संपादकीय

27-Feb-2019 11:51:03 am
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तेल के खेल का फायदा उठाये भारत

भरत झुनझुनवाला
बीते दिनों में अमेरिका ने वेनेजुएला से ईंधन तेल का आयात बंद कर दिया है और भारत जैसे तमाम देशों पर भी दबाव डाला है कि वे वेनेजुएला से ईंधन तेल न खरीदें। वेनेजुएला के सत्ताधारी राष्ट्रपति पर भ्रष्टाचार आदि के तमाम आरोप हैं और अमेरिका उन्हें हटाने को उद्यत है। इससे पहले अमेरिका ने ईरान पर भी इसी प्रकार के प्रतिबंध लगाये थे। अमेरिका ने व्यवस्था की थी कि ईरान के तेल के निर्यातों का पेमेंट किसी भी अमेरिकी बैंक द्वारा नहीं किया जायेगा। अमेरिका ने भारत जैसे देशों को भी आगाह किया था कि ईरान से तेल की खरीद कम कर दे। लेकिन वेनेजुएला और ईरान भारत के प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता हैं। इसलिए अमेरिका के कहे अनुसार इन देशों से तेल का आयात न करने से हमारी ईंधन सप्लाई कम होगी और हमारी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। हमें इन देशों के सस्ते तेल के स्थान पर सऊदी अरब अथवा अन्य देशों से महंगे तेल को खरीदना पड़ेगा। ऐसे में हमको तय करना है कि अमेरिका का साथ देते हुए वेनेजुएला एवं ईरान से तेल की खरीद बंद करेंगे अथवा अमेरिका का सामना करते हुए इन देशों से तेल की खरीद जारी रखेंगे।
इस निर्णय को करने के लिए हमें यह समझना होगा कि अमेरिका द्वारा लगाये गए प्रतिबंधों की सफलता की क्या स्थिति है। जैसा ऊपर बताया गया है अमेरिका ने आदेश दिया है कि किसी भी अमेरिकी बैंक के माध्यम से ईरान के तेल का पेमेंट नहीं हो सकेगा। ईरान के तेल को खरीदा जा सकता है यदि उसका पेमेंट अमेरिकी बैंकों के माध्यम से न हो बल्कि दूसरे बैंकों से हो। अत: यदि यूरो के माध्यम से ईरान के तेल का पेमेंट होता है तो इसमें अमेरिका द्वारा लगाये गये प्रतिबंध आड़े नहीं आते हैं। वर्तमान में विश्व बाजार में तेल के व्यापार का 40 प्रतिशत पेमेंट अमेरिकी बैंकों के माध्यम से होता है जबकि 35 प्रतिशत यूरोपीय बैंकों से होता है। ऐसे में अमेरिकी सरकार ने अमेरिकी बैंकों को यह लेन-देन करने से मना कर दिया है। इसका सीधा परिणाम यह होगा कि तेल का पेमेंट अब डॉलर के स्थान पर यूरो के माध्यम से होगा, जिस पर अमेरिका का कोई प्रतिबंध नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में आने वाले समय में विश्व बाजार में तेल का अधिकाधिक लेन-देन डॉलर के स्थान पर दूसरी मुद्राओं में होने लगेगा। ऐसा होने पर अमेरिका की मंशा निष्फल होगी क्योंकि वेनेजुएला और ईरान से तेल का निर्यात होता रहेगा और उन्हें इसका पेमेंट डॉलर के स्थान पर यूरो में मिलता रहेगा।
अमेरिका की घरेलू वित्तीय हालत भी डावांडोल होती जा रही है। राष्ट्रपति ट्रम्प ने चुनावी वादा किया था कि वे अमेरिकी सरकार का वित्तीय घाटा नियंत्रित करेंगे। वित्तीय घाटा वह रकम होती है जो कि सरकार आय से अधिक खर्च करती है। यदि सरकार की आय 100 अरब डॉलर है और सरकार ने खर्च 150 अरब डॉलर का किया तो वित्तीय घाटा 50 अरब डॉलर होता है। इस घाटे की पूर्ति सरकारें बाजार से ऋण उठाकर करती हैं। वित्तीय घाटा बढऩे का सीधा परिणाम मुद्रा पर पड़ता है। यदि सरकार भारी मात्रा में ऋण लेती है तो उसका पेमेंट करने के लिए सरकार को अंतत: घरेलू उद्यमों पर टैक्स लगाना पड़ता है और ऐसा करने से घरेलू उद्यमों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती है जैसे ऋण से दबी हुई कंपनी के शेयर का मूल्य बाजार में गिरता है। इसी प्रकार ऋण से दबे हुए देश की मुद्रा विश्व बाजार में गिरती है। राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के आखिरी वर्ष में अमेरिकी सरकार का वित्तीय घाटा 600 अरब डॉलर था। राष्ट्रपति ट्रम्प के कार्यकाल में इस वर्ष में यह बढक़र 900 अरब डॉलर हो गया है। वित्तीय घाटा बढऩे का अर्थ हुआ कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था अंदर से कमजोर हो रही है और मुद्रा कभी भी लडख़ड़ा कर गिर सकती है।
