संपादकीय

विपक्ष के गांधी
Posted Date : 21-Jul-2017 6:27:33 pm

विपक्ष के गांधी

विपक्ष ने संयुक्त रूप से गोपाल कृष्ण गांधी को उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना है। उन्हें विपक्ष के 18 दलों का समर्थन हासिल है। खास बात यह है कि उन्हें जेडीयू ने भी अपना सपॉर्ट दिया है, जिसने राष्ट्रपति पद के लिए सत्तापक्ष के साथ जाने का फैसला किया था। इस बार विपक्ष ने अपना कैंडिडेट चुनने में सत्ता पक्ष से ज्यादा तत्परता दिखाई है और सत्ता पक्ष को दबाव में ला दिया है। संख्या बल के हिसाब से गोपाल कृष्ण गांधी का जीतना मुश्किल है क्योंकि सत्ता पक्ष के सांसदों की संख्या ज्यादा है। लेकिन विपक्ष के लिए प्राय: हमेशा ही राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनावों का प्रतीकात्मक या वैचारिक महत्व ज्यादा रहा है। अपने उम्मीदवार के चयन के जरिए विपक्ष देश को एक संदेश देने की कोशिश करता है। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि लोकतंत्र केवल बहुमत के मूल्यों से नहीं चलता। यह ठीक है कि व्यवस्था के संचालन संबंधी निर्णय बहुमत से ही लिए जाते हैं, मगर सिस्टम की सार्थकता इसी में है कि महत्वपूर्ण फैसलों में अल्पमत की आवाज भी शामिल हो। इसे ध्यान में रखकर ही गोपाल कृष्ण गांधी को चुना गया है। वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पोते हैं, लेकिन यह ज्यादा बड़ी बात नहीं। अहम यह है कि वह गांधीजी के मूल्यों और आदर्शों के प्रति समर्पित हैं। उन्होंने अपने जीवन में गांधीवाद को उतारा और उच्च पदों पर रहते हुए भी सादगी और सच्चाई के रास्ते पर चले। जब वह प. बंगाल के राज्यपाल थे, तब राज्य में बिजली संकट को देखते हुए उन्होंने राजभवन में बिजली के उपयोग में कटौती की पहल की थी। राज्यपाल के रूप में वह राज्य प्रशासन को लेकर अपने विचार खुलकर रखते रहे। नंदीग्राम में हुए किसान आंदोलन के समय उन्होंने तत्कालीन लेफ्ट सरकार को आड़े हाथों लिया था। तब उन्होंने कहा था कि मैं अपनी शपथ के प्रति इतना ढीला रवैया नहीं अपना सकता, अपना दुख और पीड़ा मैं और अधिक नहीं छिपा सकता। एक बार वे सीबीआई को 'सरकारी कुल्हाड़ीÓ की संज्ञा भी दे चुके हैं। साल 2015 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- 'गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्या को किसी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता।Ó वह लोकपाल को लेकर सरकार के लचर व्यवहार पर कई बार सवाल उठा चुके हैं। ऐसे व्यक्ति को सामने रखकर विपक्षी दलों ने समाज में गांधीवादी मूल्यों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। गांधी ने जीवन में सादगी और शुचिता की वकालत की थी। वे अत्यधिक उपभोग पर आत्मसंयम को तरजीह देते थे और सभी प्राणियों के प्रति करुणा को मानव जीवन के लिए जरूरी मानते थे। आज जब समाज में स्वार्थ, दिखावा और आक्रामकता बढ़ रही है, तब गांधी के आदर्शों की सख्त जरूरत है। जीत-हार अपनी जगह लेकिन यह संदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

 

