संपादकीय

13-Dec-2018 11:46:47 am
Posted Date

नेता बली न होत है, मतदाता बलवान

राजकुमार सिंह
लोकतंत्र की जय हो। फिर साबित हो गया : नेता बली न होत है, मतदाता बलवान। अजेय मान लिये गये नरेंद्र मोदी की भाजपा को नौसिखिया माने जा रहे राहुल गांधी की कांग्रेस ने हालिया विधानसभा चुनावों में जैसी पटखनी दी है, वह मतदाता के विवेक और विशेषाधिकार का ही परिणाम है। अगले साल अप्रैल-मई में ही लोकसभा चुनाव होने हैं। इसीलिए पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों को केंद्रीय सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा था। आखिर इन पांच राज्यों में से तीन : मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में न सिर्फ भाजपा सत्तारूढ़ थी, बल्कि उनमें लोकसभा की कुल 65 सीटें हैं, जो लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 10 प्रतिशत से भी ज्यादा है। पिछली लोकसभा में राजस्थान ने तो सभी 25 सीटें भाजपा को दी थीं, जबकि मध्य प्रदेश ने 29 में से 26 और छत्तीसगढ़ ने 11 में से 10 सीटें दी थीं। यह भी कि इन तीन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच लगभग सीधा मुकाबला था। इसलिए राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना रहा कि तेलंगाना और मिजोरम समेत इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव दिल्ली की सत्ता का सेमीफाइनल होंगे और परिणाम फाइनल का संकेतक।
अब जरा सेमीफाइनल के परिणामों और उनके संकेतकों को समझने की कोशिश करें। हर पांच साल में सरकार बदल जाने की परंपरा के चलते भी माना जा रहा था कि राजस्थान में सत्ता परिवर्तन तय है। राजसी पृष्ठभूमि वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कार्यशैली को लेकर खुद भाजपा में असंतोष के स्वर उठते रहे तो किसानों से लेकर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन भी सामने आते रहे। इस सबसे ऐसा लग रहा था कि अपने मिजाज के अनुरूप राजस्थान एकतरफा जनोदश देगा, लेकिन परिणाम वैसे नहीं आये। बेशक राजस्थान में अगली सरकार कांग्रेस की ही बनेगी, लेकिन भाजपा ने उसे जोरदार टक्कर देते हुए सम्मानजनक प्रदर्शन किया है। एकतरफा मुकाबले की उम्मीद के विपरीत कांग्रेस जैसे-तैसे बहुमत ही क्यों प्राप्त कर पायी, इसका विश्लेषण आलाकमान और प्रदेश नेतृत्व को अवश्य करना चाहिए ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में उन गलतियों की पुनरावृत्ति से बचा जा सके। जाहिर है, आत्ममंथन भाजपा भी करेगी कि वो कौन से क्षेत्र थे, जिनमें थोड़ा जोर लगाकर इस परिणाम को पलटा भी जा सकता था। ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा निश्चय ही इससे बेहतर प्रदर्शन करना चाहेगी। इसलिए भी, क्योंकि राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान भी नारे सुनायी पड़े : वसुंधरा तेरी खैर नहीं, मोदी से बैर नहीं। भाजपा का यह काम आसान होगा या मुश्किल, यह कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री के चयन पर निर्भर करेगा।
मध्य प्रदेश में दोनों दलों में कांटे की टक्कर का अनुमान लगाया जा रहा था, परिणाम भी लगभग वैसे ही आये हैं। राजस्थान में जहां कांग्रेस अनुभवी अशोक गहलोत और युवा सचिन पायलट को आगे कर चुनाव लड़ी, वहीं मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया मोर्चे पर थे। बेशक चुनाव राजनीति में हार-जीत और सत्ता ही अंतिम सत्य होती है, लेकिन लगातार तीन कार्यकाल के बाद भी सत्ता विरोधी भावना का इतना कम असर भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमाएं आपस में मिलती हैं, लेकिन राजनीतिक मूड एकदम अलग दिखा। वैसे वसुंधरा राजे भी मूलत: बेटी तो मध्य प्रदेश की ही हैं।
राजस्थान से तो मध्य प्रदेश की सीमाएं ही जुड़ती हैं, पर छत्तीसगढ़ का तो गठन ही उसके विभाजन से हुआ है। मध्य प्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी भाजपा ने लगातार तीन कार्यकाल शासन किया। बेदाग छवि वाले बताये जाने वाले रमन सिंह मुख्यमंत्री रहे, लेकिन मंगलवार के नतीजों ने उन्हें धूल-धूसरित कर दिया। पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जन कांग्रेस से गठबंधन कर मायावती की बसपा ने हालांकि चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था, लेकिन कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर सभी को चौंका दिया। छत्तीसगढ़ का यह जनादेश इसलिए और भी अहम है क्योंकि राजस्थान-मध्य प्रदेश की तरह वहां कांग्रेस के पास कोई स्थापित नेतृत्व नहीं था। इससे पता चलता है कि जब मतदाता बदलाव का मन बना लेता है, तब नेतृत्व आदि का मुद्दा उसके लिए गौण हो जाता है।