अमेरिकी डालर आज विश्व की प्रमुख मुद्रा है। विश्व के अधिकाधिक वित्तीय लेन-देन डॉलर के माध्यम से किये जाते हैं। यदि आपको 100 रुपये किसी जापानी को भेजने हैं तो आप उन 100 रुपये से पहले डॉलर खरीदते हैं और फिर डॉलर को जापान भेजते हैं और जापानी व्यक्ति उन डॉलर को बेचकर यह रकम येन में प्राप्त करता है। डॉलर की इस विश्व मुद्रा की भूमिका के चलते विश्व के तमाम देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार को अमेरिकी डॉलर में परिवर्तित करके अमेरिकी बैंकों में जमा करा देते हैं, जिससे कि जरूरत पडऩे पर वे इस मुद्रा को तत्काल निकाल कर अपनी जरूरतों की पूर्ति कर सकें। यह रकम अमेरिका को एक मुक्त ऋण के रूप में प्राप्त होती है। जैसे यदि आपने किसी साहूकार को एक हजार रुपये दे दिए कि जरूरत पडऩे पर ले लेंगे तो साहूकार उस एक हजार रुपये का उपयोग अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए कर सकता है जब तक कि आप उन्हें वापस न मांगें। इसी प्रकार विश्व के तमाम देशों ने 21 हजार अरब डॉलर अमेरिकी बैंकों में जमा करा रखे हैं। यह विशाल राशि अमेरिका को मुफ्त ऋण के रूप में मिल रही है। अमेरिका की आर्थिक ताकत का कारण या एक आधार यह विशाल मुद्रा है। जैसे यदि आपको कोई बीस व्यक्ति एक-एक करोड़ रुपये सुरक्षित रखने के लिए दे दें तो आपके पास बीस करोड़ रुपये सहज ही आ जायेंगे और आप बाजार में बड़े हो जायेंगे। लेकिन अमेरिका की यह ताकत अब कमजोर होने को है। जैसा ऊपर बताया गया है कि तेल के वित्तीय लेन-देन के लिए तमाम देश डॉलर को छोडक़र यूरो अथवा दूसरी मुद्रा में लेन-देन, शुरू करने का प्रयास कर रहे हैं। चीन भी एक वैकल्पिक विश्व मुद्रा बनाने का प्रयास कर रहा है। साथ-साथ अमेरिकी सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है, जिससे कि अमेरिकी डॉलर की साख घट रही है। इन दोनों कारणों से अमेरिकी डॉलर की विश्व मुद्रा की भूमिका पर आंच आ सकती है, अमेरिका को मुफ्त मिल रहा ऋण कम हो सकता है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर संकट आ सकता है।
इस परिस्थिति में हमें देखना होगा कि अमेरिका द्वारा वेनेजुएला तथा ईरान से तेल बंद करने की धमकी का हम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। यदि अमेरिकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है और इन प्रतिबंधों से और अधिक कमजोर होने को है तो हमें वेनेजुएला तथा ईरान से तेल का आयात करते रहना चाहिए। ऐसे में हम अमेरिका का साथ देकर दोगुना नुकसान करेंगे। एक तरफ वेनेजुएला और ईरान से तेल न खरीद कर महंगा तेल खरीदेंगे और दूसरी तरफ अमेरिका भी हमारी मदद नहीं कर सकेगा। इसके विपरीत यदि हम वेनेजुएला और ईरान से तेल खरीदना जारी रखें तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकट को बढ़ा सकते हैं, जिससे विश्व अर्थव्यवस्था में हमारी साख में सुधार होगा। इसलिए अमेरिका की धमकी का सामना करते हुए वेनेजुएला और ईरान से तेल की खरीद जारी रखनी चाहिए, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ रहे और अमेरिका यदि इस कार्रवाई में टूटता है तो इससे हमें कोई नुकसान होने की संभावना नहीं है।
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