कैसे करूं प्रोटेस्ट
Posted Date : 21-Jul-2017 6:26:38 pm

कैसे करूं प्रोटेस्ट

कई दिनों से एक प्रोटेस्ट का प्लान कर रहा हूं लेकिन बीच में ही छोड़ देता हूं। छोड़ क्या देता हूं, सच बात तो ये है कि छोडऩा ही पड़ता है। न छोड़ूं तो दुनिया से छूट जाऊं! प्रोटेस्ट करने वालों का इतिहास यही बताता है। एक भी प्रोटेस्टर ऐसा नहीं दिखा जिसके कपड़े न फटे हों! आप जंतर-मंतर पर खड़े-खड़े प्रोटेस्ट-तपस्या कर रहे हैं कि आते ही रिपोर्टर बाइट ले ले! हाथ में पोस्टर है जिस पर लिखा है - मेरे नाम नहीं!
नॉट इन इस उस के नेम!
राम का नाम बदनाम ना करो!
दिल्ली की सडिय़ल और अडिय़ल गरमी पसीने छुटा रही है। पोस्टर थामे हाथ थक रहे हैं लेकिन क्या करें ऐन रणस्थल से भागा तो नहीं जा सकता! सड़ी गर्मी और भूख-प्यास को दो-तीन घंटे खड़े-खड़े झेलने के बाद भी टीवी देखना पड़ता है कि मेरी वाली बाइट किस-किस चैनल ने लगाई और कितनी देर गालियां पड़ीं!
अपने स्मार्ट फोन पर दूसरों से नजर बचाकर देखना पड़ता है कि कितने चैनलों में कितनी देर चेहरा टीवी में दिखा ताकि कोई कह सके कि भाई साब आज तो आप छा गए! और जबाव में आप किसी फिल्मी हीरो की तरह कहते हैं-मैं कुछ समझा नहीं! और कहने वाला, टीवी में अपने होने के प्रति मेरी उदासीनता का कायल होकर जाये कि देखो कितना महान है! लेकिन इन दिनों तो कुछ ऐसे बेशर्म एंटी प्रोटेस्टर आ जाते हैं जो पवित्र प्रोटेस्टर से सवाल पूछ कर खटिया खड़ी करने लगते हैं कि तुमने तब प्रोटेस्ट क्यों नहीं किया? इसके लिए क्यों नहीं किया और इसी के लिए क्यों किया, मानो कह रहे हों कि क्या वो तुम्हारा बाप लगता था? आप कहेंगे सब कुछ हमीं से करवाआगे? कुछ तुम भी तो करो। वो कहेगा मैं क्यों करूं? मेरे पास क्या करने को काम नहीं है। तुम लुटियन्स वाले, तुम जिमखाने वाले, तुम आजादी वाले, तुम पाक वाले, तुम आतंकवाद वाले। एक तो प्रोटेस्ट करूं और ऊपर से लात खाऊं! मुझे लगता है फिल्म दीवार के रिलीज के पहले तक प्रोटेस्ट-कर्म बड़ा ही पवित्र था। तब जंतर-मंतर पर प्रोटेस्ट नहीं किए जाते थे, इंडिया गेट के लंबे चौड़े लॉन्स पर किए जाते थे। आप कितना ही बड़ा प्रोटेस्ट कर लें, हजारों आदमी ले आएं तो भी उस मैदान में ऊंट के मुंह में जीरे बराबर नजर आते। आसपास के लो" हमदर्दी जताते गर्मी है भैया! कुछ सुस्ता लो, बाद में कर लेना! हम पांच साल से कर रहे हैं। एक साथ नहीं करते, किश्तों में करते हैं। दफ्तरों के लंच टाइम और शाम पांच बजे के आसपास, दम लगाकर नारे लगाते हैं वरना पोस्टर पेड़ पर चिपका देते हैं। लेकिन तब आजकल वाली फजीहत नहीं थी कि जनहित में प्रोटेस्ट करने के बाद ये सुनना पड़े कि उसके लिए क्यों नहीं किया? इस तरह के बकवास सवाल पूछने की बीमारी तो दीवार ने लगाई! कैसे? अरे भैया अमिताभ बच्चन का वो डायलाग याद है ना जिसमें जब उसका भाई शशि कपूर अमिताभ से दस्तखत करने के लिए कहता है तो अमिताभ कहता है, जाओ पहले उससे दस्तखत कराके लाओ, जिसने मेरे हाथ पर लिख दिया था कि मेरा बाप चोर है। बेचारे प्रोटेस्टरों से तरह-तरह के सवाल पूछने की बुरी आदत दीवार के इसी डायलाग से पड़ी जो कहेगा-जाओ पहले उसके लिए प्रोटेस्ट करो, इसके लिए करो, इन सबके लिए करो, तब मेरे भाई तुम जहां कहोगे मैं वहीं प्रोटेस्ट कर दूंगा! दीवार का ये मुआ डायलाग न होता तो हर आदमी प्रोटेस्टर को उसके कर्तव्य न बताता रहता! पांच हजार साल पुराना अपना इतिहास! अगर सबके लिए प्रोटेस्टर सबके लिए प्रोटेस्ट करने लग गया तो अगले पांच हजार साल तक करता रहेगा! बताइए कैसे करूं प्रोटेस्ट?

