संपादकीय

30-Oct-2018 5:23:56 pm
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सम्पादकीय- मन की सफाई

हर दिन हम घर और अपने आसपास की साफ-सफाई नियमित रूप से करते रहते हैं, लेकिन जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है, हम कुछ अधिक सक्रिय होकर निष्ठा के साथ इस काम में जुट जाते हैं। इसी समय घर-घर से बेजरूरत का पुराना सामान, अटाला और रद्दी पेपर आदि खरीदने वालों की फेरियां भी खूब लगने लगती हैं। और सचमुच इन दिनों देखिए न… रोज की सफाई के बाद भी कितना अटाला, कूड़ा और कचरा निकल ही आता है। ज्यों-ज्यों हम इस काम में जुटते हैं, न जाने कब से खोई और गुमशुदा चीजें भी बरामद होने लगतीं हैं। कुछ का हम त्याग कर पाते हैं तो कुछ के मोहपाश में घिर जाते हैं। बहुत-सी वस्तुओं से हमारी कई स्मृतियां जुड़ी होती हैं। कुछ को हम जरूरत न होने पर भी सहेज लेना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि इन वस्तुओं के संग्रहण से हम कल के लिए कुछ खुशियां सुनिश्चित कर लेना चाहते हों।  जब हम घर की सफाई इतनी मुस्तैदी से करते हैं तो हमें एक बार अपने भीतर की व्यवस्था का भी पुनरावलोकन जरूर कर लेना चाहिए। मसलन, क्या हमारे बचपन की मासूमियत, अल्हड़पन, वह निश्छल खिलखिलाहट सहज रूप से उपस्थित है या वह भी अनावश्यक चीजों की भीड़ में कहीं ओझल हो गई है? हमारा शरीर पूरे दिन बिना थके हमारा साथ देता है? क्या चेहरे पर जो झुर्रियां आ गई हैं, वे उम्र की परिपक्वता का बयान कर रही हैं या फिर वे चिंताओं के निशान हैं? क्या आज भी हम कुछ समय उन लोगों के साथ बिता पाते हैं जो लोग हमारे प्रिय हैं, जो हमें निस्वार्थ भाव से प्यार करते हैं, जिनके साथ हम सहज रह पाते हैं? हर सुबह कुछ नया करने की ललक और जोश के साथ क्या आज भी हम सुबह जाग पा रहे हैं? उम्र के किसी भी पड़ाव पर हम हों, लेकिन ऐसे और कई भावुक और संवेदनापूर्ण सवाल भी हमें खुद से रोज पूछते रहना चाहिए और शांति से बैठ कर उन पर चिंतन भी करना चाहिए।
खुद को समझना और खुद से बात करना उतना ही जरूरी है, जितना जीवन के लिए प्राणवायु ग्रहण करना। उम्र के साथ-साथ हमारे अंदर कई शारीरिक और मानसिक बदलाव आते हैं। ऐसे में नई परिस्थिति के साथ खुद को तैयार करना बेहद जरूरी होता है। ज्यों-ज्यों हमारे संपर्कों का दायरा बढ़ने लगता है, कई तरह के विचारों और खट्टे-मीठे अनुभवों से हमारा सामना होने लगता है। जो आदतें हमारी पहले रही होंगी, वे नई स्थिति में हो सकता है उपयुक्त न हों। कम उम्र में हमें सबक दिया गया कि अपने से बड़े लोग हमें जो कहें वह बात हमें हर हाल में माननी चाहिए। लेकिन अब समय के साथ हमारे बड़ों में केवल हमारे परिजन और शिक्षक नहीं हैं, अन्य लोग भी शामिल हैं। इसलिए अब समझदारी इसी में है कि आदर का भाव सबके साथ रहे, लेकिन अपने विवेक से ही अच्छे-बुरे का निर्णय लिया जाए। समय जब हमसे जिम्मेदारी की अपेक्षा करता है तो उससे घबराने की जगह पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया जाना चाहिए। घर के अटाले के निपटान की तरह ही हमें अपने भीतर की सामग्री का निपटान भी करते रहना चाहिए। बढ़ती उम्र के साथ कुछ चीजें त्यागने के साथ कुछ चीजों को स्वीकार भी कर लेना चाहिए। यह तभी संभव है, जब हम इस बारे में ईमानदारी से विचार करेंगे। अब देखिए कि जब घर को रोज साफ करने पर भी इतना कचरा जमा हो जाता है तो फिर हमारा मस्तिष्क और शरीर कितना कुछ इकट्ठा कर लेता होगा! फिर विचार तो लगभग अमर ही होते हैं। कुछ गलत इकट्ठा हो गए तो उनसे मुक्ति बड़ी कठिन हो जाती है। मन के विचार ही हैं जो हमें कमजोर या मजबूत बनाते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा हर दिन उत्सव हो। इसके लिए हमें दृढ़ता की झाड़ू थाम लेनी चाहिए और उन विचारों को नष्ट कर देना चाहिए जो हमारे समय और सेहत को नुकसान पहुचा रहे हैं। उन लोगों से भी हमें परहेज करना चाहिए जो अपनी नकारात्मकता से हमें कमजोर कर रहे हैं, क्योंकि असल में ऐसी कोई भी परीक्षा और कठिन घड़ी नहीं है, जिस पर हम अपने साहस, मेहनत और विवेक के बल पर फतह हासिल न कर सकें। नकारात्मकता दीमक की तरह है जो सब कुछ नष्ट कर देती है। हमें उसे अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए। हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि हम किन चीजों को अपने जीवन में जगह दे रहे हैं और ये सब हमारे भविष्य की खुशहाली को निश्चित करते हैं या नहीं! कहा भी गया है, सही संगत और अच्छे साहित्य को अपने जीवन में जगह देनी चाहिए। जिन्हें सहेज कर जीवन सुखी होता हो, उन्हें रख कर भीतर के अटाले का भी त्याग करने में हमारा भला है।

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