शमीम शर्मा
एक बार एक संभ्रान्त महिला ने अपना फैसला भगवान को सुनाते हुए कहा कि वह पढ़ी-लिखी है, सुंदर और समृद्ध है पर वह शादी नहीं करना चाहती। भगवान उसे समझाते हुए बोले-हे बाला! तुम मेरी सृष्टि की सुंदरतम कृति हो और अकेले वह सब हासिल कर सकती हो जो तुम्हें चाहिये पर यदि कभी तुमसे कोई गलती हो गई तो दोष किसके सिर मढ़ोगी? इसलिये शादी कर लो ताकि पति के माथे दोष चिपका सको।
भगवान का उत्तर सुनकर वह औरत तो दुविधा से बाहर निकल आई पर उस महिला और भगवान का वार्तालाप सुनकर वहीं बैठा एक पुरुष अपने माथे पर हाथ रखकर बोला—प्रभु! फिर मैं किसे दोष दूंगा? ईश्वर उसे समझाते हुए बोले—अरे भाई! तुम्हारा क्या है, तुम्हारे पास तो बेहद विस्तृत क्षेत्र है। तुम तो शिक्षा से लेकर समाज, परम्परा, पर्यावरण, ट्रैफिक, कानून, राजतंत्र, अर्थतंत्र, अफसरशाही और नेताओं तक को कोस सकते हो।
शेरोशायरी की बात करें तो एक उल्लेख अक्सर मिलता है कि रोने के लिये महबूब का कन्धा चाहिये जहां सिर रखकर दिल हल्का कर सकें। पर जीवन में देखो तो कदम-कदम पर हमें एक सिर चाहिये, जिस पर अपने दोष इत्मीनान से मढ़ सकें। हमें कभी यह तो लगता ही नहीं कि हमारी छलनी में भी छेद हैं।
अपने भीतर तो वे भी नहीं झांक रहे जो रात-दिन ईश्वर का जाप कर रहे हैं। गंगा में जाकर भी हम स्नान क्रिया से अपना शरीर तो धो आते हैं पर आत्मा जस की तस रह जाती है। सभी धर्मों और आराधनाओं का सार तो एक ही है कि हमें अपने भीतर झांकना आ जाये, पर मुझे तो कोई ऐसा महानुभाव मिला ही नहीं जो इतना दिलदार हो कि स्टेज पर चढक़र कह सके कि हां यह गलती मेरी है।
बात दोषारोपण की हो तो सास तो एक सांस में बहू के मायके तक जा पहुंचती है और राजनेता विरोधियों की सात पीढिय़ों के बखिये एक पल में उधेड़ मारते हैं। इन दोनों नस्लों की उम्र दूसरों की कमियां निकालने में व्यतीत हो जाती है पर ये एक बार भीतर झांक कर देख लें तो इन्हें तत्काल आभास हो जायेगा कि पानी कहां मर रहा है।
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