 

पाक पर बदली नीति हमारी जीत
Posted Date : 14-Jul-2017 7:30:36 pm

पाक पर बदली नीति हमारी जीत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछले हफ्ते राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ हुई बैठक से भारत के सुरक्षा हितों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर ट्रंप प्रशासन की सोच पता चलती है। इस बैठक से उन क्षेत्रों की भी एक झलक मिलती है, जिनके बारे में अमेरिकी नीतियां अभी निर्माण के स्तर पर हैं। ऐसे में गुण-दोष के आधार पर इसका गंभीर विश्लेषण जरूरी है।
ऐसे मौकों पर जारी वक्तव्य, नीतियों तथा दृष्टिकोण को जानने के लिए विश्लेषकों और राजनयिकों के लिए उत्कृष्ट अधिकृत सामग्री है। हालांकि ये वक्तव्य पेशेवर लोगों द्वारा तैयार किए जाते हैं लेकिन इनमें कुल मिलाकर नेतृत्व की निजी प्राथमिकताओं और व्यक्तित्व की ही छाप होती है। मोदी और ट्रंप के साझा वक्तव्य का गहन विवेचन जरूरी है।
दरअसल दूरदर्शी वक्तव्यों के मुकाबले इस बार जारी वक्तव्य छोटा और कारोबारी-सा है। इसमें न तो द्विपक्षीय सहयोग और न ही भारत के करीबी पड़ोसियों तथा कुछ दूर के पड़ोसियों के बारे में साझा विचारों पर कोई ज्यादा ध्यान दिया गया है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें पाकिस्तान तथा उसके द्वारा सीमा पर आतंकवाद को दी जा रही शह और इसके प्रायोजन पर सीधी, स्पष्ट एवं अभूतपूर्व टिप्पणियां की गई हैं। यानी कभी पाकिस्तान की आतंकी मशीन के बारे में बातों को पूरी तरह अनसुना कर देने वाला अमेरिका अब इस 'मशीनÓ को बंद करने की बातें करने लगा है। 1990 के दशक में अमेरिकी वार्ताकार जम्मू-कश्मीर में सक्रिय लश्कर-ए-तैयबा तथा हरकत-ए-मुजाहिद्दीन जैसे इस्लामिक संगठनों को पाकिस्तान की मदद के बारे में भारतीय राजनयिकों की बातों को पूरी तरह अनदेखा कर देते थे। ऐसा नहीं था कि अमेरिका पाकिस्तान के कारनामों से अनजान था लेकिन उसका यह रवैया भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग नजर से देखने और इस विश्वास की वजह से था कि इस्लामिक आतंकवाद की आंच अमेरिका तक कभी पहुंच ही नहीं पाएगी। अमेरिका के इस भरोसे को पहली बार तब ठेस पहुंची जब 1998 में नैरोबी और दार-ए-सलाम में अमेरिकी दूतावासों पर अल कायदा ने बमबारी की। और फिर 9/11 की घटना ने तो अमेरिका का यह भरोसा पूरी तरह तोड़ डाला। 9/11 की घटना से पहुंचे मानसिक आघात के बाद अमेरिका के लिए इस्लामी संगठनों द्वारा फैलाया जा रहा आतंकवाद विकासशील देशों ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को दरपेश साझा खतरा बन गया। अमेरिका कई देशों से आतंकवाद के खिलाफ जंग में मदद की गुहार करने लगा। अमेरिका अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान के खिलाफ अभियान में पाकिस्तान से भी पूर्ण सहयोग की मांग करने लगा। पाकिस्तान इसके लिए राजी हो गया और उसने अमेरिका को पारगमन सुविधाओं तथा अपने कुछ हवाई अड्डों के इस्तेमाल की इजाजत भी दे दी। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने अपने सहयोगियों को बताया कि अगर पाकिस्तान अमेरिका की मांग को नहीं मानता है तो उसे 'कश्मीर मनोरथÓ छोडऩा होगा। इसके बाद अमेरिका भारत के संदर्भ में पाकिस्तानी चिंताओं के प्रति संवेदनशील बना रहा। अमेरिकी राजनयिक पहले सीधे-सीधे पाकिस्तान का नाम लेने और उसे सीमा पार अंजाम दी जाने वाली आतंकी गतिविधियां बंद करने के लिए कहने से बचते थे। 