संपादकीय

21-Jul-2017 6:26:38 pm
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कैसे करूं प्रोटेस्ट

कई दिनों से एक प्रोटेस्ट का प्लान कर रहा हूं लेकिन बीच में ही छोड़ देता हूं। छोड़ क्या देता हूं, सच बात तो ये है कि छोडऩा ही पड़ता है। न छोड़ूं तो दुनिया से छूट जाऊं! प्रोटेस्ट करने वालों का इतिहास यही बताता है। एक भी प्रोटेस्टर ऐसा नहीं दिखा जिसके कपड़े न फटे हों! आप जंतर-मंतर पर खड़े-खड़े प्रोटेस्ट-तपस्या कर रहे हैं कि आते ही रिपोर्टर बाइट ले ले! हाथ में पोस्टर है जिस पर लिखा है - मेरे नाम नहीं!
नॉट इन इस उस के नेम!
राम का नाम बदनाम ना करो!
दिल्ली की सडिय़ल और अडिय़ल गरमी पसीने छुटा रही है। पोस्टर थामे हाथ थक रहे हैं लेकिन क्या करें ऐन रणस्थल से भागा तो नहीं जा सकता! सड़ी गर्मी और भूख-प्यास को दो-तीन घंटे खड़े-खड़े झेलने के बाद भी टीवी देखना पड़ता है कि मेरी वाली बाइट किस-किस चैनल ने लगाई और कितनी देर गालियां पड़ीं!
अपने स्मार्ट फोन पर दूसरों से नजर बचाकर देखना पड़ता है कि कितने चैनलों में कितनी देर चेहरा टीवी में दिखा ताकि कोई कह सके कि भाई साब आज तो आप छा गए! और जबाव में आप किसी फिल्मी हीरो की तरह कहते हैं-मैं कुछ समझा नहीं! और कहने वाला, टीवी में अपने होने के प्रति मेरी उदासीनता का कायल होकर जाये कि देखो कितना महान है! लेकिन इन दिनों तो कुछ ऐसे बेशर्म एंटी प्रोटेस्टर आ जाते हैं जो पवित्र प्रोटेस्टर से सवाल पूछ कर खटिया खड़ी करने लगते हैं कि तुमने तब प्रोटेस्ट क्यों नहीं किया? इसके लिए क्यों नहीं किया और इसी के लिए क्यों किया, मानो कह रहे हों कि क्या वो तुम्हारा बाप लगता था? आप कहेंगे सब कुछ हमीं से करवाआगे? कुछ तुम भी तो करो। वो कहेगा मैं क्यों करूं? मेरे पास क्या करने को काम नहीं है। तुम लुटियन्स वाले, तुम जिमखाने वाले, तुम आजादी वाले, तुम पाक वाले, तुम आतंकवाद वाले। एक तो प्रोटेस्ट करूं और ऊपर से लात खाऊं! मुझे लगता है फिल्म दीवार के रिलीज के पहले तक प्रोटेस्ट-कर्म बड़ा ही पवित्र था। तब जंतर-मंतर पर प्रोटेस्ट नहीं किए जाते थे, इंडिया गेट के लंबे चौड़े लॉन्स पर किए जाते थे। आप कितना ही बड़ा प्रोटेस्ट कर लें, हजारों आदमी ले आएं तो भी उस मैदान में ऊंट के मुंह में जीरे बराबर नजर आते। आसपास के लो" हमदर्दी जताते गर्मी है भैया! कुछ सुस्ता लो, बाद में कर लेना! हम पांच साल से कर रहे हैं। एक साथ नहीं करते, किश्तों में करते हैं। दफ्तरों के लंच टाइम और शाम पांच बजे के आसपास, दम लगाकर नारे लगाते हैं वरना पोस्टर पेड़ पर चिपका देते हैं। लेकिन तब आजकल वाली फजीहत नहीं थी कि जनहित में प्रोटेस्ट करने के बाद ये सुनना पड़े कि उसके लिए क्यों नहीं किया? इस तरह के बकवास सवाल पूछने की बीमारी तो दीवार ने लगाई! कैसे? अरे भैया अमिताभ बच्चन का वो डायलाग याद है ना जिसमें जब उसका भाई शशि कपूर अमिताभ से दस्तखत करने के लिए कहता है तो अमिताभ कहता है, जाओ पहले उससे दस्तखत कराके लाओ, जिसने मेरे हाथ पर लिख दिया था कि मेरा बाप चोर है। बेचारे प्रोटेस्टरों से तरह-तरह के सवाल पूछने की बुरी आदत दीवार के इसी डायलाग से पड़ी जो कहेगा-जाओ पहले उसके लिए प्रोटेस्ट करो, इसके लिए करो, इन सबके लिए करो, तब मेरे भाई तुम जहां कहोगे मैं वहीं प्रोटेस्ट कर दूंगा! दीवार का ये मुआ डायलाग न होता तो हर आदमी प्रोटेस्टर को उसके कर्तव्य न बताता रहता! पांच हजार साल पुराना अपना इतिहास! अगर सबके लिए प्रोटेस्टर सबके लिए प्रोटेस्ट करने लग गया तो अगले पांच हजार साल तक करता रहेगा! बताइए कैसे करूं प्रोटेस्ट?

 

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