बेशक सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम की सत्ता कांग्रेस ने गंवायी है, पर भाजपा के हाथ भी वहां खाता खोलने से ज्यादा बड़ी उपलब्धि नहीं आयी है। मिजोरम की सत्ता मिजो नेशनल फ्रंट के हाथ जाना ज्यादा नहीं चौंकाता क्योंकि पूर्वोत्तर में इस सोच की जड़ें बहुत गहरी हैं कि उसकी जन आकांक्षाओं को राष्ट्रीय के बजाय क्षेत्रीय दल और नेतृत्व बेहतर समझता है। यह अलग बात है कि ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की सरकारें बेहतर आर्थिक मदद और विकास के लिए केंद्र की सरकार से मित्रवत संबंध ही रखती हैं। फिर भी इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि कांग्रेस के हाथ से मिजोरम की सत्ता फिसल गयी है। मिजोरम की सत्ता गंवाने से कम झटका कांग्रेस को तेलंगाना के परिणामों से भी नहीं लगा होगा, जहां उसने भाजपा के प्रति प्रेमभाव रखने वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति को सत्ता से हटाने के लिए उस तेलुगू देशम से गठबंधन कर लिया, जिसका गठन ही कांग्रेस के विरुद्ध हुआ था। फिर भी टीआरएस को दो-तिहाई बहुमत मिल गया। ऐसा माना जा रहा है कि पृथक तेलंगाना के गठन और विकास में तेलुगू देशम के मुखिया एवं आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने जिस तरह के अड़ंगे लगाये, उसका खामियाजा कांग्रेस को भी भुगतना पड़ा।
अब जरा सेमीफाइनल के नतीजों के आईने में फाइनल की संभावित तस्वीर देखने की कोशिश करें। साफ है कि मोदी और उनकी भाजपा अजेय नहीं हैं। बेशक कांग्रेस भी यही करती रही है, लेकिन विधानसभा चुनावों में पराजय का ठीकरा प्रदेश नेतृत्व के सिर फोडऩे से काम नहीं चलेगा। जब हर चुनाव में मोदी ही भाजपा के स्टार प्रचारक होंगे और उन्हें ही हर जीत का श्रेय भी दिया जायेगा, तब पराजय की जिम्मेदारी खुद ही लेनी होगी यानी मोदी का जादू अब उतरने लगा है। दूसरी ओर पप्पू कह कर जिन राहुल गांधी का मजाक उड़ाया जाता रहा है, उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह बड़ा करिश्मा कर दिखाया है। इससे पहले जब कांग्रेस ने पंजाब की सत्ता अकाली-भाजपा गठबंधन से छीनी थी, तब उसका श्रेय राहुल से ज्यादा कैप्टन अमरेंद्र सिंह को देने की कोशिशें हुईं। बेशक अनुभवी कैप्टन की संजीदा छवि ने आम आदमी पार्टी को पीछे छोड़ कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी, लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई कांग्रेसी चेहरा नहीं, जो जीत के श्रेय का दावेदार नजर आता हो।
जाहिर है, कांग्रेसी सेमीफाइनल के नतीजों को फाइनल का संकेतक बताना चाहेंगे, लेकिन चुनावी राजनीति अंकगणित नहीं है। हर चुनाव में मुद्दे और समीकरण बदलेंगे। लोकसभा चुनाव में मुकाबला सीधे मोदी और राहुल के बीच होगा, जबकि सच यह है कि अनेक राज्यों में कांग्रेस अपने बूते चुनाव लडऩे तक ही हैसियत में नहीं है। मान लिया कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की 65 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ज्यादा जीत सकती है। बदले परिदृश्य में हरियाणा और पंजाब की ज्यादातर लोकसभा सीटें भी कांग्रेस की झोली में जा सकती हैं, पर उससे आगे? 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी है और उसका चुनावी भविष्य सपा-बसपा-रालोद गठबंधन पर निर्भर करेगा। बिहार में कांग्रेस को लालू यादव के राजद की बैसाखियां चाहिए तो आंध्र में तेलुगू देशम की। पश्चिम बंगाल में उसे वाम मोर्चे से हाथ मिलाने की मजबूरी होगी, जिससे केरल में मुकाबला रहता है तो तमिलनाडु में बिखरती द्रमुक के अलावा कोई साथी नजर नहीं आता। कर्नाटक में अवश्य जनता दल (एस) को मुख्यमंत्री पद देने के बाद कांग्रेस लोकसभा सीटों में बड़ी हिस्सेदारी की उम्मीद कर सकती है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक कांग्रेस को मजबूत होते कभी नहीं देखना चाहेंगे। हां, केंद्र में सरकार के लिए जरूरत पडऩे पर समर्थन देने में उन्हें गुरेज नहीं होगा। यह विश्लेषण बहुत विस्तृत हो सकता है, लेकिन निष्कर्ष यही है कि सेमीफाइनल में बढ़त के बावजूद फाइनल के लिए गठबंधन की टीम बनाना और फिर मोदी का मुकाबला करने की चुनौती अभी राहुल गांधी के समक्ष शेष है। वैसे सेमीफाइनल के नतीजे बताते हैं कि किसी भी दल और नेता को महाबली होने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। आखिर वर्ष 2004 में विजयी गठबंधन के जरिये ही राजनीतिक नौसिखिया सोनिया गांधी ने आजाद भारत के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक अटल बिहारी वाजपेयी के नीचे से सत्ता सिंहासन खिसका दिया था।

 

Share On WhatsApp