संपादकीय

28-Nov-2018 1:13:53 pm
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तेल के खेल पर पैनी नजर रखे भारत

भरत झुनझुनवाला
वर्ष 2015 में ईरान के साथ प्रमुख देशों का एक समझौता हुआ था, जिसके अन्तर्गत ईरान पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगे हुए प्रतिबन्ध को हटा लिया गया था। साथ में ईरान ने अपने परमाणु अस्त्र कार्यक्रम को स्थगित करने का वायदा किया था। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संगठन ने प्रमाणित किया है कि ईरान परमाणु अस्त्र बनाने के प्रति कोई कदम नहीं उठा रहा है। इसके बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप ने 4 नवम्बर से अमेरिकी बैंक के माध्यम से ईरान के साथ लेनदेन बंद कर दिया है। तेल का व्यापार मुख्यत: डालर में होता है जो कि अमेरिकी बैंकों द्वारा संचालित किया जाता है। अर्थ हुआ कि ईरान के लिये अपने तेल को बेचना कठिन हो जायेगा। अमेरिका का मानना है कि 2015 में जो संधि हुई थी, वह ईरान पर पर्याप्त अंकुश नहीं लगाती।
उस समय विश्व बाजार में संकट था कि आने वाले समय में ईरान से तेल उपलब्ध होगा या नहीं। ट्रंप ने आदेश दे रखा था कि 4 नवम्बर के बाद यदि कोई देश ईरान से तेल खरीदता है अथवा ईरान के साथ धन के लेनदेन में लिप्त होता है अथवा ईरान से लिये गये तेल की इंश्योरेन्स आदि करता है, उन पर प्रतिबन्ध लगा दिया जायेगा। विश्व बाजार को संदेह था कि नवम्बर से विश्व बाजार में तेल की उपलब्धि कम हो जायेगी, इसलिये उस समय तेल के दाम ऊपर चढ़ रहे थे। सितम्बर के अन्त में कच्चे तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य 85 डॉलर प्रति बैरल हो गया था। इसके बाद अमेरिका ने भारत समेत आठ देशों को फिलहाल ईरान से तेल खरीदने की छूट दे दी है। इसको देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम पुन: पुराने 65 डॉलर प्रति बैरल पर आ टिके हैं। लेकिन मूल संकट विद्यमान है। अमेरिका और ईरान के बीच जो गतिरोध चल रहा है, वह किसी भी समय पुन: उभर सकता है। इसलिये हमें इस विषय पर एक दीर्घकालीन नीति बनानी होगी।
अमेरिका का मानना है कि ईरान द्वारा आतंकवादी आदि गतिविधियों को समर्थन दिया जा रहा है। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और रूस, अमेरिका के इस एकतरफा निर्णय से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ईरान पर दुबारा प्रतिबन्ध लगाना उचित नहीं होगा। उनकी इच्छा है कि अमेरिका द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध के बावजूद ईरान से तेल को खरीदा जा सके। इसके लिये उन्होंने एक वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था बनाने के प्रयास शुरू किये हैं, जिसके अन्तर्गत ईरान से खरीदे गये तेल का पेमेंट अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था से बाहर होगा। इन देशों के इस कदम से वर्तमान में जो डॉलर का विश्व अर्थव्यवस्था पर आधिपत्य है, उस पर चोट आयेगी। तेल की वैकल्पिक व्यवस्था चालू हो जाने के बाद यह व्यवस्था अन्य सभी वित्तीय लेनदेन में लागू हो सकती है और विश्व की डॉलर के ऊपर निर्भरता न्यून हो जायेगी।
