संपादकीय

05-Dec-2018 1:54:14 pm
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जी-20 और कॉप-24

बीते शनिवार जी-20 देशों की शिखर बैठक संपन्न हुई और इस सोमवार से पोलैंड के कातोविस शहर में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) की 24वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-24) शुरू हो गई। अलग-अलग रूपों में तकरीबन पूरी दुनिया की नुमाइंदगी करने वाले इन दोनों आयोजनों की शुरुआत कड़वाहट भरे माहौल में हुई, पर नई उम्मीदों की गुंजाइश इनके होने भर से बनी हुई है। जी-20 की बैठक के दौरान अलग-अलग देशों से जुड़ी कई सकारात्मक खबरें आईं, लेकिन जिस एक बात को लेकर दुनिया राहत की सांस ले सकती है, वह यह कि बैठक के बाद जो साझा बयान जारी हुआ, उसमें कुछ ठोस बातें भी हैं। बेशक, यह बयान अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं था। कई विशेषज्ञ इसे कमजोर बता रहे हैं। लेकिन जिस तरह से पापुआ न्यू गिनी में हुई एशिया पैसिफिक इकनॉमिक कोऑपरेशन की शिखर बैठक कोई साझा बयान ही जारी न कर सकी, और इससे पहले जी-7 देशों की बैठक अमेरिका के विरोध के चलते बगैर संयुक्त घोषणापत्र जारी किए ही समाप्त कर दी गई, उसे देखते हुए यह भी कम नहीं है कि जी-20 में शामिल सारे देश एक बयान पर सहमत हुए। एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह हुआ कि अमेरिकी और चीनी राष्ट्राध्यक्षों ने आपस में बातचीत की और चीनी सामानों पर आयात शुल्क 10 फीसदी से बढ़ा कर 25 फीसदी करने के अमेरिकी फैसले पर अमल तीन महीने के लिए टाल दिया गया। जी-20 के बैठक स्थल से आई ये दोनों खबरें आश्वस्त करती हैं कि निराशा बढ़ाने वाले मौजूदा माहौल में हालात सुधरने की संभावना अभी बची है। यह संदेश कॉप-24 की बैठक के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है, जो अमेरिका के पेरिस पर्यावरण समझौते से हटने की घोषणा के बाद से बेमानी लगने लगी है। पर्यावरण बचाने के उद्देश्य से होने वाली इस सालाना बैठक में दुनिया के सभी देश अपने प्रतिनिधि भेजते हैं। इस बार हो रही 24वीं बैठक में सबसे अहम मसला है पेरिस जलवायु समझौते को अमल में लाने के तरीकों पर सहमति कायम करना। पेरिस समझौते की अहमियत इस बात में थी कि पहली बार दुनिया के सभी देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकने को लेकर अपनी तरफ से कुछ न कुछ योगदान करने को तैयार हो गए थे। इसे झटका तब लगा जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने पिछले साल अचानक इस सहमति से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया। राहत की बात यह है कि कोई और देश इस उकसावे में नहीं आया है। अमेरिका को मनाने की कोशिशें अब तक भले ही नाकाम रही हों, पर बाकी दुनिया अपनी बात पर कायम है। राजनेताओं की यह प्रतिबद्धता कितनी मजबूत है और कितनी दिखावटी, इसकी जांच होनी बाकी है, लेकिन वक्त ने हमें सिखाया है कि विवेक की आवाज देर-सबेर अपना असर जरूर दिखाती है। अमेरिका के 13 राज्यों का ट्रंप सरकार के फैसले से हटकर पेरिस समझौते से जुड़ाव दिखाना यह बताता है कि इस सुपरपावर को भी अंतत: अपना रवैया बदलना होगा।

 

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