संपादकीय

सद्भाव संगीत के विरुद्ध बेसुरे राग
Posted Date : 04-Dec-2018 1:08:28 pm

सद्भाव संगीत के विरुद्ध बेसुरे राग

विश्वनाथ सचदेव
गांधीजी की प्रार्थना सभा में जो भजन अक्सर गाए जाते थे, उनमें एक नरसी का वैष्णव जन वाला गीत था, जिसमें पराई पीर को समझना धार्मिक होने की एक शर्त मानी गई थी और दूसरा ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ वाला वह गीत था, जिसमें एक ईश्वर की परिकल्पना को स्वर दिया गया था, होंगे तब भी कुछ लोग, जिन्हें ईश्वर और अल्लाह को एक कहने में कुछ कष्ट होता होगा पर उदार धार्मिक वृत्ति वाले किसी भी व्यक्ति को यह भजन गाए जाने पर एतराज नहीं था। आज भी गांधी के ये दोनों भजन बड़ी आस्था और तन्मयता से गाए जाते हैं। धार्मिक सद्भाव का एक संदेश देते हैं ये भजन। ‘एकं सत विप्रा: बहुधा वदंति’ में विश्वास करने वाली भारतीय मनीषा में भला ईश्वर या अल्लाह या गॉड को याद करने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है।
पर कुछ लोगों को आपत्ति है। कुछ दिन पहले राजधानी दिल्ली में कर्नाटक संगीत के जाने-माने कलाकार टी.एम. कृष्णा का एक कार्यक्रम आयोजित किए जाने की घोषणा हुई थी। कृष्णा अपने गीतों में ईश्वर, अल्लाह और गॉड तीनों को एक साथ याद करते हैं। सूफी गीत भी गाते हैं, पराई पीर को समझने का संदेश भी देते हैं, ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के स्वर भी गुंजाते हैं और यीशु को भी याद करते हैं। सर्वधर्म समभाव की बात कहने वाले इस कार्यक्रम को ‘एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ के आर्थिक सहयोग से आयोजित किया जा रहा था। लेकिन निर्धारित तिथि से दो-चार दिन पहले अचानक भारत सरकार के इस संस्थान ने ‘कुछ जरूरी काम’ में व्यस्तता के नाम पर इसे स्थगित करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा में यह नहीं बताया गया था कि कार्यक्रम की अगली तारीख क्या है। यह स्थगन कोई अनहोनी बात नहीं थी। कार्यक्रम कई बार स्थगित करने पड़ते हैं, फिर आयोजित हो जाते हैं। पर, टी.एम. कृष्णा के इस कार्यक्रम का स्थगित होना सामान्य बात नहीं थी। कुछ खास था इस स्थगन में कि विश्व प्रसिद्ध गायक को यह कहना पड़ा कि वे किसी के भी आमंत्रण पर दिल्ली में यह कार्यक्रम करने को तैयार हैं। और फिर दिल्ली सरकार के आमंत्रण पर उन्होंने यह कार्यक्रम किया भी।
महत्वपूर्ण है केंद्र सरकार के एक संस्थान द्वारा स्थगित किए गए कार्यक्रम को दिल्ली की ‘आप’ पार्टी की सरकार द्वारा आयोजित किया जाना, पर इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि टी.एम. कृष्णा के कार्यक्रम को केंद्रीय सरकार के एक संस्थान द्वारा ‘जनता के पैसों’ से आयोजित किए जाने का विरोध करने वालों ने संस्थान को बाध्य किया था कार्यक्रम न करने के लिए। इन तत्वों को शिकायत कृष्णा द्वारा ईसाई गीत गाने से थी। उनका यह मानना है कि टी.एम. कृष्णा ‘राष्ट्र-विरोधी’ हैं। इसीलिए ये तत्व सोशल मीडिया पर कर्नाटक संगीत के इस पुरोधा का विरोध कर रहे थे। इस विरोध को आज ‘ट्रॉल’ किया जाना कहते हैं और यह तत्व इतने ताकतवर हो गए हैं कि ‘एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ को कार्यक्रम से अपने आप को अलग करना पड़ गया।
इस कार्रवाई के पीछे कुछ भी कारण बताए जा रहे हों पर है यह एक सेंसरशिप ही। इस तरह की कार्रवाई, दुर्भाग्य से, हमारे यहां कोई नई बात नहीं है। सरकारें पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाती रही हैं, कला प्रदर्शनियों के आयोजन रोके जाते रहे हैं, कलाकारों और लेखकों को प्रताडि़त किया जाता रहा है। इसी प्रवृत्ति के चलते एम.एफ. हुसैन को अपना देश छोडक़र जाना पड़ा था और मुरुगन जैसे तमिल साहित्यकार को ‘अपने साहित्यकार’ की ‘आत्महत्या’ की घोषणा करनी पड़ी थी।
