संपादकीय

13-Jul-2018 8:12:46 am
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संपादकीय- पुलिस सुधारों के प्रति नेता ईमानदार नहीं

राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति को लेकर सुप्रीमकोर्ट का फैसला नया नहीं है। वास्तव में यह तो सुप्रीमकोर्ट का वर्ष 2006 का फैसला है। राज्य सरकारों ने उस फैसले पर मनमाने तरीके से अमल किया। कई राज्यों ने तो उसके क्रियान्वयन में विकृतियां ही पैदा कर दीं। राज्यों ने जो कुछ भी किया, वह पुलिस रिफार्म के लिए नहीं, बल्कि सुप्रीमकोर्ट से खुद को बचाने के लिए किया। इसलिए सुप्रीमकोर्ट ने अब अपने उस फैसले पर संज्ञान लिया। सुप्रीमकोर्ट का यह जो आदेश आया है, वह उसी फैसले का स्पष्टीकरण है।

सुप्रीमकोर्ट के 2006 के उस फैसले में मुख्यत: छह बातें थीं। राज्यों ने तो सिर्फ एक पर ही अमल किया। वास्तव में राजनेताओं के लिए पुलिस व्यवस्था कभी भी प्राथमिकता में नहीं रही है। वे पुलिस को लेकर उदासीन रहे हैं। ज्यादातर नेता पुलिस का इस्तेमाल करते हैं। वे पुलिस से यही चाहते हैं कि पुलिस उनके कहने पर किसी को गिरफ्तार कर ले, मुकदमा दर्ज कर ले। किसी ने कभी भी गंभीरता से पुलिस की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास नहीं किया। केंद्र हो या राज्य, सभी जगह यही स्थिति रही। सरकार किसी भी दल की रही हो, पुलिस को लेकर सभी दलों का एक ही रवैया रहा है कि पुलिस उनके कहे अनुसार चले। उनकी कठपुतली बनी रहे।
सुप्रीमकोर्ट ने 2006 के फैसले में राज्यों के लिए छह बातें कही थीं। सुप्रीमकोर्ट के आदेश के तहत राज्यों को स्टेट सिक्योरिटी कमीशन (एसएससी) का गठन करना था। पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) की नियुक्ति मेरिट के आधार पर करनी थी। तब उच्च अधिकारियों का कार्यकाल कम से कम दो साल रखने की बात कही गई थी। पुलिस में जांच और कानून व व्यवस्था के लिए अलग-अलग विंग बनाने थे। पुलिस के डीएसपी रैंक से नीचे स्तर के अधिकारियों के सभी स्थानांतरण, पोस्टिंग, प्रचार और अन्य सेवा संबंधित मामलों पर निर्णय लेने के लिए प्रत्येक राज्य में एक पुलिस प्रतिष्ठान बोर्ड गठित करना था। अदालत ने राज्यों को पुलिस कंप्लेंट्स अथॉरिटी (पीसीए) का गठन करने को भी कहा था।
इसके तहत डीएसपी रैंक तक के अफसरों के खिलाफ शिकायतों को देखने के लिए जिलास्तर पर एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किया जाना था। इसी तरह पुलिस सुपरिंटेंडेट व उनसे बड़े रैंक के अफसरों के खिलाफ शिकायतों को देखने के लिए राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय या सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना करनी थी। राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल सिक्योरिटी कमीशन (एनएससी) का गठन भी किया जाना था। तब अदालत ने यह भी कहा था कि जो निर्देश जारी किए जा रहे हैं, वे तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि केंद्र और राज्य सरकारें इस मामले में अपना अधिनियम नहीं बना लेतीं।
