संपादकीय

24-Aug-2018 5:50:44 am
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सम्पादकीय…क्या राहुल गांधी भी आत्मकेंद्रित राजनेता हैं?

कहते हैं, इतिहास क्रूर और निर्मम होता, वह किसी को माफ नहीं करता फिर चाहे वह कितना ही महान और लोकप्रिय क्यों ना हो। बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा ने पं. जवाहर लाल नेहरू के संदर्भ में की गई टिप्पणी पर भले ही विनम्रता दिखाते हुए माफी मांग ली है लेकिन पं. नेहरू स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है, इसे कैसे झुठलाया जा सकता है। यहां पर नेहरू-जिन्ना विवाद को कुरेदना मकसद नहीं है। अब वह गैर जरूरी ही है। इसमें गौर करने वाली बात यह है दलाईलामा ने पं. नेहरू के संदर्भ में एक खास शब्द का प्रयोग किया है। वह शब्द था – आत्मकेंद्रित। पं. नेहरू क्या वाकई आत्मकेंद्रित थे? उनके व्यक्तित्व के उस विश्लेषण के साथ भारत के प्रधानमंत्री बनने की अद्म्य इच्छा जुड़ी हुई थी। पं. नेहरू के उस आत्मकेंद्रित व्यक्तित्व के पहलू पर आज के संदर्भ में गौर किया जाए तो यही बात उनके ‘पड़-नातीÓ राहुल गांधी पर दिखाई नहीं देती? राहुल गांधी भी खुलकर यह कहने में संकोच नहीं कर रहे हैं कि हां, मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूं। राहुल गांधी में भी प्रधानमंत्री बनने की वही आत्मकेंद्रित अद्म्य लालसा अभिलाषा साफ झलक रही है। किसी राजनेता के लिए यह लालसा बुरी भी नहीं कही जा सकती। प्रधानमंत्री बनने की जितनी बेसब्री राहुल गांधी में होगी उतनी ही कांग्रेस में भी है। पूरी कांग्रेस उनकी अभिलाषा के साथ खड़ी है। प्रश्न यह नहीं है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। प्रश्न तो अद्म्य लालसा के भीतर है। ऐसे में सवाल यही उठता है क्या राहुल गांधी भी पं. नेहरू की तरह आत्मकेंद्रित राजनेता है? निसंदेह पं. नेहरू महिमा मंडित प्रधानमंत्री थे। उनकी दृष्टि रचनात्मक थी। अपार लोकप्रियता थी। वे जननायक थे। उनके जननायकत्व की आभा इतनी प्रबल और प्रखर थी उसमें उनके आत्मकेंद्रित होने का पहलू पीछे छिप गया था। आजाद भारत में उनके इस पहलू पर फिर कभी गौर नहीं किया गया। सामान्य सोच यही है कि जब कोई व्यक्ति हद से ज्यादा आत्मकेंद्रित हो जाए तो फिर उसे अपने सिवाय और किसी की परवाह नहीं होती और न ही अपने परिवेश की। ऐसा व्यक्ति किसी भी कीमत पर अपनी जिद्द को पूरा करना चाहता है। जिद्दी होना तब एक अच्छा गुण हो जाता है जब दृष्टि सकारात्मक और विधेयक हो। नकारात्मक नजरिये का जिद्द अंतत: फलदायी नहीं होता। राहुल गांधी के तेवरों से यह साफ झलकता है कि वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, चाहे राजनीति की दशा और दिशा कुछ भी हो। पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति से भला कौन वाकिफ नहीं है। लेकिन कांग्रेस महागठबंधन की ‘फुगड़ीÓ खेल रही है। न कोई उन्हें पूछ रहा है न कोई बुला रहा है फिर भी महागठबंधन का गीत गाते कांग्रेस के नेता यहां वहां चहक रहे हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी यह मान कर चल रहे हैं कि महागठबंधन से चुनाव 2019 में भाजपा की जबर्दस्त पराजय होगी और मोदी पीएम नहीं बन पाएंगे। उनका सोचना है, यूपी-बिहार सहित कई राज्यों में वोटों का समीकरण कुछ ऐसा बनेगा कि भाजपा की सारी चालाकियां और तैयारियां धरी की धरी रह जाएंगी। कांग्रेस इसी धारणा से ग्रसित नजर आ रही है। चिंता और दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी आज किसी के हार जाने पर बैठे ठाले अपनी जीत की संभावना के दीए जला रही है। ‘मर्कट मनÓ वाले किसी भी आदमी के लिए भारतीय राजनीति के शीर्ष पद पर पहुंचना आज भी कठिन है। आज की राजनीति में ‘हिट एण्ड रनÓ के नए मुहावरे को जीने वाले राहुल गांधी किसी एक मुद्दे पर आज तक अपनी धाक नहीं जमा पाए। किसी भी तरह पीएम मोदी हार जाएं यही कांग्रेस के लिए आज मूल मंत्र है। यह नकारात्मक राजनीति कांग्रेस को कहां ले जाएगी, यह आने वाला समय ही तय करेगा। किसी के हारने की उम्मीद पर जी रही कांग्रेस के पास क्या अपना कुछ कहने के लिए कुछ भी नहीं है? आरोपों के अनारदानों और सत्ता पक्ष की बुराइयों की कुछ फुलझडिय़ां जलाकर खुशी तो मनाई जा सकती है लेकिन वह सत्ता पाने की दीपावली तो नहीं हो सकती। महज किसी को गाली देकर कोई बड़ा कैसे हो सकता है? बड़ा होने की कूबत तो खुद पैदा करनी होती है। लोकतंत्र में किसी राजनेता का आत्मकेंद्रित हो जाना भी तब तक बुरा नहीं है जब तक वह अपने आसपास के लिए परेशानी का कारण न बने। राहुल गांधी आज सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष हैं उनके ‘वास्तविकÓ सलाहकार कौन है, यह तो पता नहीं, प्रत्यक्ष तौर पर यह भी कहना कठिन है कि कांग्रेस में आज उन्हें खुले तौर पर सलाह देने की कोई हिम्मत रखता है या नहीं। ऐसे में किसी का आत्मकेंद्रित सपना कांग्रेस के लिए एक बार फिर खतरे की घंटी बन सकता है। खैर, कांग्रेस का इतिहास ढेरों-ढेर दर्द अपने भीतर समेटे हुए है जिसका जिक्र करना फिलहाल ठीक नहीं है। लोकसभा के चुनाव अभी कम से कम आठ महीने दूर हैं। तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में महज तीन महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं। बेशक, कांग्रेस के लिए वापसी का बेहतरीन मौका है। लेकिन ‘मौकाÓ हकीकत में तभी न तब्दील होगा जब कांग्रेस जमीनी स्तर पर कुछ कर दिखाएगी। छत्तीसगढ़ के मुद्दों को छोड़कर चुनाव के पहले राफेल-राफेल-राफेल चिल्लाने से क्या होगा? जिस राफेल पर कांग्रेस के साथ कथित महागठबंधन का कोई एक दल भी खड़ा नहीं दिख रहा है। तब छत्तीसगढ़ की जनता कितना साथ देगा? राहुल गांधी रायपुर के दौरे पर आए और गए भी। उनके आने-जाने से कांग्रेस में कितनी नई ऊर्जा का संचार हुआ, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा। बदलाव के नारों और पोस्टरों से कांग्रेस और राहुल गांधी छत्तीसगढ़ का कितना और कैसा भला करना चाहते हैं, यह अभी समझ से परे है।

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