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद अमेरिका पाकिस्तान को यह कहने को राजी हुआ कि हमले के दोषियों को सजा दी जाए। लेकिन फिर भी अमेरिका पाकिस्तान को दो टूक यह कहने को इच्छुक नहीं था कि वह आतंकवाद को राष्ट्र की नीति का हथियार बनाना छोड़ दे। संयुक्त वक्तव्यों में दिए गए गुप्त संकेतों से संतुष्ट होना भारत की मजबूरी थी। इस तरह सितंबर, 2014 में जारी मोदी-ओबामा के संयुक्त वक्तव्य में जब दोनों नेताओं ने आतंकवादी तथा आपराधिक गिरोहों के सुरक्षित शरणस्थलों को नष्ट करने, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, डी-कंपनी तथा हक्कानी जैसे संगठनों को हर प्रकार की आर्थिक और नीतिगत मदद बंद करने के लिए मिलकर प्रयास किए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया तब भी इस वक्तव्य में पाकिस्तान का नाम छोड़ दिया गया। अब मोदी और ट्रंप ने 'पाकिस्तान से यह सुनिश्चित करने को कहा कि उसकी धरती का इस्तेमाल दूसरे देशों के खिलाफ आतंकी हमलों के लिए न किया जाए।Ó यह एकदम कड़ी भाषा है और इससे पता चलता है कि ट्रंप प्रशासन चाहता है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में और निश्चित तौर पर अफगानिस्तान के खिलाफ सीमा पार के आतंकवाद को बंद करे। भारत के लिए संतोषजनक बात यह है कि अमेरिका कूटनीतिक तौर पर काफी आगे बढ़ गया है। हैरानी वाली बात नहीं कि पाकिस्तान ने कर्कश प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि 'इस वक्तव्य से भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से व्याप्त तनाव में और इजाफा हुआ है।Ó मगर फिर भी हमें वक्त का तकाजा समझते हुए राजनयिक प्रयासों के महत्व को नहीं भूलना चाहिए। मोदी की यात्रा की पूर्व संध्या पर अमेरिका ने अपने कानून के तहत हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन (एचयूएम) के सरगना सैयद सलाहुद्दीन को 'अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादीÓ घोषित कर दिया। भारत ने अमेरिका की इस कार्रवाई का स्वागत किया लेकिन अब भारत को अमेरिका पर यह भी दबाव डालना होगा कि वह हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन को भी आतंकवादी संगठन घोषित करे। सलाहुद्दीन के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई का पाकिस्तान में व्यापक विरोध हुआ। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने इसे 'बेतुका फैसलाÓ बताते हुए जोर देकर कहा कि इसका यह मतलब हुआ कि कश्मीरी जनता की कोई अहमियत नहीं। कुछ भारतीय टीकाकार इस बात से नाखुश हैं कि अमेरिका ने सलाहुद्दीन के बारे अपने फैसले में भारत के शासन वाला कश्मीर जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है। दरअसल, अधिकतर देश जम्मू-कश्मीर के बारे में वास्तविक स्थिति को स्वीकार करते हुए भारत के नियंत्रण वाले हिस्से को भारत के आधिपत्य वाला क्षेत्र मानते हैं। संयुक्त वक्तव्य में कुछ और भी महत्वपूर्ण संकेतक हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान में सुरक्षा क्षेत्र सहित भारत के 'तमाम योगदानÓ का स्वागत किया है। इससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि ट्रंप प्रशासन अपनी अफगान नीति में कभी भी यह नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका कम हो। पश्चिम एशिया तथा कोरिया प्रायद्वीप का जिक्र वैश्विक मुद्दों पर अर्थपूर्ण विचार-विमर्श की चाहत को दर्शाते हैं। जहां तक पश्चिम एशिया की बात है, इस पर भारत और अमेरिका का नजरिया अलग-अलग है और भारत को इस बारे में सतर्क रहना होगा। प्रथम दृष्टया भारत और ट्रंप प्रशासन ने बैठक कर चीन के बारे में भी चर्चा की, हालांकि इसका उल्लेख नहीं किया गया। जहां तक आतंकवाद का मामला है, तो निशाने पर पाकिस्तान ही होता है लेकिन चीन द्वारा अपने मित्र का कड़ा बचाव करने की वजह से चर्चा उसकी भी होने लगती है। मोदी-ट्रंप भेंट के बाद चीन ने आतंकवाद का मुकाबला करने में पाकिस्तान की भूमिका को खूब सराहा। संयुक्त वक्तव्य में आप्रवासन, जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र सुधार जैसे विवादास्पद द्विपक्षीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का कोई जिक्र नहीं किया गया। भारत के हितों की दृष्टि से इन मामलों के स्पष्ट निहितार्थ हैं, लेकिन इन मुद्दों पर अगर निश्चित उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ा जाता है और विचार मिलते हैं तो भारत को निश्चित तौर पर फायदा होगा।