इस मामले में राज्यों ने सुप्रीमकोर्ट के इन निर्देशों का अनुपालन या तो किया ही नहीं, अथवा मनमाने तरीके से किया। यह भी कहा जाता है कि कई राज्यों ने अपने नए पुलिस अधिनियम बना लिए हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। राज्यों ने जो कुछ काम किया भी, वह अदालत से बचने के लिए किया। वास्तव में राज्यों ने ये अधिनियम सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का पालन करने के लिए नहीं, बल्कि उनसे बचने के लिए बनाए हैं। इसे पुलिस रिफार्म नहीं कह सकते। अभी तो पांच बातें बची हैं, जिन पर अभी अमल किया जाना बाकी है।
बहरहाल, सुप्रीमकोर्ट ने अब ताजा फैसले में साफ कह दिया है कि राज्यों में डीजीपी की नियुक्ति का मामला संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) देखेगा। यूपीएससी डीजीपी पद के लिए तीन सबसे अधिक उपयुक्त पुलिस अधिकारियों की सूची तैयार करेगा। राज्य सरकार उनमें से किसी एक को डीजीपी बना सकेगी। सुप्रीमकोर्ट ने यह भी कहा कि सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश किसी भी पुलिस अधिकारी को कार्यवाहक डीजीपी नियुक्त नहीं कर पाएंगे।
अब तक राज्य सरकारें कार्यवाहक डीजीपी बनाते रहे हैं। फिर कुछ समय तक यह देखते रहे हैं कि डीजीपी उनका कहना मान रहे हैं कि नहीं। उनके इशारों पर चल रहे हैं कि नहीं। जो कार्यवाहक डीजीपी मुख्यमंत्री के इशारे पर चलने लगता था, उसे स्थाई डीजीपी बना देते थे। जो गलत काम करने से इनकार कर देते थे, उन्हें हटाकर दूसरे को डीजीपी बना देते थे। अदालत ने यह भी कहा है कि डीजीपी के रिटायर होने से तीन माह पहले यूपीएससी को उनके नाम भेजने होंगे जो इन पदों के दावेदार हैं। यूपीएससी उनकी सेवा की अवधि, अच्छे रिकॉर्ड और अनुभव के आधार पर तीन नाम प्रदेश सरकार को भेजेगी। राज्य सरकार उस पैनल के तीन वरिष्ठ अधिकारियों में से एक को डीजीपी चुन सकेगी। एक बार डीजीपी का चयन करने के बाद उसका न्यूनतम कार्यकाल दो साल का होना चाहिए। डीजीपी के अलावा एसपी का न्यूनतम कार्यकाल भी दो साल तय करने को कहा है।
सुप्रीमकोर्ट के इस आदेश के बावजूद पुलिस तंत्र में अभी बहुत सुधार करने की जरूरत है। पुलिस तंत्र में बहुत-सी समस्याएं हैं। पुलिस के कामकाज के घंटे तय नहीं हैं। जवानों को छुट्टियां मिलने में बहुत मुश्किलें होती हैं। जवान तनाव में रहते हैं। लगातार बढ़ती आबादी और नये-नये अपराधों के मद्देनजर पुलिस में संसाधनों की भारी कमी है। ट्रांसपोर्ट व्यवस्था सुधारने की जरूरत है। हथियार व अन्य जरूरी उपकरणों की भी जरूरत है। अपराधिक मामलों की जांच के लिए फोरेंसिक लेबोरेट्री की बहुत कमी है। उनके लिए आवास की भी बड़ी कमी है। इसी तरह केंद्रीय पुलिस बलों में भी बहुत-सी समस्याएं हैं। आए दिन जवान एक-दूसरे को गोली मारते रहते हैं। चूंकि वे घर से बहुत दूर रहते हैं, इसलिए ज्यादा तनाव में रहते हैं। उनकी समस्याएं भी बहुत जटिल हैं। बहरहाल, यह फैसला 2006 का है, तब से इस पर किसी ने ईमानदारी से अमल करने में दिलचस्पी नहीं ली।
अब सुप्रीमकोर्ट के ताजा आदेश से कम से कम डीजीपी की नियुक्ति तो ठीक से हो सकेगी। अभी तो बहुत काम किया जाना बाकी है। पुलिस में ढेरों समस्याएं हैं। यदि सुप्रीमकोर्ट के 2006 के फैसले पर ईमानदरी से काम किया होता तो पुलिस को लेकर समस्याएं कम हो जातीं लेकिन किसी ने भी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई।

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