2015 के पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा ईरान पर प्रतिबन्ध लगाये गये थे। उस समय भी भारत ने ईरान से तेल खरीदना जारी रखा था। भारत ने ईरान से खरीदे गये तेल का आधा भुगतान ईरान फेडरल बैंक की मुम्बई शाखा में रुपयों में जमा करा दिया था। ईरान ने उस रकम का उपयोग भारत से माल खरीदने के लिये किया। भारत प्रयास कर सकता है कि ईरान से खरीदे गये तेल का सौ प्रतिशत पेमेंट ईरान फेडरल बैंक को कर दिया जाये। ऐसा करने पर भारत द्वारा ईरान से तेल की खरीद जारी रह सकेगी।
इस परिस्थिति में हमें तय करना है कि भारत अमेरिका का साथ देगा अथवा जर्मनी का? अमेरिका का साथ देंगे तो आने वाले समय में अमेरिका की हार होने पर उससे हम पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा अमेरिका का साथ देने पर हमको ईरान से तेल की खरीद कम करनी पड़ेगी, जिससे अपने देश में तेल के दाम में और वृद्धि होगी। ऐसे में हमें जर्मनी आदि देशों के साथ मिलकर ईरान से तेल की खरीद जारी रखनी चाहिये। यहां विषय यह भी है कि अमेरिका के साथ जुड़े रहने से हम अमेरिका के माध्यम से पाकिस्तान पर दबाव बना सकते हैं कि वह आतंकवादी गतिविधियों को कम करे। यदि इस सामरिक विषय को महत्व दिया जाता है तब ही अमेरिका के साथ रहना उचित है अन्यथा अमेरिका के साथ रहना हमारे लिये हानिप्रद होगा।
विषय का दूसरा पक्ष रुपये के दाम में आ रही निरन्तर गिरावट है। रुपये के दाम गिरने से अपने देश में आयातित कच्चा तेल महंगा हो जाता है। एक डालर के क्रूड आयल का आयात करने पर एक वर्ष पूर्व हमें 62 रुपये अदा करने पड़ते थे तो आज उसी तेल उसका आयात करने में हमें 72 रुपये का भुगतान करना होगा। प्रश्न है कि रुपया क्यों लुढक़ रहा है? सच यह है कि बीते समय में भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धा शक्ति कम हुई है। तेल के अतिरिक्त तमाम विदेशी माल भारी मात्रा में भारत में प्रवेश कर रहे हैं। जैसे चीन में बने खिलौने, फुटबाल, इत्यादि। कारण यह है कि जीएसटी के कारण जमीनी स्तर पर छोटे उद्योगों के ऊपर दुष्प्रभाव पड़ा है और उनके द्वारा जो निर्यात होते थे, वे दबाव में आ गये हैं। जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार में भारी वृद्धि हुई है। जीएसटी और जमीनी भ्रष्टाचार में वृद्धि के कारण भारतीय उद्योग की उत्पादन लागत ज्यादा आ रही है और इस कारण हम अपने माल का निर्यात नहीं कर पा रहे हैं। हमारे माल की उत्पादन लागत ज्यादा होने के कारण विदेशी उत्पादकों को भारत में अपना माल बेचना आसान हो गया है।
नौकरशाही के भ्रष्टाचार और जीएसटी के अनुपालन के पेचों को हम यदि दूर नहीं करेंगे तो अपनी उत्पादन लागत ज्यादा रहेगी, रुपया लुढक़ेगा और तदनुसार तेल का दाम पुन: बढ़ेगा। अत: सरकार को चाहिये कि ईरान से तेल का आयात बना रहे, इसके लिये कदम उठाये और नौकरशाही के भ्रष्टाचार और कानूनी पेचों से उद्योगों को निजात दिलाये।
अमेरिका तथा ईरान के बीच गतिरोध वर्तमान में कुछ नरम पड़ गया है परन्तु मूलत: गतिरोध कभी भी पुन: आ सकता है। ऐसे में फिर से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढ़ेंगे और हमारे सामने दुबारा संकट पैदा हो जायेगा। इसलिये हमको समय रहते ईरान के साथ रुपये में पेमेंट करने की व्यवस्था करनी चाहिये। हमें यह भी देखना चाहिये कि ईरान किन देशों से माल खरीदता है। और उन देशों के साथ मिलकर एक वैकल्पिक व्यवस्था बनानी चाहिये, जिससे भारत द्वारा तेल का पेमेंट रुपये में की जाये और उस रुपये से ईरान श्रीलंका से चाय खरीद सके। इस व्यवस्था को बनाने में समय लगेगा। इसलिये समय रहते हमें कदम उठाने चाहिये।

 

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