तरह-तरह की बीमारियों के अंधेरे में वह साल एक सूर्योदय की तरह था। यह ठीक है कि 75 साल पहले जिन एंटीबायोटिक का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ, उनके पास सभी बीमारियों का इलाज नहीं था, लेकिन दुनिया की बहुत सी महामारियों के लिए वे रामबाण की तरह थीं। इसने मानवता को प्लेग जैसी महामारी से मुक्ति दिलाई, जिसके आतंक से यह खौफ पैदा हो गया था कि कहीं यह पूरी दुनिया की मानव आबादी को ही न निगल जाए। वर्ष 1340 में जब यह बीमारी यूरोप पहुंची, तो वहां इसने एक साल में ही ढाई करोड़ लोगों की जान ले ली थी। ऐसी बीमारियों की सूची बहुत लंबी है, जिनका रामबाण इलाज एंटीबायोटिक के आगमन के बाद ही संभव हुआ। और प्लेग जैसी बीमारियों का तो लगभग उन्मूलन ही हो गया। आज भले ही एंटीबायोटिक की आलोचना या उसे कोसना फैशन में आ गया हो, लेकिन यह सच है कि उसने अब तक करोड़ों या शायद अरबों लोगों की जान बचाई है। कुछ मामलों या कुछ खास लोगों में इसकी एलर्जी जैसे दुष्प्रभाव भले ही दिख जाएं, लेकिन अभी भी बहुत सी बीमारियों का इलाज सिर्फ इन्हीं के भरोसे किया जाता है। सबसे बड़ी बात है कि ये आसानी से उपलब्ध भी हैं यही आसानी ही अब समस्या के रूप में सामने आ रही है। समस्या इतनी बड़ी है कि अपनी हीरक जयंती मना रही एंटीबायोटिक अपनी शताब्दी भी मना पाएगी, इस पर सवाल उठ रहे हैं। समस्या दो स्तरों पर है। आसानी से उपलब्ध होने के कारण इनका इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा और बहुत ज्यादा होने लगा है। इस वजह से शहरों में ही नहीं, गांवों और यहां तक कि जंगलों में भी जब दूध, पानी, शहद या किसी भी प्राकृतिक चीज के नमूने लिए जाते हैं, तो उनमें एंटीबायोटिक के अवशेष मिल जाते हैं। इस वजह से एक तो तरह-तरह केकीटाणु एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोध विकसित करते जा रहे हैं। यानी उन पर अब बहुत से एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होता। पहले आमतौर पर यह होता था कि कीटाणु एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोध विकसित कर लेते थे, उनके इलाज के लिए नई एंटीबायोटिक बाजार में आ जाती थी। लेकिन अब इस मामले में एक दूसरी समस्या खड़ी हो गई है। एक तो कुछ कीटाणु ऐसे हो गए हैं, जो सुपरबग कहलाने लगे हैं, उन पर किसी भी एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होता। दूसरी समस्या यह है कि नई एंटीबायोटिक खोजने का काम मंदा पड़ गया है। किसी भी नई एंटीबायोटिक को खोजने और सारे परीक्षण करके बाजार में उतारने में दो दशक या उससे ज्यादा समय लग जाता है। इसमें इतना ज्यादा निवेश होता है कि शुरुआत में उनकी कीमत बहुत ज्यादा रखनी पड़ती है, जिसकी वजह से वे कम बिकती हैं, कंपनियों को घाटा होता है और जब तक उनके बड़े स्तर पर बिकने का मौका आता है, कीटाणु उनका प्रतिरोध विकसित कर चुके होते हैं। तमाम बड़ी दवा कंपनियों ने नई एंटीबायोटिक विकसित करने से अपना हाथ खींच लिया है। यह काम अब कुछ छोटी कंपनियां ही कर रही हैं। यह भी कहा जाता है कि यह समस्या एंटीबायोटिक की नहीं, बाजार की पैदा की हुई है। तमाम बीमारियों का इलाज करने वाली एटीबायोटिक के पास बाजार की इस समस्या का कोई इलाज नहीं। पर यह भी सच है कि हमारे पास एंटीबायोटिक का अभी कोई विकल्प नहीं है। जब तक नहीं है, हमें उसके सौ नहीं दो सौ साल जीने का इंतजाम करना होगा।
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