न्यायाधीश कार्नडेफ ने जब कठघरे में खड़े युवक को फांसी की सजा सुनाई तो वह हंस रहा था। न्यायाधीश ने सोचा कि शायद इसने अपनी फांसी की सजा सुनी न हो। यह सोचकर उसने उस युवक को दोबारा कहा, ‘सुना, तुमने, पुलिस इंस्पेक्टर सैंडर्स पर बम फेंकने के जुर्म में तुम्हें फांसी की सजा दी जाती है।’ युवक मुस्कराया और बोला, ‘बस, साहब, फांसी? हम भारतीय मौत से नहीं डरा करते। यह तो मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे फांसी के फंदे पर झूल कर भारत मां की सेवा करने का अवसर मिलेगा।’ जज ने कहा, ‘तुम्हें उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाता है।’ युवक तिलमिला उठा, ‘नहीं-नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं। यदि आपके मन में जरा भी दया है तो मुझे 5 मिनट का समय दीजिए ताकि मैं अदालत में बैठे अपने साथियों को बता सकूं कि बम कैसे बनाया जाता है।’ न्यायाधीश झल्लाया और कुर्सी छोडक़र चला गया। 11 अगस्त, 1908 को भगवद्गीता हाथ में लेकर 18 वर्षीय युवक धैर्य के साथ खुशी-खुशी फांसी चढ़ गया। यह वीर कोई और नहीं बल्कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी महान देशभक्त खुदीराम बोस थे।
प्रस्तुति : मनीशा देवी
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