संपादकीय

08-Aug-2018 12:32:57 pm
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संपादकीय- इस दीवानगी को क्या नाम दें

पिछले हफ्ते तमिलनाडु तब असहज हो उठा, जब पूर्व मुख्यमंत्री और द्रमुक के वरिष्ठ नेता एम करुणानिधि के स्वास्थ्य में अचानक गिरावट की खबर फैली। 94 वर्षीय इस वयोवृद्ध राजनेता की सेहत अभी स्थिर है, मगर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वह अस्पताल में ही हैं। बीते हफ्ते जैसे ही उनकी सेहत बिगड़ने की खबर फैली, अस्पताल के बाहर पार्टी कैडर और समर्थकों का तांता लग गया। वे सभी उनके स्वस्थ घर लौटने की प्रार्थना कर रहे हैं। भारत में रोगियों के प्रति आमतौर पर सहानुभूति होती है, मगर तमिलनाडु में राजनेताओं के लिए ऐसी भावनाएं चरम पर होती हैं और समर्थक अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटते। करुणानिधि के सियासी वारिस और मौजूदा अध्यक्ष एमके स्टालिन ने भी बतलाया है कि करुणानिधि के अस्पताल पहुंचने का गम 21 लोग बर्दाश्त नहीं कर सके। उन्होंने अपने कैडरों से यह अपील की है कि वे इस तरह का ‘अतिवादी कदम’ न उठाएं। आखिर सूबे में इस तरह की अंधभक्ति क्यों है?

तमिलनाडु में राजनेताओं, फिल्मी सितारों और सार्वजनिक जीवन जीने वाली हस्तियों के प्रति असीम श्रद्धा का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। के कामराज, सीएन अन्नादुरई, द्रविड़ विचारों के प्रणेता ईवी रामासामी यानी पेरियार, फिल्म अभिनेता शिवाजी गणेशन जैसी तमाम हस्तियों को लोगों का भरपूर स्नेह और प्यार मिला। साल 1984 में जब एमजी रामचंद्रन अस्पताल में भर्ती हुए थे, तो यहां का पूरा जनजीवन ठहर गया था। तब उनकी सेहत के लिए राज्य भर में और अस्पताल के बाहर लाखों लोग प्रार्थना करते देखे गए थे। इस तरह का अभूतपूर्व जन-समर्थन सिर्फ फिल्मी सितारों और राजनेताओं को ही नहीं मिलता, बल्कि पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को भी लोगों ने हाथों हाथ लिया था। 

यह सब इसलिए है, क्योंकि तमिलनाडु की सियासत आदर्शवाद, सिनेमा और साहित्य का मिला-जुला रूप है। यहां क्षेत्रीय पहचान और संस्कृति से तमिल भाषा बुरी तरह गुंथी हुई है। यह एक ऐसा राज्य है, जो इंसानों की मूर्ति-पूजा में विश्वास रखता है और करता भी रहा है। हालांकि भावना और सहानुभूति का यह उबाल जाति-दर-जाति अलग-अलग रहा है। पेरियार, कामराज और अन्नादुरई जहां सूबे में सामाजिक बदलाव करने के कारण पूजे गए, वहीं शिवाजी गणेशन के प्रति आकर्षण का कारण सिनेमाई उन्माद था। एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) एक श्रेष्ठ अभिनेता थे, जिन्होंने सिल्वर स्क्रीन का बखूबी इस्तेमाल अपने राजनीतिक संदेशों के विस्तार में किया। करीब दो साल पहले सेहत बिगड़ने के बाद जयललिता जब अपोलो अस्पताल लाई गई थीं, तब भी लोगों में इसी तरह का आवेग दिखा था। उन्हें मिले प्यार की वजह उनका परोपकार का काम था। गरीबों में कपड़ा व खाना बंटवाने और आम लोगों के हित में कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू करने का श्रेय उन्हें जाता है। उनके समर्थक उनमें मां की छवि देखते थे और उन्हें ‘अम्मा’ कहते थे। हालांकि उनकी विरासत आंतरिक कलह की भेंट चढ़ गई। जब एमजीआर दिवंगत हुए थे, तो पार्टी में उत्तराधिकार की जंग उभरी जरूर थी, पर वह जयललिता के नाम पर स्वीकृति के साथ खत्म हो गई थी। मगर जयललिता ने कोई उत्तराधिकारी नहीं चुना था और उनकी करीबी शशिकला नटराजन को, जिन्होंने उनकी विरासत पर हक जमाने की कोशिश की, न सिर्फ नकार दिया गया, बल्कि वह हंसी की पात्र भी बनीं। 