हमारे संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। हर नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार है। यह सही है कि स्वतंत्रता का मतलब असीमित उच्छृंखलता नहीं है। मर्यादा में रहकर हम अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मनाते रह सकते हैं। विचार-वैभिन्य हमारे जनतंत्र की खूबी है। हजार फूलों का साथ-साथ खिलना हमारी सुंदरता है। लेकिन पिछले एक अर्से से असहमति के अस्वीकार की अजनतांत्रिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। टी.एम. कृष्णा जैसे कलाकार के कार्यक्रम को रोकने की कोशिश इसी प्रवृत्ति का एक उदाहरण है किसी को भी राष्ट्र विरोधी कह देना एक सामान्य-सी बात हो गई है
कहा यह जा रहा है कि टी.एम. कृष्णा एक कलाकार होने के साथ-साथ ‘एक्टिविस्ट’ भी हैं। शब्दकोश के अनुसार, अंग्रेज़ी के इस शब्द का अर्थ है ‘सक्रियतावादी।’ सामान्य बोलचाल में इस सक्रियता का मतलब सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय होना माना जाता है। पर इस सक्रियता के विरोधी इसे राष्ट्र-विरोध मानते हैं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति के चलते कभी किसी विश्वविद्यालय में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ दिख जाती है और कभी साहित्य अकादमी का विरोध करने वाले ‘अवार्ड वापसी गैंग’ के सदस्य घोषित कर दिए जाते हैं। यह संभव है, और शायद है भी कि कलाकार टी.एम. कृष्णा के कुछ राजनीतिक विचार हों, लेकिन राजनीतिक विचार या फिर भिन्न राजनीतिक विचार अपराध कैसे हो सकते हैं? यदि कोई राष्ट्र विरोधी काम करता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, पर किसी को भी राष्ट्र विरोधी घोषित करने का अधिकार कुछ लोगों को कैसे मिल सकता है?
जहां तक धार्मिक प्रतिबद्धता का सवाल है, देश के हर नागरिक को अपनी आस्था और विश्वास के साथ जीने का अधिकार है। हमारा संविधान तो अपने धर्म के प्रचार का अधिकार भी देता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि दूसरे के धर्म का अपमान किया जाए। भारतीय समाज बहुधर्मी है, बहुभाषी है। यहां सदियों से भिन्न मतों-विचारों, मान्यताओं वाले लोग साथ-साथ रहते आए हैं। यह विभिन्नता हमारी ताकत है, हमारी सुंदरता भी। लेकिन सच्चाई यह भी है कि हमारे समाज में असहिष्णुता पनप रही है। धर्म के नाम पर लेखकों, कलाकारों, संगीतज्ञों के विरुद्ध एक खतरनाक वातावरण बनाया जा रहा है। सच पूछा जाए तो वह राष्ट्र विरोधी नहीं है जो ईश्वर, अल्लाह, गॉड के गीत गाता है। राष्ट्र-विरोधी वह है जो इस धार्मिक सद्भावना को किसी भी तरह से चोट पहुंचा रहा है।
किसी भी कलाकार की राजनीतिक व सामाजिक सक्रियता पर किसी को आपत्ति हो सकती है, पर यह आपत्ति उसकी कला को प्रतिबंधित नहीं कर सकती। यहीं यह बात भी समझनी होगी कि किसी सरकार का विरोध करने का मतलब देश का विरोध करना नहीं होता। टी.एम. कृष्णा का संगीत सुनाना उनका अधिकार है और उसे सुनने का अधिकार भी देश के नागरिक को है। इस दृष्टि से देखें तो दिल्ली की सरकार ने कार्यक्रम को आयोजित करके केंद्र की सरकार का दायित्व निभाया है। सरकारों का दायित्व है कि राम-रहीम के नाम पर नफरत फैलाने वालों पर अंकुश लगाएं। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ का गांधीजी का संदेश उस धार्मिक सद्भावना की पहली शर्त है जो भारतीय समाज को परिभाषित करती है। इस संदेश को सही अर्थों में समझने-समझाने की जरूरत है।