 

डॉक्टरों की दिक्कत
Posted Date : 14-Jul-2017 7:29:28 pm

डॉक्टरों की दिक्कत

डॉक्टर्स डे पर इंडियन मेडिकल असोसिएशन ने एक सर्वे करके बताया है कि देश में तीन चौथाई से ज्यादा डॉक्टर स्ट्रेस में हैं। 62.8 प्रतिशत डॉक्टरों को मरीज देखते डर लगता है, 57 फीसद डॉक्टर प्राइवेट सिक्यॉरिटी लेना चाहते हैं, जबकि 46 फीसद हिंसा से डरे हुए हैं। आईएमए ने यह सर्वे 15 दिनों में 1681 डॉक्टरों पर किया। सभी डॉक्टरी के अलग-अलग क्षेत्रों से थे और ज्यादातर प्राइवेट सेक्टर में थे। हिंसा से डरने वालों में 24.2 प्रतिशत को मुकदमे का डर सताता है, जबकि 13.7 प्रतिशत डॉक्टरों को लगता है कि उन पर आपराधिक मामले ठोक दिए जाएंगे। 56 फीसदी डॉक्टर सात घंटे की नींद भी नहीं ले पा रहे हैं। हालांकि सारी गलती मरीजों या उनके रिश्तेदारों की नहीं है। आईएमए ने इससे पहले भी एक रिसर्च कराई थी, जिसमें पाया गया था कि डॉक्टरों को मरीजों से ठीक से बात करने का प्रशिक्षण देना जरूरी है। आईएमए की ही एक और रिसर्च में सामने आया था कि डॉक्टरों पर ज्यादातर हमले तब होते हैं, जब वे मरीज की अधिक जांच कराते हैं या देखने में देर लगाते हैं। इस बार के डॉक्टर्स डे पर आईएमए ने चिंता जताई है कि मेडिकल प्रफेशन की गरिमा दांव पर लगी हुई है। दरअसल चिकित्सा के क्षेत्र में हमला चौतरफा है। देश का मेडिकल एजुकेशन सिस्टम अपनी गिरती क्वॉलिटी को लेकर पिछले एक दशक से दुनिया भर के मीडिया का निशाना बना हुआ है। सन 2010 से 2016 तक 69 से अधिक मेडिकल कॉलेज और टीचिंग हॉस्पिटल नकल कराने और भर्ती में रिश्वत खाने में पकड़े गए हैं। देश के कुल 398 मेडिकल कॉलेजों में से हर छठे पर इस तरह के मामलों का मुकदमा चल रहा है। आईएमए का अनुमान है कि अभी देश में जितने लोग डॉक्टरी कर रहे हैं, उनमें लगभग आधों के पास इसकी पूरी ट्रेनिंग नहीं है। और तो और, फर्जी डिग्री बेचकर डॉक्टर बनाने का धंधा भी इसी देश में होता है। ऐसे में डॉक्टरों का डर भगाने के लिए व्यवस्था का फोकस अभी डर के ढांचागत कारणों को दूर करने पर होना चाहिए, लोगों में जवाबी डर पैदा करने पर नहीं।

 

