मुकुल व्यास
भारत ने 2023 में शुक्र ग्रह पर एक परिक्रमा यान भेजने की योजना बनाई है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने भारत के इस इरादे का स्वागत किया है क्योंकि जांच-पड़ताल की दृष्टि से शुक्र अभी तक उपेक्षित ग्रह ही है। पिछले दो दशकों में खगोल वैज्ञानिकों और अंतरिक्ष एजेंसियों का अधिकतर ध्यान मंगल और चंद्रमा की तरफ ही गया है। भारत ने इस यान पर उपकरण भेजने के लिए दुनियाभर के वैज्ञानिकों को अपने प्रस्ताव भेजने को कहा है।
भारतीय यान शुक्र की जांच के लिए उसके वायुमंडल में एक गुब्बारा भेजेगा। यान का वजन संभवत: 2500 किलोग्राम होगा। उसके द्वारा ले जाये जाने वाले पेलोड का वजन 100 किलोग्राम तक हो सकता है। इसे भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली रॉकेट, भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्क 3 से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जाएगा। परिक्रमा यान को शुरू में शुक्र की अंडाकार कक्षा में स्थापित किया जाएगा। पृथ्वी की तरह शुक्र की आयु करीब 4.5 अरब वर्ष है। उसका आकार और द्रव्यमान भी लगभग पृथ्वी के बराबर है। इस ग्रह पर ग्रीन हाउस प्रभाव की वजह से कार्बनडाईऑक्साइड का घना वायुमंडल बना।
शुक्र के वायुमंडल के अध्ययन से वैज्ञानिकों को पृथ्वी के वायुमंडल के गठन को समझने में मदद मिलेगी। शुक्र की विषम परिस्थितियों को देखते हुए उसका अध्ययन करना आसान नहीं है। उसके घने बादलों के कारण परिक्रमा यान से भी रिसर्च करना कठिन है। भीषण गर्मी, उच्च दबाव और सल्फ्यूरिक एसिड (तेजाब) की बूंदों के कारण ग्रह की सतह पर उतरना तकनीकी दृष्टि से एक बहुत बड़ी चुनौती है। शुक्र पर अभी तक भेजे गए 40 से अधिक मिशनों में करीब आधे विफल रहे हैं और कुछ गिनेचुने यान ही उसकी सतह पर उतरने में सफल रहे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने यान के साथ भेजे जाने वाले 12 उपकरणों का चुनाव कर लिया है और अब वह यह चाहता है कि दूसरे देशों के वैज्ञानिक भी इसमें शामिल हों।
शुक्र अन्वेषण के लिहाज से एक दिलचस्प ग्रह है। कुछ वैज्ञानिकों ने शुक्र के बादलों में जीवन की तलाश करने का सुझाव दिया है। भारतीय मूल के वैज्ञानिक संजय लिमये के नेतृत्व में रिसर्चरों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एस्ट्रोबायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित शोधपत्र में शुक्र के वायुमंडल में पारलौकिक जीवाणु जीवन के विद्यमान होने की संभावना जताई है। लिमये अमेरिका की विस्कोंसिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के स्पेस साइंस इंजीनियरिंग सेंटर के ग्रह-वैज्ञानिक हैं।
लिमये ने बताया कि शुक्र ग्रह के पास जीवन के विकसित होने के लिए पर्याप्त समय था। शुक्र के विकास के कुछ मॉडलों से पता चलता है कि शुक्र पर कभी आवास योग्य जलवायु थी और उसकी सतह पर लगभग दो अरब वर्ष तक तरल जल की मौजूदगी थी। इतने लंबे समय तक तो शायद मंगल पर भी पानी मौजूद नहीं रहा।
इस शोधपत्र के सहलेखक और नासा के एम्स रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक डेविड जे.स्मिथ ने कहा कि पृथ्वी की सतह पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया जैसे जीवाणु वायुमंडल में पहुंच सकते हैं। वैज्ञानिकों ने विशेष उपकरणों से युक्त गुब्बारों की मदद से पृथ्वी की सतह से 41 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर इन जीवाणुओं को जीवित पाया है। पृथ्वी पर ऐसे जीवाणुओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो अत्यंत विषम परिस्थितियों में वास करते हैं। दुनिया के गर्म पानी के स्रोतों,गहरे समुद्रों में जलतापीय छिद्रों, प्रदूषित इलाकों के विषाक्त कीचड़ और तेजाबी झीलों में भी जीवाणुओं को पनपते हुए देखा गया है। शोधपत्र के एक अन्य सहलेखक राकेश मोगुल का कहना है कि पृथ्वी पर बहुत ही तेजाबी परिस्थितियों में भी जीवन पनप सकता है और कार्बनडाईऑक्साइड से भी पोषित हो सकता है। उन्होंने बताया कि शुक्र के बादलों से भरे अत्यंत परावर्ती और तेजाबी वायुमंडल में मुख्य रूप से कार्बनडाईऑक्साइड और सल्फ्यूरिक एसिड से युक्त पानी की बूंदें पाई जाती हैं।
शुक्र ग्रह की आवास योग्यता का विचार सबसे पहले 1967 में प्रसिद्ध जीव-भौतिकविद हेरल्ड मोरोविट्ज और खगोल-वैज्ञानिक कार्ल सेगन ने रखा था। कुछ दशकों बाद ग्रह-वैज्ञानिकों डेविड ग्रीनस्पून, मार्क बुलक और उनके सहयोगियों ने इस विचार को और आगे बढ़ाया। शुक्र के वायुमंडल में जीवन की संभावना के मद्देनजर 1962 और 1978 के बीच शुक्र पर कई खोजी अंतरिक्ष यान भेजे गए थे। इन यानों से भेजे गए आंकड़ों से पता चला कि शुक्र पर 40 से 60 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल के मध्य भाग में तापमान और दबाव की परिस्थितियां जीवन के विपरीत नहीं हैं लेकिन ग्रह की सतह पर आग बरसती है।
इसका तापमान 450 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। लिमये ने पोलैंड की जिएलोना गोरा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जी.स्लोविक से मुलाक़ात के बाद शुक्र के वायुमंडल की पड़ताल करने का मन बनाया। स्लोविक ने लिमये को बताया कि पृथ्वी पर ऐसे बैक्टीरिया मौजूद हैं, जिनका प्रकाश को सोखने वाला गुण शुक्र के वायुमंडल में मौजूद अज्ञात कणों से मिलता है। ये कण काले धब्बों के रूप के रूप में मौजूद हैं। इन धब्बों को पहली बार करीब एक सदी पहले जमीनी दूरबीनों से देखा गया था। तभी से इनका रहस्य बना हुआ है। स्पेक्ट्रोस्कोप से जांच करने पर पता चला कि इन धब्बों में सल्फ्यूरिक एसिड और प्रकाश को सोखने वाले दूसरे अज्ञात कण मौजूद हैं।
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