 

अन्नदाता की गुहार
Posted Date : 02-Dec-2018 12:14:26 pm

अन्नदाता की गुहार

राजधानी की सडक़ें एक बार फिर देश भर से आए किसानों के नारों से गूंजती रहीं। कुछ तो बात है, जिसके लिए किसानों को बार-बार सडक़ पर उतरना पड़ रहा है। जून 2017 में कृषि उपजों की कीमत को लेकर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में चला आंदोलन हो, या इस वर्ष दो बार हो चुके किसानों के मुंबई मार्च हों, बीते जून में आयोजित ‘गांव बंद’ का आंदोलन हो या फिर अक्टूबर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का दिल्ली मार्च, पिछले दो वर्षों में लगातार यह देखा जा रहा है कि किसानों ने बार-बार अपनी आवाज उठाई, पर कुछ ही समय बाद उन्हें पुरानी ही मांगों को लेकर दोबारा आंदोलन करना पड़ा। क्या सचमुच उनकी हालत ‘करो या मरो’ वाली हो गई है?
इस बार किसानों और खेत मजदूरों के 207 संगठनों से जुड़े लोग एक निर्णायक लड़ाई के मूड में दिल्ली आए। उनकी मांगें दो-तीन ही हैं, और वे बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक यह कि कृषि समस्याओं को लेकर संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए, जो कम से कम तीन हफ्तों का हो और इसमें स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं समेत कृषि संकट के सभी मुद्दों पर निर्णायक बहस हो। इसके लिए उन्होंने बाकायदा एक बिल का मसविदा भी तैयार किया है। सबसे बड़ी बात यह कि इस बार किसान अकेले नहीं हैं। मध्यवर्ग के कई संगठन भी उनके साथ खड़े दिखे। एक ऐसे समय में, जब देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हों, किसानों का इतने बड़े पैमाने पर दिल्ली आना चकित करता है। वे न आते तो भी कृषि संकट को जाहिर करने वाले तथ्य पहले से ही देश के सामने हैं। खेती की लागत बढ़ती जा रही है। किसान को तबाह कर रही आम महंगाई को एक तरफ रख दें तो बीज, खाद, डीजल, बिजली, कीटनाशक, मजदूरी, यानी लागत के सारे पहलू तेजी से ऊपर चढ़े हैं जबकि फसलों की कीमत पछता-पछता कर बढ़ाई जा रही है। 
सरकार द्वारा खेती को राहत देने के लिए किए गए हालिया उपाय नाकाफी रहे हैं। किसानों का कहना है कि वादा सी2 यानी संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था। धान की सी2 लागत 1,560 रुपये की डेढ़ गुना कीमत 2,340 रुपये प्रति क्विंटल बैठती है, लेकिन इस वर्ष धान का समर्थन मूल्य 1,750 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है। इस तरह धान में लगभग 600 रुपये प्रति क्विंटल की चपत किसानों को लगी है, और सरकारी खरीद केंद्रों पर उनका धान भी कम खरीदा गया है। ऐसा ही नुकसान उन्हें सारी फसलों में झेलना पड़ रहा है। इसीलिए किसान चाहते हैं कि उन्हें एकमुश्त कर्जमाफी दी जाए और उचित दाम की गारंटी देने वाला कानून बनाया जाए। कृषि को तंगहाल रखकर अर्थव्यवस्था को बहुत दिनों तक गतिशील नहीं रखा जा सकता। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि संसद इन मांगों पर बहस करके किसानों को पक्की उम्मीद बंधाए।

