संपादकीय

01-Jul-2017 8:53:46 pm
Posted Date

लड़ाकू विमानों की कमी

लड़ाकू विमानों की कमी
स्वदेशी कंपनी टाटा ने अमेरिका की लॉकहीड मार्टिन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। समझौते के तहत अत्याधुनिक एफ-16 लड़ाकू विमान भारत में ही बनाए जा सकेगे। विदेशी सैन्य विमानन आपूर्ति शृंखला को सामान सप्लाई करने वाली टाटा कंपनी को अब अडानी समूह से दो-दो हाथ करने होंगे। लड़ाकू विमान बनाने के लिए अडानी समूह ने स्वीडन की कंपनी से हाथ मिलाया है। अंबानी बंधुओं और महिंद्रा समूह समेत कई अन्य कारपोरेट घराने भी लड़ाकू विमानों के 20 अरब स्टर्लिंग पौंड के सौदे के लिए विदेशी विमानन कंपनियों के साथ साझेदारी कर सकते हैं। भारतीय कंपनियों के बीच इस होड़ की वजह यह है कि भारतीय वायुसेना के बेड़े में लड़ाकू विमानों की भारी कमी के चलते भारत सरकार चिंतित है। भारतीय वायुसेना प्रमुख साफ तौर पर स्वीकार कर चुके हैं कि दो-दो मोर्चों पर एक साथ लडऩे के लिए वायुसेना के पास पर्याप्त लड़ाकू विमान नहीं हैं। भारतीय वायुसेना के बेड़े में लड़ाकू विमानों की रिकार्ड कमी अचानक नहीं हुई है। कोई एक दशक से ज्यादा समय से ऐसे विमानों की कमी महसूस की जाने लगी थी। जहां एक ओर डीआरडीओ निर्मित हल्के लड़ाकू विमान तेजस में अभी भी कुछ खामियां हैं, वहीं मोदी सरकार बहु-उद्देश्यीय लड़ाकू विमान खरीद सौदे को सिरे नहीं चढ़ा सकी। भारतीय वायुसेना मुख्यत: सुखोई-30 लड़ाकू विमानों पर आश्रित है। चीन समेत कई देश अपनी वायुसेना में स्टेल्थ तकनीक वाले लड़ाकू विमान शामिल कर रहे हैं परंतु भारत अभी तक अगली पीढ़ी के लड़ाकू विमानों के लिए रूस के साथ साझदेारी को अंतिम रूप नहीं दे पाया है। पूर्णकालिक रक्षामंत्री न होना तथा भारत की अमेरिका के साथ बढ़ती सामरिक नजदीकी भी ऐसे पूरक कारण हैं जिनके चलते भारतीय वायुसेना की जरूरतों की अनेदखी लगातार जारी है। भारत के सैन्य विमानन ने निगरानी और भारी वजन ढुलाई क्षेत्र में ऊंची छलांग लगाई है। परंतु ये साधारण श्रेणी के खरीद सौदे थे और विक्रेताओं ने भी खुशी-खुशी ये सौदे किए। उन्नत किस्म के लड़ाकू विमानों का निर्माण बहुत ही पेचीदा और मुश्किल काम है। इस काम में बड़े पैमाने पर कलपुर्जों की जरूरत होती है और कलपुर्जे आयात करने की राह में कड़े अंतर्राष्ट्रीय कानून भी आड़े आते हैं। लड़ाकू विमानों के लिए स्टेल्थ तकनीक का हस्तांतरण उसी सूरत में हो सकता है जब दो देशों के बीच घनिष्ठ राजनयिक-सैन्य संबंध हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका के आगामी दौरे के दौरान इस पहलू को खुलकर और सूझबूझ के साथ उठाना होगा। कोशिश हो कि इस सबसे भारत-रूस रक्षा संबंधों को आंच न आने 

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