संपादकीय

30-Nov-2018 11:08:19 am
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‘कर्ज जाल कूटनीति’ का मुकाबला करे भारत

जी. पार्थसारथी
जब से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की कमान संभाली है तब से वे वैश्विक राजनीति और यूरोप, अफ्रीका एवं एशिया के देशों के प्रति अमेरिकी नीतियों में सख्ती बरतते रहे हैं। ट्रंप ने अपने यूरोपीय सहयोगियों तक को झटका दिया है कि यदि वे नाटो संधि के अंतर्गत अंतर-प्रशांत सहयोग कार्यक्रम में आर्थिक योगदान नहीं बढ़ाएंगे तो अमेरिकी सहायता की समीक्षा पुन: की जाएगी। उन्होंने चुनींदा यूरोपीय देशों के आयात पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया है। संक्षेप में कहें तो उन्होंने पहले से चली आ रही ‘साझा वैश्वीकृत बाजार’ बनाने वाली अमेरिकी नीति को अपने ‘अमेरिकी हित सर्वप्रथम’ वाले सिद्धांत से बदल डाला है। ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण पर बाकी दुनिया के रुख को खारिज कर दिया है और ऐसा लगता है कि वे अपनी छवि एक ऐसे दंबग के रूप में बनाने में ज्यादा सहज हैं जो बाहुबली अधिनायकों से निपटने की कूवत रखता है।
एशिया के मामले में भी ट्रंप ने चीन की व्यापार नीतियों पर कड़ा रुख अख्तियार कर लिया है जो चीन की बनी वस्तुओं की आयात दर-सूची को असंतुलित कर देगा। यहां तक कि अमेरिका के बड़े सहयोगी जापान को भी आयात दरों में अतिरिक्त शुल्क सहन करना पड़ा है। एशिया की अनेक अर्थव्यवस्थाओं के साथ अमेरिका के व्यापारिक रिश्ते कायम करने हेतु जो ‘मुक्त व्यापार क्षेत्र’ वाली ‘अंतर-प्रशांत संधि’ बनाई थी, ट्रंप ने उस मंच से अमेरिकी सदस्यता त्याग दी है। भारत को भी ट्रंप की नई व्यापार नीतियों के हथौड़े महसूस हुए हैं। फिलहाल भारत दरपेश चुनौतियों का हल निकालने के लिए अमेरिका के साथ द्विपक्षीय वार्ताएं कर रहा है। रूस के पेट्रोलियम उत्पादों और हथियारों के निर्यात पर कड़े अमेरिकी प्रतिबंध पहले ही लग चुके हैं। अमेरिका से शक्ति संतुलन बिठाने के मंतव्य से रूस और चीन ने आपसी गठबंधन कर लिया है।
एशिया में अपना दबदबा कायम करना चाहता है। चीन के साथ रिश्तों के मामले में भारत और जापान आपस में नजदीकी तालमेल बनाए हुए हैं। इसमें वे उपाय भी शामिल हैं जिनके माध्यम से चीन के साथ तनाव नियंत्रण से बाहर न होने पाए।
अप्रैल माह में चीन के वुहान शहर में शिखर वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच कई घंटों तक व्यक्तिगत बैठक हुई थी, जिसमें तय किया गया कि दोनों देश अपनी सेनाओं के बीच आपसी संपर्क को सुदृढ़ करने और भरोसा बनाने हेतु सामरिक निर्देश जारी करेंगे ताकि उन उपायों पर अमल किया जा सके, जिन पर इस सिलसिले में पहले ही विचार-विमर्श हो चुका है ताकि भारत-चीन-भूटान सीमा पर डोकलाम जैसी घटना से भविष्य में बचा जा सके। इसी तरह अक्तूबर माह में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात में उन कदमों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिससे पूर्वी चीन सागर में चीन की गतिविधियों से उत्पन्न हुए तनावों को और ज्यादा बढऩे से बचाया जा सके। चीन और जापान ने यह तय किया है कि दोनों मुल्कों के बीच मिलिट्री और व्यापारिक हॉटलाइन स्थापित की जाएगी।