बदलाव की बयार में बागियों की चुनौती
Posted Date : 02-Dec-2018 12:13:38 pm

बदलाव की बयार में बागियों की चुनौती

यश गोयल
राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा दुबारा सत्ता में आने के लिये अपनी 159 सीटें बचाने में तो कांग्रेस सत्ता पर काबिज होने के लिये साम, दाम, दंड, भेद अपना रही है। भाजपा गांधी परिवार और कांग्रेस की 60 साल की नाकामियों पर जमकर प्रहार कर रही है तो कांग्रेस राफेल, सीबीआई, आरबीआई, जीएसटी, नोटबंदी की बखिया उधेड़ती आ रही है।
इस चुनाव में 88 पार्टियों के 2294 प्रत्याशी मैदान में हैं। 200 सीटों की विस में 185 सीटों पर 840 निर्दलीय प्रत्याशी भाजपा और कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशियों के साथ खड़े हैं। सत्ताधारी भाजपा सभी 200, कांग्रेस 195 सीटों पर और उसका पांच सीटों पर राष्ट्रीय लोकदल, एनसीपी और एलजेडी से गठबंधन, बसपा 190, सीपीआई 16, सीपीएम 28, भारतवाहिनी 63, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी 58, आप 142 और छोटी पार्टियों के प्रत्याशी भी इस चुनावी दंगल को रोचक बना रहे हैं। वैसे भाजपा के पूर्व नेता घनश्याम तिवारी और हनुमान बेनिवाल के संयुक्त राजस्थान लोकतांत्रिक मोर्चा ने सत्ताधारी राजे सरकार और कांग्रेस को कुछ सीटों पर मुश्किल में डाल रखा है।
128 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर है मगर 60 सीटों पर कांग्रेस के 35 और भाजपा के 30 बागियों के कारण भितरघात की आशंका ने दोनों प्रमुख दलों की नींद उड़ाई हुई है। एंटी इनकम्बेंसी के चलते भाजपा की कठिनाइयां कम नहीं हैं क्योंकि उसने 56 विधायकों (छह मंत्रियों सहित) के टिकट काटे हैं। पांच मंत्री सुरेंद्र गोयल, हेम सिंह भडाना, राजकुमार रिणवा, धान सिंह भडाना और ओमप्रकाश हुडला तथा पांच वर्तमान विधायक बागी बन कर कांटे की टक्कर दे रहे हैं जबकि भाजपा ने चार मंत्रियों सहित 11 नेताओं को और कांग्रेस ने एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और 9 पूर्व विधायकों को बागी घोषित कर छह साल के लिये पार्टी से निष्कासित कर दिया है। 60-65 सीटों पर तिकोना और 12 सीटों पर चौतरफा मुकाबला होगा।
भाजपा ने नामांकन के अंतिम दिन चार घंटे पहले एक मात्र मुस्लिम प्रत्याशी और पीडब्ल्यूडी मंत्री यूनुस खान को डिडवाना सीट से हटाकर टोंक विस सीट पर पीसीसी अध्यक्ष सचिन पायलट के सामने खड़ा कर दिया है। इसी तरह कांग्रेस ने भाजपा से निकले पैराशूट उम्मीदवार मानवेंद्र सिंह (पूर्व विदेशमंत्री जसवंत सिंह के पुत्र) को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ झालरापाटन सीट पर टिकट देकर चुनावी रण में सनसनी पैदा कर दी। भाजपा ने राजपूत जाति को अपने पक्ष में करने के लिये 26 को टिकट दिये तो कांग्रेस ने केवल 13 को टिकट दिये। भाजपा ने 94 प्रत्याशियों के टिकट दोहराये हैं, जबकि कांग्रेस ने 85 के।
भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा ने तो प्रधानमंत्री तक को ज्ञापन देकर मुसलमानों को ‘पोलिटिकल एपार्थाइड’ की संज्ञा दे अपना दुखड़ा रोया। यूनुस खान को शायद मजबूरी (मुख्यमंत्री राजे का दबाव) में सचिन पायलट को टक्कर देने के लिये अपने वर्तमान एमएलए अजीत मेहता का नाम काट कर भाजपा ने ‘फेस सेविंग’ करने का प्रयास किया जबकि राजनीतिक विश्लेषकों का सोचना है कि एक मात्र मुस्लिम नेता की ‘डू और डॉई’ की स्थिति है। आरएसएस और यूपी के मुख्यमंत्री योगी के इशारे पर बीजेपी ने पोकरण से हिंदू ध्रुवीकरण के उद्देश्य से महंत प्रतापपुरी को कांग्रेस के मुस्लिम धर्मगुरु गाजी फकीर के बेटे सालेह मोहम्मद के सामने उतार कर जाति और धर्म की राजनीति बाड़मेर-जैसलमेर से शुरू की है, जिसका प्रभाव अभी तो नहीं पर 2019 के लोकसभा चुनाव पर अवश्य पड़ेगा।
भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने चुनावी घोषणापत्रों में युवाओं को नौकरी, किसानों को ऋण माफी और कर्ज, बेटी, महिलाओं आदि को वादों का लॉलीपाप दिया है पर चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, यूपी के सीएम योगी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में जाति और धर्म के बाण चल रहे हैं। जैसे मणिशंकर अय्यर ने गुजरात चुनाव के ऐन वक्त कांग्रेस की लुटिया डुबो दी थी, इसी तरह राहुल के पुष्कर घाट पर अपना दत्तात्रेय गौत्र बताना भी भाजापाइयों और योगी बंधुओं को कड़वा लगा। प्रासंगिक मुद्दे जैसे जल संकट, सूखा, किसान- मजदूर रोजगार, बीमारी, कुपोषण, सिंचाई, और गौरक्षा के नाम पर ‘मॉब लिंचिंग’ गायब है।
सत्ता का पांच सालाना टर्न तो बदलता दिख रहा है! मगर क्या कांग्रेस अपने दम पर सरकार बना पायेगी वो भी तब जब भाजपा ही नहीं, जनता भी विकल्प देने के लिये ‘कांग्रेस में सीएम चेहरे’ को ढूंढ़ रही है। अगर सभी सर्वे सही नहीं हुए तो खंडित जनादेश में बागी, निर्दलीय और छोटे दल के विजयी उम्मीदवारों की चांदी होना तय है। ऐसा 2008 के चुनाव में कांग्रेस के साथ हुआ था।