नीतीश और विपक्ष
Posted Date : 14-Jul-2017 7:28:36 pm

नीतीश और विपक्ष

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही राष्ट्रपति चुनाव में अपनी भूमिका को लेकर कांग्रेस और आरजेडी के निशाने पर हों, लेकिन अपोजिशन की भूमिका को लेकर उन्होंने जो टिप्पणी की है, उस पर सभी विपक्षी दलों को गभीरता से विचार करना चाहिए। नीतीश ने कहा कि सरकार के काम पर प्रतिक्रिया देना विपक्ष का धर्म जरूर है, लेकिन उसे सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि अपना एक वैकल्पिक अजेंडा भी रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है। उसे अजेंडा तय करना चाहिए और जनता को बताना चाहिए कि उसके सामने देश को आगे ले जाने की क्या योजना है। नीतीश एक सुलझे हुए राजनेता हैं और वक्त की नजाकत को वे खूब समझते हैं। पिछले कुछ समय से उनकी चर्चा इस रूप में हो रही है कि उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन कर बीजेपी से निकटता बढ़ाने की कोशिश की है। राज्य में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने की गरज में उन्होंने विपक्षी एकता को कमजोर किया है। ये आरोप सही हो सकते हैं, लेकिन विपक्ष की अकेली समस्या नीतीश ही तो नहीं हैं। मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में विपक्ष लगभग निष्क्रिय, विभाजित और दिशाहीन दिखा है। अभी तक उसकी कुल भूमिका अपनी ओर से कोई स्टैंड लेने के बजाय मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का विरोध करने की ही रही है। विरोध प्रदर्शनों में भी अलग-अलग दलों के अलग-अलग सुर देखने को मिले। जब जनता के भीतर से स्वत:स्फूर्त आंदोलन निकला तब भी विपक्ष उसके साथ जमकर खड़ा नहीं दिखा। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसान आंदोलनों को जब एक निश्चित दिशा देने की जरूरत थी, तब कांग्रेस के नेता राहुल गांधी छुट्टी पर चले गए। नीतीश इस बात को महसूस कर रहे हैं कि अपोजिशन फिलहाल केंद्र सरकार को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में एक मुख्यमंत्री के रूप में केंद्र सरकार की नाराजगी मोल लेकर अपनी विकास योजनाओं को फंड के अभाव में दम तोड़ते देखने में उन्हें कोई समझदारी नजर नहीं आती। संभव है, इसी मजबूरी को वे सिद्धांत का रूप दे रहे हों, लेकिन विपक्ष के नजरिये से देखें तो भी उनकी बात अतार्किक या हानिकर तो नहीं ही है। नीतीश का नजरिया मोदी सरकार को संख्याबल के आधार पर चुनौती देने के बजाय उसके कार्यक्रमों की काट करने का है। यह भी कि अगर सरकार का कोई कार्यक्रम देशहित में है, तो विपक्ष को उसका समर्थन भी करना चाहिए। नोटबंदी और जीएसटी का समर्थन उन्होंने इसी तर्क के आधार पर किया। उन्होंने भांप लिया है कि गैर-कांग्रेसवाद या गैर-बीजेपीवाद का दौर देश में अर्सा पहले खत्म हो चुका है। विपक्ष भी इस सचाई को मानकर अपना अजेंडा तय करे तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।

 