चूंकि भारत की बनिस्पत जापान आर्थिक और तकनीकी स्रोतों में ज्यादा संपन्न है, अतएव वह हिंद-प्रशांत सागरीय देशों में तरक्की और आधारभूत ढांचे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की हैसियत रखता है। इसलिए हिंद महासागर क्षेत्र में विभिन्न देशों में आर्थिक विकास हेतु जो परियोजनाएं चल रही हैं, उनमें भारत जापान के साथ निकट सहयोग कर रहा है ताकि उक्त देश अपनी तरक्की के लिए चीन पर बहुत ज्यादा आश्रित न होने पाएं। जहां एक ओर भारत रूस के साथ सुरक्षा सौदे करने में और आगे बढ़ा है वहीं शिंजो आबे ने भी पुराने रूस-जापान सीमा विवाद को निपटाने में पहल की है, जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से जापान के अधिकार वाले चार टापू रूस के कब्जे में हैं।
दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की थलीय और जलीय सीमा से लगते देशों में प्रगति के लिए चीन जिस मात्रा में भारी स्रोत और निवेश झोंक रहा है, उसमें भारत-जापान सहयोग संतुलन बिठा सकता है। यह कोई रहस्य नहीं है कि नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में चीन उन नेताओं और राजनीतिक दलों को मदद दे रहा है जो भारत के प्रति विद्वेष रखते हैं। मालदीव के बदनाम पूर्व अधिनायकवादी राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की सरकार के वक्त स्वीकृत परियोजनाओं को सिरे चढ़वाने में जिस मात्रा में चीन ने धन मुहैया करवाने के प्रयास किए हैं एवं उन्हें दुबारा सत्ता में लाने हेतु जिस प्रकार मदद की है, वह सबको मालूम है। तथापि चुनाव में यामीन की हार से चीन को मुंह की खानी पड़ी है। यह तय है कि यामीन-काल में स्वीकृत परियोजनाओं के लिए चीन ने जो बड़ा कर्ज दिया था, उसकी उगाही की धमकी देकर वह नयी सरकार को भी ब्लैकमेल करेगा।
श्रीलंका में जब यह लगा कि प्रधानमंत्री पद पर महेंदा राजपक्षे द्वारा कुर्सी संभालने के संकेत हैं तो आननफानन में चीन ने स्वागत करने वाला बयान दाग दिया। इस हास्यास्पद जल्दबाजी से चीन ने श्रीलंकाई नागरिकों के एक बड़े वर्ग को अपने खिलाफ कर लिया है। दूसरी ओर अमेरिका और जापान के नेतृत्व में पश्चिमी ताकतों ने रानिल विक्रमसिंघे की सरकार को जिस तरीके से सत्ताच्युत किया था, उस पर अपनी सख्त नाराजगी व्यक्त की। यहां तक कि श्रीलंका को दी जाने वाली आर्थिक मदद पर रोक लगा दी। हाल ही में म्यांमार सरकार ने भी क्यौकप्यू बंदरगाह विकास परियोजना के लिए चीनी कर्ज के जाल में फंसने से चिंतित होकर उसके निवेश की मात्रा को घटा दिया है। बहुचर्चित ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना’ बनाने में जिस प्रकार चीन आर्थिक दोहन कर रहा है, उसको देखते हुए पाकिस्तानी अर्थशास्त्री अब खुलकर नाराजगी व्यक्त करने लगे हैं। उधर मलेशिया ने रेलवे का बृहद विस्तार करने वाली अपनी योजना में चीनी मदद की पेशकश को ठुकरा दिया है। इस तरह के संशय उन अफ्रीकी और मध्य एशियाई देशों में भी सुनने को मिल रहे हैं जहां-जहां चीन ‘मदद’ कर रहा है।
अब संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन भारत के साथ लगते देशों में चीन द्वारा चलाई जा रही ‘कर्ज जाल-कूटनीति’ का तोड़ निकालने के लिए इन देशों को अधिक स्वीकार्य दरों पर धन मुहैया करवाने के खिलाफ नहीं है। यह भारत के लिए मौका है कि वह न केवल जापान बल्कि अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के साथ ऐसा सहयोग बनाए, जिससे कि एशिया और अफ्रीका के देशों में बहुआयामी निवेश से चलने वाली विकास योजनाओं से कमाई करने के अतिरिक्त सैन्य एवं आर्थिक फायदा लिया जा सके। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि चीन हिंद महासागर क्षेत्र के देशों को अपनी ‘कर्ज जाल कूटनीति’ में न फांस पाए।

 

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