छक्के छुड़ाने वाली नौ गज की जुबान
Posted Date : 30-Nov-2018 11:08:54 am

छक्के छुड़ाने वाली नौ गज की जुबान

शमीम शर्मा
पत्नी ने आवाज लगाते हुए कहा कि जरा ऊपर से अटैची उतार दो, मेरा हाथ छोटा पड़ रहा है। पति ने तुनकते हुए कहा कि हाथ की बजाय तुम्हारी जुबान ज़्यादा लंबी है, उससे कोशिश कर लो।
हालांकि औरतों की जुबान की बहुत चर्चा होती है पर तुलना करके देखें तो नेताओं की जुबान ज़्यादा लम्बी मिलेगी। इस पर एक मनचले का कहना है कि यदि नेता औरत हो तो उसकी जुबान दोगुणी लम्बी होती होगी! महिलाओं की जुबान पर लतीफे तो बेशुमार हैं पर सच्चाई यह है कि मौका मिलते ही समाज उनकी बोलती बंद करने में दक्ष है।
दूसरी तरफ इसमें दो राय नहीं कि नेतागण कहां की बात कहां ले जाते हैं। सालों पहले के किस्से-चुटकियां निकाल कर खींचातानी पर उतर आते हैं। शब्दों पर बवाल खड़ा कर देते हैं और बात का बतंगड़ बनते ही बात से मुकर जाते हैं। उनकी गालियां भी गालियां नहीं होतीं, गोले होते हैं। बम्बारमैंट-सा करती हैं। आकाश पर थूकते हैं और अपणी-अपणी तूम्बड़ी, अपणा-अपणा राग पर उतर आते हैं।
जिनके आगे एक न पीछे दो, उन नेताओं की अंतडिय़ां भी कुर्सी के लिये कुलबुलाती हैं। यही कुलबुलाहट उन्हें बातों के पकोड़े उतारने में पारंगत कर देती है। भाषणों के लच्छे से जनता को फुसलाते हैं और उल्लू सीधा होते ही सबसे कन्नी काट जाते हैं। नेतागण शब्दों की दौलत से जनता को अमीर बनने के सपने दिखाते हैं और नादान जनता यह भूल जाती है कि नेताओं की आंखें सिर्फ अपने सपने देखना जानती है, आमजन की जरूरतों के सपनों से उनका दूर का भी नाता नहीं होता।
इस सबसे हटकर यदि देखें तो आजकल एक ज़ुबान और है, जिसने महिला और नेताओं के भी छक्के छुड़ा दिये हैं और वह है मीडिया की ज़ुबान। जब यह अपने पर आती है तो कइयों को चित कर देती है या सीधे चांद तक पहुंचा कर ही दम लेती है। वह नेता भी भागवान है, जिसे मीडिया की जुबान आशीष देने लगती हो। यह दूसरी बात है कि मीडिया की जुबान प्रभावित भी होती है और शब्दों की अलटा-पलटी भी करवाई जा सकती है। तभी तो चुनाव पूर्व के सर्वेक्षणों में नेताओं के मन-मुताबिक आंकड़े के ऊपर-नीचे होने की आशंका से कोई इनकार नहीं करता।

