रुपये के मूल्य पर उपलब्ध हैं। आखिर जनता दवाओं की 8 गुनी कीमत क्यों दे। मालूम हो कि जेनेरिक दवाएं चलन में फिसड्डी क्यों हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि कई निर्माताओं की दवाएं कई क्वालिटी टेस्ट से बच निकलती हैं, जिसका फायदा फार्मा कंपनियों की दवाएं उठाती हैं। जेनेरिक दवाओं की बाजार में अनुपलब्धता भी कारण है। सरकार सुनिश्चित करे कि जेनेरिक दवाओं के जांच मापदंडों से कोई भी दवा बचने न पाए। इनकी उपलब्धता आम आदमी तक आसानी से हो।