संपादकीय

15-Jan-2019 1:05:07 pm
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कृषि सुधार से हासिल करें दीर्घकालीन लक्ष्य

देविंदर शर्मा
यह लगातार चौथा साल है जब आगरा जिले के एक किसान प्रदीप शर्मा को आलू की फसल में घाटा उठाना पड़ा है। इस साल उन्होंने 10 एकड़ रकबे में बिजाई की थी और जब मंडी में 19,000 किलो तैयार आलू की जो कीमत लगी, उसमें इस पूरी फसल पर महज 490 रुपये का फायदा होते पाया। क्षुब्ध प्रदीप ने यह ‘भारी मुनाफा’ प्रधानमंत्री को यह सोचकर भेज दिया कि शायद इस कदम से ही सही, उन्हें ‘मुझ जैसों की समस्या’ का पता चल जाए ! इस प्रसंग के कुछ दिन बाद मध्य प्रदेश की मंदसौर मंडी में 27,000 किलो प्याज केवल 10,000 रुपये में बेचने के बाद अवसाद में आए किसान भूरेलाल मालवीय की सदमे से मौत हो गई।
किसानों की इस तरह की त्रासदियां पिछले कई सालों से मीडिया में सुर्खियां बनती आई हैं। साल-दर-साल होते घाटे के कारण किसान एक तरह से उधार पर जिन्दगी बसर करने को मजबूर हैं। यह कर्ज वे आधिकारिक या गैर आधिकारिक स्रोतों से उठा रहे हैं। सिंतबर 2016 तक कृषि संबंधी बकाये कर्ज की कुल मात्रा 12.60 लाख करोड़ रुपये थी, अब इसका मिलान यदि देश के 17 राज्यों में पिछले लगभग 50 सालों में किसानों की वार्षिक औसत आय, जो लगभग 20,000 रुपये बैठती है, से किया जाए तो घाटे की मार साफ दिखाई देती है।
कृषक संकट पर बहस मुख्यत: जिन बातों पर है, उसमें अव्वल यह है कि क्या कृषि ऋण माफी किसानों की समस्या का हल है और दूसरी कि राज्य सरकारें इस मद में पडऩे वाले बोझ को कैसे सहेंगी? मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नए मुख्यमंत्रियों ने अपना ओहदा संभालते ही जिस तेज गति से कृषि ऋण माफ करने की घोषणा की है, उससे सवाल उठने लगे हैं कि राजनीतिक रूप से फायदा लेने हेतु किए गए इस किस्म के फैसलों की ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ क्या है।
सबसे पहले तेलंगाना सरकार ने ‘रायतु-बंधु योजना’ शुरू की है, जिसमें किसानों को प्रति एकड़ 8,000 रुपये सालाना सीधी आय (बाद में बढ़ाकर 10,000 रुपये कर दिया गया है) देने का प्रावधान है। इस कदम ने अन्य राज्य सरकारों को भी ऐसी योजनाएं अपने यहां हू-ब-हू या कुछ सुधार वाले प्रारूप में लागू करने को उत्प्रेरित किया है। इस कड़ी में सबसे पहले कर्नाटक की निवर्तमान कांग्रेस सरकार ने सिंचाई-विहीन खेत मालिक कृषकों को प्रति एकड़ 5,000 रुपये अनुदान आय देने की घोषणा की थी। हिन्दी भाषी राज्यों में हाल में हुए विधानसभा चुनाव में राजनीतिक हार झेलने वाली भाजपा ने कांग्रेस के डर से ओडिशा के आगामी विधानसभा चुनाव में किसानों को लुभाने के लिए वादा किया है कि सत्ता मिलने पर उन्हें आर्थिक पैकेज दिया जाएगा। इसके तहत कर्ज माफी की बजाय पहले तीन सालों में 10,800 करोड़ रुपये वाली ‘कालिया’ नामक ‘कृषक जीवनयापन एवं आय सुधार योजना’ उलीकी गई है और इसमें भूमि मालिक किसान, किराए पर खेत लेकर कृषि करने वाले, भूमिविहीन खेती-मजदूर एवं अन्य संबंधित कृषि पेशेवर भी शामिल हैं। इससे 57 लाख परिवारों को फायदा होना बताया गया है।
इसके तुरंत बाद झारखंड ने भी अपने 22.76 लाख छोटे और हाशिए पर आते किसानों के लिए 2,250 करोड़ रुपये वाली योजना लागू कर दी, जिसके तहत 5,000 रुपये प्रति एकड़ सालाना आय यकीनी बनाई गई है, इसके लिए लाभ की अधिकतम सीमा 5 एकड़ रखी गई है। अब हरियाणा भी अपने यहां किसानों को पेंशन स्कीम देने पर विचार कर रहा है, वहीं बंगाल ने ‘कृषक बंधु योजना’ उलीकी है, जिसके अंतर्गत कृषक को 10,000 रुपये प्रति एकड़ सालाना आय देने के अलावा 18 से 60 साल तक के हर किसान का 2 लाख रुपये मूल्य का बीमा करवाना तय किया है, जिसकी किश्तें राज्य सरकार भरेगी। इसमें हर्जाना प्राप्त करने की वजह कोई भी हो सकती है।
