संपादकीय

01-Jul-2017 8:54:58 pm
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हिंदुस्तान को समझने वाली सोच

हिंदुस्तान को समझने वाली सोच
हिंदुस्तानी संस्कृति में अति को कोई पसंद नहीं करता। यह बुद्ध, कबीर और "ांधी की धरती है जहां अति को हर स्थान पर रोका गया है। संस्कृत में एक कहावत है कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत।Ó यानी अति का हर जगह निषेध होता है। पर आज देखिए हर जगह अति ही व्याप्त है। कबीर का वह दोहा किसी काम का नहीं रहा जिसमें बताया गया है :-
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
आज हमारी राजनीति, धर्मनीति सभी ज"ह अति ही हावी है और यही कारण है कि अतिवादी आज की राजनीति का प्रतिफलन हैं। कहीं बहुसंख्यक अतिवादी हैं तो कहीं अल्पसंख्यक। यह डर और डराने का रिश्ता है इससे बचना ही श्रेयस्कर है। जब भी मैं अतिवाद को पढ़ता व समाज में इसे फैलते देखता हूं मुझे दो शख्सियतें याद आती हैं। एक पंडित जवाहरलाल नेहरू और दूसरे कवि दिनकर।
रामधारी सिंह दिनकर की एक पुस्तक है संस्कृति के चार अध्याय। इसमें दिनकरजी ने भारतीय संस्कृति के इसी समरसता वाले सिद्धांत पर ध्यान खींचा है। इसमें उन्होंने कहा है कि भारतीय संस्कृति पर किसी एक धर्म या एक नस्ल अथवा एक जाति का अधिकार नहीं है। वह सबकी है क्योंकि भारत में सब रचे-बसे हैं। इस पुस्तक की खास बात यह है कि इसकी प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। मैं उस प्रस्तावना के कुछ हिस्से यहां दे रहा हूं। इससे पता चलता है कि हमारी आज़ादी के राजनेता भारतीय जनता और उसकी संस्कृति के बारे में कितना रचनात्मक सोच रखते थे। अब न तो वैसे नेता रहे न वैसे साहित्यकार। लेकिन इस पुस्तक का जो अभिनव योगदान है वह है प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की वह प्रस्तावना जिसे मैं अक्सर पढ़ता हूं और हर बार उसमें कुछ नयापन पाता हूं। इस प्रस्तावना में नेहरू जी लिखते हैं :- मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक व दिलचस्प है। यह एक ऐसा विषय है जिससे, अक्सर, मेरा अपना मन भी ओतप्रोत होता रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप, आप-से-आप पड़ "यी है। अक्सर मैं अपने आप से सवाल करता हूं, भारत है क्या? उसका तत्त्व या सार क्या है? वे शक्तियां कौन-सी हैं जिनसे भारत का निर्माण हुआ है तथा अतीत और वर्तमान विश्व को प्रभावित करने वाली प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ उनका क्या संबंध है? यह विषय अत्यंत विशाल है, और उसके दायरे में भारत और भारत के बाहर के तमाम मानवीय व्यापार आ जाते हैं। और मेरा ख्याल है कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह इस संपूर्ण विश्व के साथ अकेला ही न्याय कर सके। कम-से-कम, यह तो संभव है ही कि हम अपने भारत को समझने का प्रयास करें, यद्यपि सारे संसार को अपने सामने न रखने पर भारत-विषयक जो ज्ञान हम प्राप्त करेंगे, वह अधूरा होगा। भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को समझने में भी असमर्थ रहें"े। और यदि भारत को नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सबके सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो। मेरा विचार है कि दिनकर की पुस्तक इन बातों के समझने में, एक हद तक, सहायक होगी। यह पूरी प्रस्तावना नहीं है इसकी कुछ लाइनेंभर हैं। आप इसे पढ़ें। पंडितजी ने इसे स्वयं हिंदुस्तानी व नागरी लिपि में लिखा है। उनकी भाषा बड़ी मोहक व बांधे रखने वाली थी तथा उनकी लिखावट गांधीजी की तुलना में ज्यादा साफ और बहिर्मुखी थी। गांधीजी जहां कई दफे अपनी लेखनी से झुंझलाहट पैदा करते थे वहीं नेहरूजी की हिंदुस्तानी हिंदुस्तान के दिल के अधिक करीब थी।

 

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