 

‘कर्ज जाल कूटनीति’ का मुकाबला करे भारत
Posted Date : 30-Nov-2018 11:08:19 am

‘कर्ज जाल कूटनीति’ का मुकाबला करे भारत

जी. पार्थसारथी
जब से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की कमान संभाली है तब से वे वैश्विक राजनीति और यूरोप, अफ्रीका एवं एशिया के देशों के प्रति अमेरिकी नीतियों में सख्ती बरतते रहे हैं। ट्रंप ने अपने यूरोपीय सहयोगियों तक को झटका दिया है कि यदि वे नाटो संधि के अंतर्गत अंतर-प्रशांत सहयोग कार्यक्रम में आर्थिक योगदान नहीं बढ़ाएंगे तो अमेरिकी सहायता की समीक्षा पुन: की जाएगी। उन्होंने चुनींदा यूरोपीय देशों के आयात पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया है। संक्षेप में कहें तो उन्होंने पहले से चली आ रही ‘साझा वैश्वीकृत बाजार’ बनाने वाली अमेरिकी नीति को अपने ‘अमेरिकी हित सर्वप्रथम’ वाले सिद्धांत से बदल डाला है। ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण पर बाकी दुनिया के रुख को खारिज कर दिया है और ऐसा लगता है कि वे अपनी छवि एक ऐसे दंबग के रूप में बनाने में ज्यादा सहज हैं जो बाहुबली अधिनायकों से निपटने की कूवत रखता है।
एशिया के मामले में भी ट्रंप ने चीन की व्यापार नीतियों पर कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है जो चीन की बनी वस्तुओं की आयात दर-सूची को असंतुलित कर देगा। यहां तक कि अमेरिका के बड़े सहयोगी जापान को भी आयात दरों में अतिरिक्त शुल्क सहन करना पड़ा है। एशिया की अनेक अर्थव्यवस्थाओं के साथ अमेरिका के व्यापारिक रिश्ते कायम करने हेतु जो ‘मुक्त व्यापार क्षेत्र’ वाली ‘अंतर-प्रशांत संधि’ बनाई थी, ट्रंप ने उस मंच से अमेरिकी सदस्यता त्याग दी है। भारत को भी ट्रंप की नई व्यापार नीतियों के हथौड़े महसूस हुए हैं। फिलहाल भारत दरपेश चुनौतियों का हल निकालने के लिए अमेरिका के साथ द्विपक्षीय वार्ताएं कर रहा है। रूस के पेट्रोलियम उत्पादों और हथियारों के निर्यात पर कड़े अमेरिकी प्रतिबंध पहले ही लग चुके हैं। अमेरिका से शक्ति संतुलन बिठाने के मंतव्य से रूस और चीन ने आपसी गठबंधन कर लिया है।
एशिया में अपना दबदबा कायम करना चाहता है। चीन के साथ रिश्तों के मामले में भारत और जापान आपस में नजदीकी तालमेल बनाए हुए हैं। इसमें वे उपाय भी शामिल हैं जिनके माध्यम से चीन के साथ तनाव नियंत्रण से बाहर न होने पाए।
अप्रैल माह में चीन के वुहान शहर में शिखर वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच कई घंटों तक व्यक्तिगत बैठक हुई थी, जिसमें तय किया गया कि दोनों देश अपनी सेनाओं के बीच आपसी संपर्क को सुदृढ़ करने और भरोसा बनाने हेतु सामरिक निर्देश जारी करेंगे ताकि उन उपायों पर अमल किया जा सके, जिन पर इस सिलसिले में पहले ही विचार-विमर्श हो चुका है ताकि भारत-चीन-भूटान सीमा पर डोकलाम जैसी घटना से भविष्य में बचा जा सके। इसी तरह अक्तूबर माह में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात में उन कदमों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिससे पूर्वी चीन सागर में चीन की गतिविधियों से उत्पन्न हुए तनावों को और ज्यादा बढऩे से बचाया जा सके। चीन और जापान ने यह तय किया है कि दोनों मुल्कों के बीच मिलिट्री और व्यापारिक हॉटलाइन स्थापित की जाएगी।