एमजीआर की तरह जयललिता भी एक ऐसी सफल राजनेता थी, जो फिल्मी दुनिया से सियासत में आई थीं। दोनों का बड़ा जनाधार था। लेकिन एमजीआर द्वारा स्थापित और जयललिता द्वारा सींचे गए अन्नाद्रमुक की कोई एक विचारधारा नहीं थी। एमजीआर ने कई ऐसे काम किए, जो द्रविड़ विचारधारा के विपरीत थे, जबकि वह इसी विचारधारा की कसमें खाया करते थे। एमजीआर ने तब कोई ऐतराज नहीं जताया, जब केंद्र ने आंध्र प्रदेश की एनटीआर सरकार को बर्खास्त कर दिया था। गैर-हिंदी के मुद्दे से भी उन्होंने आंखें फेरी। क्षेत्रीय अस्मिता का मसला भी छोड़ दिया। ब्राह्मणवाद विरोध का मामला तो ज्यादा दिनों तक जीवित ही नहीं रहा, क्योंकि जयललिता खुद एक ब्राह्मण थीं। 

करुणानिधि का चरित्र इससे बिल्कुल जुदा है। उनकी शुरुआत एक सामान्य कार्यकर्ता से हुई और फिर वह द्रमुक के एक शक्तिशाली नेता बने। पांचवें दशक की शुरुआत में वह द्रविड़ विचारधारा के अगुवा बन गए और बाद में एमजीआर समेत तमाम विरोधियों को मात देकर मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंचे। एमजीआर या जयललिता की तरह वह कोई फिल्मी सितारे नहीं थे, पर अपने लेखन के बूते वह फिल्मी दुनिया से जुड़े जरूर थे। उन्होंने कई फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी, जो हिट साबित हुईं। उन्होंने ऐसी कैडर आधारित पार्टी का नेतृत्व किया, जो द्रविड़ विचारधारा से मजबूती से जुड़ी थी। उन्होंने क्षेत्रीय स्वायत्तता, तमिल राष्ट्रवाद, गैर-हिंदी और गैर-ब्राह्मणवाद का एजेंडा आगे बढ़ाया। हालांकि बीतते वर्षों के साथ जैसे-जैसे उन्होंने अन्य सियासी दलों के साथ गठबंधन किया और केंद्र की सत्ता की तरफ आए, वह भी इन मुद्दों से दूर हुए।

कुरसी ने उनके लिए मुश्किलें भी खड़ी कीं। नातेदार-रिश्तेदारों के प्रति स्नेह, कुनबापरस्ती और वंशवाद राजनीति के अपने खतरे होते ही हैं। बावजूद इसके करुणानिधि न सिर्फ एक जन-नेता हैं, बल्कि एक ऐसे पारखी भी हैं, जो अपनी राह में आने वाली तमाम घटनाओं को पढ़ लेता है। यही इस नेता की ताकत है, जो न सिर्फ कैडरों को लुभाती है, बल्कि राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेताओं और मुख्यमंत्रियों तक को अपनी ओर खींचती है। अस्पताल में संक्रमण से जूझ रहा यह शख्स अपनी उम्र के दसवें दशक में है, मगर सक्रिय राजनीति से दो साल पहले तब दूर हुआ, जब सेहत ने साथ देना बंद कर दिया।

इन दिनों समर्थक उनसे यही कह रहे हैं- ‘वापस आओ और नेतृत्व करो’। कई तो मंदिरों में माथा टेक रहे हैं और उनके जल्दी सेहतमंद होने की दुआ मांग रहे हैं। अस्पताल के बाहर समर्थकों की भारी भीड़ और अनवरत चमकते मीडिया कैमरे यही बता रहे हैं कि तमिलनाडु अभी सबसे अधिक भावनात्मक ज्वार देख रहा है।

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