छत्तीसगढ़ सरकार 2 लाख तक के कृषि ऋण को माफ करने के लिए पहले चरण में 1,248 करोड़ रुपये अब तक 3.5 लाख किसानों के खाते में हस्तांतरित कर चुकी है। पंजाब में भी धीमी गति के बावजूद सहकारी एवं व्यावसायिक बैंकों से कर्ज लेने वाले 4.14 लाख छोटे और हाशिए पर आते किसानों, जो कर्ज अदायगी करने में असमर्थ थे, का 3,500 करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया है। इस तरह पूरे देश में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु सरकारों ने कुल मिलाकर कृषि ऋणों में 2.3 लाख करोड़ रुपये की माफी घोषित की है। इससे 3.4 करोड़ किसान परिवार लाभान्वित होंगे।
वहीं कॉर्पोरेट जगत का रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 के बीच 4 साल के दौरान 3.16 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया गया है, जबकि बकाया कर्ज की उगाही केवल 32,693 करोड़ रुपये हुई है। 30 सितम्बर 2018 तक की बात करें तो सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के अलावा इन कर्जदारों की संख्या महज 528 थी, जिन पर कुल मिलाकर 6.28 लाख करोड़ का ऋण बकाया है और इनके खाते में समयबद्ध किश्तों की अदायगी अर्से से बंद है, इनमें भी 1000 करोड़ रुपये से ऊपर के कर्जदारों की संख्या मात्र 95 है। जहां इन मु_ीभर बड़े कॉर्पोरेट्स का ऋण माफ करते वक्त ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ पर कोई सवाल नहीं खड़े किए जा रहे वहीं किसानों के मामले में तमाम गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई हैं।
इस दौरान कर्ज की किश्तें समय पर अदा न करने वाले (एनपीए) कुल खाताधारियों की संख्या में 11.2 फीसदी का भारी इजाफा हुआ है और यह मद 2017-18 में 10.93 लाख करोड़ तक पहुंच गई है जबकि बहुप्रचारित ‘दिवालिया एवं कुर्की संस्थान’ और ‘सरफेसी अधिनियम’ के तहत उगाही केवल 40,400 करोड़ रुपयों की हुई है। यह बढ़ोतरी पिछले एक दशक से उद्योग जगत को दी गई 18.60 लाख करोड़ की आर्थिक सहायता के बावजूद हुई है। यह वर्ष 2008-09 की बात है जब वैश्विक आर्थिक मंदी से उत्पन्न हुई स्थिति से निपटने हेतु सरकार ने उद्योगों-कॉर्पोरेटों को मदद हेतु 1.86 लाख करोड़ रुपये का प्रोत्साहन पैकेज देना शुरू किया था, जो आज तक जारी है।
संकेत हैं कि केंद्र सरकार किसानों की ऋण माफी के लिए कुछ राज्य सरकारों द्वारा अपनाए गए पैमानों से कुछ कम मात्रा वाली मदद यानी 4,000 रुपये सालाना सीधी आय देना उलीक रही है। अनुमान के मुताबिक राजकोष पर इसका बोझ 2 लाख करोड़ रुपये का होगा। वहीं तथ्य यह है कि 4,000 रुपये सालाना का मतलब है प्रति माह 340 रुपये से कम की राहत। अगरचे 340 रुपये प्रति माह त्रस्त हुए बैठे किसान को माकूल आर्थिक सहायता के लिए काफी है तो यह दर्शाता है कि किस हद तक देश में वर्गों के बीच आर्थिक असमानता और तंगी व्याप्त है।
दूसरी ओर किसानों को सीधी आय मुहैया करवाना समस्या का स्थायी हल नहीं है। कृषि क्षेत्र को आज तत्काल राहत के अलावा चुस्त सुधारों की सख्त जरूरत है। अगर सरकार छोटे और बड़े उद्योग धंधे स्थापित करने में आसानी बनाने हेतु सरकार 7,000 कदम उठा सकती है तो कोई वजह नहीं कि इसी तरह के उपाय कृषि को आसान बनाने के लिए न किए जाएं। आखिरकार इस व्यवसाय में लगे लोगों की संख्या देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत है। ऐसा किए जाने पर ही ‘सबका साथज्सबका विकास’ वाले नारे में निहित आदर्श आर्थिक तरक्की फलीभूत हो पाएगी।

 

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