चूंकि भारत की बनिस्पत जापान आर्थिक और तकनीकी स्रोतों में ज्यादा संपन्न है, अतएव वह हिंद-प्रशांत सागरीय देशों में तरक्की और आधारभूत ढांचे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की हैसियत रखता है। इसलिए हिंद महासागर क्षेत्र में विभिन्न देशों में आर्थिक विकास हेतु जो परियोजनाएं चल रही हैं, उनमें भारत जापान के साथ निकट सहयोग कर रहा है ताकि उक्त देश अपनी तरक्की के लिए चीन पर बहुत ज्यादा आश्रित न होने पाएं। जहां एक ओर भारत रूस के साथ सुरक्षा सौदे करने में और आगे बढ़ा है वहीं शिंजो आबे ने भी पुराने रूस-जापान सीमा विवाद को निपटाने में पहल की है, जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से जापान के अधिकार वाले चार टापू रूस के कब्जे में हैं।
दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की थलीय और जलीय सीमा से लगते देशों में प्रगति के लिए चीन जिस मात्रा में भारी स्रोत और निवेश झोंक रहा है, उसमें भारत-जापान सहयोग संतुलन बिठा सकता है। यह कोई रहस्य नहीं है कि नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में चीन उन नेताओं और राजनीतिक दलों को मदद दे रहा है जो भारत के प्रति विद्वेष रखते हैं। मालदीव के बदनाम पूर्व अधिनायकवादी राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की सरकार के वक्त स्वीकृत परियोजनाओं को सिरे चढ़वाने में जिस मात्रा में चीन ने धन मुहैया करवाने के प्रयास किए हैं एवं उन्हें दुबारा सत्ता में लाने हेतु जिस प्रकार मदद की है, वह सबको मालूम है। तथापि चुनाव में यामीन की हार से चीन को मुंह की खानी पड़ी है। यह तय है कि यामीन-काल में स्वीकृत परियोजनाओं के लिए चीन ने जो बड़ा कर्ज दिया था, उसकी उगाही की धमकी देकर वह नयी सरकार को भी ब्लैकमेल करेगा।
श्रीलंका में जब यह लगा कि प्रधानमंत्री पद पर महेंदा राजपक्षे द्वारा कुर्सी संभालने के संकेत हैं तो आननफानन में चीन ने स्वागत करने वाला बयान दाग दिया। इस हास्यास्पद जल्दबाजी से चीन ने श्रीलंकाई नागरिकों के एक बड़े वर्ग को अपने खिलाफ कर लिया है। दूसरी ओर अमेरिका और जापान के नेतृत्व में पश्चिमी ताकतों ने रानिल विक्रमसिंघे की सरकार को जिस तरीके से सत्ताच्युत किया था, उस पर अपनी सख्त नाराजगी व्यक्त की। यहां तक कि श्रीलंका को दी जाने वाली आर्थिक मदद पर रोक लगा दी। हाल ही में म्यांमार सरकार ने भी क्यौकप्यू बंदरगाह विकास परियोजना के लिए चीनी कर्ज के जाल में फंसने से चिंतित होकर उसके निवेश की मात्रा को घटा दिया है। बहुचर्चित ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना’ बनाने में जिस प्रकार चीन आर्थिक दोहन कर रहा है, उसको देखते हुए पाकिस्तानी अर्थशास्त्री अब खुलकर नाराजगी व्यक्त करने लगे हैं। उधर मलेशिया ने रेलवे का बृहद विस्तार करने वाली अपनी योजना में चीनी मदद की पेशकश को ठुकरा दिया है। इस तरह के संशय उन अफ्रीकी और मध्य एशियाई देशों में भी सुनने को मिल रहे हैं जहां-जहां चीन ‘मदद’ कर रहा है।
अब संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन भारत के साथ लगते देशों में चीन द्वारा चलाई जा रही ‘कर्ज जाल-कूटनीति’ का तोड़ निकालने के लिए इन देशों को अधिक स्वीकार्य दरों पर धन मुहैया करवाने के खिलाफ नहीं है। यह भारत के लिए मौका है कि वह न केवल जापान बल्कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के साथ ऐसा सहयोग बनाए, जिससे कि एशिया और अफ्रीका के देशों में बहुआयामी निवेश से चलने वाली विकास योजनाओं से कमाई करने के अतिरिक्त सैन्य एवं आर्थिक फायदा लिया जा सके। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि चीन हिंद महासागर क्षेत्र के देशों को अपनी ‘कर्ज जाल कूटनीति’ में न फांस पाए।

