संपादकीय

07-Mar-2019 12:11:18 pm
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जीत कर भी हार, हार कर जीत

प्रदीप उपाध्याय
कहते हैं कि जो जीता वही सिकन्दर लेकिन लोकतंत्र के तथाकथित मन्दिर में क्या तो पतित और क्या पावन क्योंकि उसमें किसकी घटस्थापना हुई और कौन विराजित हुआ, इस पर संशय हमेशा से बना रहा है। कारण यही है कि लोकतंत्र में जीत-हार का गणित चुनावी गोरखधन्धे से तय होता है। इसी में मूरत भी तय होती है। अत: यह तय कर पाना भी जरा मुश्किल ही है कि चुनाव करना/करवाना अनिवार्य है या फिर मजबूरी!
एक तरफ चुनाव आयोग के लिए यह अनिवार्यता हो सकती है तो दूसरी ओर मतदाता के लिए यह अनिवार्यता है या मजबूरी, यह शोध का विषय हो सकता है। कारण स्पष्ट है कि चुनाव जनता के लिए करवाए जाते हैं, चुनाव जनता के लिए ही लड़े जाते हैं, जनता के कल्याण के लिए ही लड़े जाते हैं! यही कहा, देखा और सुना गया है। किसी और ने कुछ अलग सुना या देखा हो तो बता दें।
खैर, जहां लड़ाई होती है, वहां हार-जीत भी होती है क्योंकि यह दो पक्षों के बीच होती है किन्तु लोकतंत्र के दंगल में यह समझ से परे है कि जब दो पक्ष चुनाव मैदान में उतरते हैं, एक पक्ष को सत्ता मिलती है और दूसरे पक्ष को मन मसोसकर विपक्ष में बैठना पड़ता है जबकि लड़ते दोनों ही जनता के लिए और जनता के नाम पर। एक जीतकर कहता है कि यह जनता की जीत है और दूसरा पक्ष हारकर कहता है कि यह जनता की हार है! ऐसे में कैसी हार और कैसी जीत। तब भी जीतने वाले जीत गए और हारने वाले हार गए!
पक्ष-विपक्ष अपनी जीत-हार के बहुतेरे कारण गिना देते हैं लेकिन बात वहीं आकर ठहर जाती है कि जब मतदाता ही जीता और मतदाता ही हारा, जिताने वाला भी मतदाता और हराने वाला भी मतदाता, जीतकर भी मतदाता परेशान हाल और हारकर तो रहता ही है परेशान हाल। तब मतदाता यानी आम जनता कैसे तो जीत का जश्न मनाए और कैसे हार की रुदाली गाए!
जिन्हें जीत का जश्न मनाना आता है, वे जश्न मनाते ही हैं और जो सत्ता से वंचित रह जाते हैं, उनकी रुदाली फूटते हुए अलग ही दिखाई दे जाती है। तब फिर जनता के लिए वही बात कि कैसी जीत, यहां तो हार ही हार।

 

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