युवाओं को तरजीह बचाएगी खेती
Posted Date : 14-Jul-2017 7:27:17 pm

युवाओं को तरजीह बचाएगी खेती

भारत में एक विमर्श व्यापक स्तर पर है कि कृषि को पुनर्जीवित कैसे किया जाए। हालिया किसान आंदोलनों ने इस मुद्दे की तरफ ध्यान खींचा है। देखा जाए तो कृषि इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन जिस प्रकार से हमारी सरकारों ने कई दशकों से किसान की अनदेखी की है, उसकी वजह से किसानी-समस्या मुख्य मुद्दा कभी नहीं बन सका। नतीजतन यह फायदे का सौदा कभी नहीं बन सका। यही कारण है कि युवाओं में कृषि के प्रति कभी भी आकर्षण नहीं रहा। एक अध्ययन के अनुसार केवल दो फीसदी किसानों के बच्चे ही कृषि को अपना पेशा बनाना चाहते हैं। इसकी आहट हमें 2011 की जनगणना से भी मिलती है, जिसमें प्रतिदिन 2000 किसानों के खेती छोडऩे की बात कही गई है। खेती से जुड़े युवाओं द्वारा कृषि से दूर होने की कई वजहें हैं। पहला किसानों की उपेक्षा अभी तक जारी है जबकि एनसीआरबी लगातार किसानों के आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों से सरकार को सचेत करता रहा है। दूसरा, युवाओं को कृषि एक रोजगार के रूप में लुभाने में नाकाम रही है। हालत यह है कि कृषि को अपना कैरियर चुनने के बाद भी युवाओं को रोजगार नसीब नहीं हो रहा है। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) जैसी कई संस्थाएं कृषि के छात्रों को नहीं बल्कि प्रबंधन के छात्रों को रोजगार दे रही हैं। फिर सवाल यह है कि इन कृषि विश्वविद्यालयों का क्या औचित्य है? कृषि अनुसंधान विकास के नाम पर छात्रों को दाखिला तो देते हैं लेकिन पढ़ाई के बाद हकीकत में इनका उपयोग नहीं किया जाता। फलत: कृषि में डिग्री हासिल करने वाले ये युवा अन्य व्यवसाय अपनाने को मजबूर हैं। नि:संदेह वर्तमान कृषि की हालत को बेहतर किये बिना इसमें युवाओं की भागीदारी की संकल्पना महज एक स्वप्न ही साबित होने वाली है। दरअसल सरकार की आर्थिक नीति और 2022 तक आय को दोगुनी करने के वादे में बड़ा विरोधाभास है। नेशनल सैंपल सर्वे की मानें तो 2012-13 में किसानों की औसत मासिक आय 6,426 रुपये थी जबकि भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक किसानों की आय 1700 रुपये है। इस प्रकार देखें तो किसानों की आय में 4,726 रुपये की गिरावट आई है। इसके मुताबिक 2022 तक किसानों की आय 3400 रुपये रह जाएगी। सवाल यह है कि क्या सरकार आय को दोगुनी करना चाहती है या आधी? अगर सरकार चाहती है कि कृषि क्षेत्र में युवाओं की भागीदारी संतोषजनक स्तर तक पहुंचे तो उसे कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। सबसे पहले कृषि संस्थानों में कृषि के छात्रों के लिए रोजगार सुनिश्चित कर कृषि प्रतिभा पलायन पर रोक लगानी होगी। इन संस्थानों में कृषि के छात्रों को वरीयता देने के लिए उनके लिए सीटों को आरक्षित करना होगा ताकि कृषि को कैरियर बनाने वाले छात्रों को रोजगार की सुरक्षा मिल सके। रोजगार सृजन के दूसरे उपाय भी हैं। इसके लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय वन सेवा की तजऱ् पर अलग से भारतीय कृषि सेवा प्रारंभ करनी होगी। इससे न केवल कृषि विनियामक तंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि कृषि अध्ययन करने वाले छात्रों का भी कृषि में प्रशासनिक सेवा जैसे बड़े पदों पर बैठने का सपना पूरा हो सकेगा। साथ ही सरकार को ऐसी योजना बनानी हो"ी कि छात्रों को उर्वरकों और कीटनाशकों के विपणन और आपूर्ति के लिए लाइसेंस प्रदान किया जा सके। ऐसे प्रशिक्षण की भी आवश्यकता है जो छात्रों को बाजार का व्यावहारिक ज्ञान भी दे सके और वे ऐसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर सकें, जिनमें कम भूमि, जल और निवेश का उपयो" हो। कृषि को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों के लिए कृषि को फायदे का सौदा बनाना होगा। इसके लिए महज नीतियों के उपयुक्त क्रियान्वयन की आवश्यकता है। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को धरातल पर उतारना होगा। सरकार यदि चाहती है कि उपज का उचित मूल्य मिले तो वादे के मुताबिक लागत का डेढ़ गुना देकर किसानों की हालत को बेहतर करने की दिशा में एक अच्छा कदम उठा सकती है। बहरहाल, सरकार को यह समझना होगा कि एक 'चकाचौंध इंडियाÓ के साथ-साथ एक 'बदहाल भारतÓ भी है जहां के किसान हमारे अन्नदाता होने के बावजूद एक मोहताज जिन्दगी जीने को बेबस हैं, जिसके फलस्वरूप आने वाले समय में कृषि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।