 

कॉरिडोर और कूटनीति
Posted Date : 30-Nov-2018 11:06:58 am

कॉरिडोर और कूटनीति

श्री करतारपुर साहिब के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच एक सुरक्षित कॉरिडोर की नींव दोनों तरफ रख दी गई। सोमवार को पंजाब के गुरदासपुर जिले के मान गांव में उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू और सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसका शिलान्यास किया, जबकि बुधवार को पाकिस्तान में इसकी बुनियाद प्रधानमंत्री इमरान खान ने रखी। इस अवसर पर भारत से केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी और हरसिमरत कौर के साथ-साथ पंजाब के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू भी वहां मौजूद थे।
इस गलियारे के निर्माण को लेकर भारतीय राजनीतिक वर्ग के रवैये से पंजाब के श्रद्धालुओं के साथ-साथ उन लोगों का उत्साह भी थोड़ा फीका पड़ा, जो दोनों मुल्कों के बीच बेहतर रिश्तों के हिमायती हैं। कम से कम इस मौके को कूटनीति से परे रखा जा सकता था। सोमवार को शिलान्यास समारोह में पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पाक आर्मी चीफ कमर जावेद बाजवा को भारतीय जवानों की मौत के लिए जवाबदेह ठहराया। उन्होंने कहा कि बाजवा भारतीय जवानों पर हमले करवा कर बुजदिली दिखा रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने भी आतंकवाद का मुद्दा उठाया। 
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि कॉरिडोर निर्माण का अर्थ यह नहीं है कि पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय वार्ता शुरू हो जाएगी। ऐसा लगा जैसे भारतीय राजनेता अपने स्तर पर सफाई दो रहे हों कि कॉरिडोर से जोडक़र उनके प्रति कोई धारणा न बनाई जाए। क्या यह देश में चल रहे असेंबली चुनावों का दबाव है? सचाई यह है कि जनता को कोई गलतफहमी नहीं है। पाकिस्तान के रवैये को वह भी देख रही है और यह मानकर चल रही है कि दोनों देशों के रिश्ते सुधारने के लिए यह सही वक्त नहीं है। लेकिन भारत के लोग, खासकर सीमा पर रहने वाले लोग यह भी चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच जनता के स्तर पर संपर्क जारी रहे। यह भावना दोनों तरफ है। 
आतंकवाद को औजार बनाने वाले लोग उंगलियों पर गिने जाने लायक हैं, लेकिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान बनाए रखने की सोच वाले लोगों की तादाद करोड़ों में नहीं तो लाखों में जरूर है। करतारपुर साहिब कॉरिडोर इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस अवसर पर कड़वाहट भरी बातें इस प्रॉजेक्ट की सफलता को लेकर आशंकाएं पैदा करती हैं। 
मुमकिन है, पाकिस्तान ने ब्रिटेन और कनाडा के कुछ सिखों के बीच सिर उठा रहे खालिस्तानी स्वर को भांपकर उसे हवा देने के लिए ही इस कॉरिडोर पर मोहर लगाई हो। पाकिस्तान में कॉरिडोर की नींव रखे जाने के मौके पर खालिस्तान समर्थक गोपाल चावला की मौजदूगी से इस संदेह को बल मिलता है। बावजूद इसके, हमारा संयम ही हमारी शक्ति है। सार्क के लिए पाक आमंत्रण को ठुकराकर भारत ने अपना कूटनीतिक स्टैंड स्पष्ट कर दिया है। लेकिन कॉरिडोर जैसी ‘पीपल टू पीपल’ परियोजनाओं पर हमारा रवैया सकारात्मक ही होना चाहिए।