संपादकीय

14-Jul-2017 7:30:36 pm
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पाक पर बदली नीति हमारी जीत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछले हफ्ते राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ हुई बैठक से भारत के सुरक्षा हितों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर ट्रंप प्रशासन की सोच पता चलती है। इस बैठक से उन क्षेत्रों की भी एक झलक मिलती है, जिनके बारे में अमेरिकी नीतियां अभी निर्माण के स्तर पर हैं। ऐसे में गुण-दोष के आधार पर इसका गंभीर विश्लेषण जरूरी है।
ऐसे मौकों पर जारी वक्तव्य, नीतियों तथा दृष्टिकोण को जानने के लिए विश्लेषकों और राजनयिकों के लिए उत्कृष्ट अधिकृत सामग्री है। हालांकि ये वक्तव्य पेशेवर लोगों द्वारा तैयार किए जाते हैं लेकिन इनमें कुल मिलाकर नेतृत्व की निजी प्राथमिकताओं और व्यक्तित्व की ही छाप होती है। मोदी और ट्रंप के साझा वक्तव्य का गहन विवेचन जरूरी है।
दरअसल दूरदर्शी वक्तव्यों के मुकाबले इस बार जारी वक्तव्य छोटा और कारोबारी-सा है। इसमें न तो द्विपक्षीय सहयोग और न ही भारत के करीबी पड़ोसियों तथा कुछ दूर के पड़ोसियों के बारे में साझा विचारों पर कोई ज्यादा ध्यान दिया गया है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें पाकिस्तान तथा उसके द्वारा सीमा पर आतंकवाद को दी जा रही शह और इसके प्रायोजन पर सीधी, स्पष्ट एवं अभूतपूर्व टिप्पणियां की गई हैं। यानी कभी पाकिस्तान की आतंकी मशीन के बारे में बातों को पूरी तरह अनसुना कर देने वाला अमेरिका अब इस 'मशीनÓ को बंद करने की बातें करने लगा है। 1990 के दशक में अमेरिकी वार्ताकार जम्मू-कश्मीर में सक्रिय लश्कर-ए-तैयबा तथा हरकत-ए-मुजाहिद्दीन जैसे इस्लामिक संगठनों को पाकिस्तान की मदद के बारे में भारतीय राजनयिकों की बातों को पूरी तरह अनदेखा कर देते थे। ऐसा नहीं था कि अमेरिका पाकिस्तान के कारनामों से अनजान था लेकिन उसका यह रवैया भारत और पाकिस्तान को अलग-अलग नजर से देखने और इस विश्वास की वजह से था कि इस्लामिक आतंकवाद की आंच अमेरिका तक कभी पहुंच ही नहीं पाएगी। अमेरिका के इस भरोसे को पहली बार तब ठेस पहुंची जब 1998 में नैरोबी और दार-ए-सलाम में अमेरिकी दूतावासों पर अल कायदा ने बमबारी की। और फिर 9/11 की घटना ने तो अमेरिका का यह भरोसा पूरी तरह तोड़ डाला। 9/11 की घटना से पहुंचे मानसिक आघात के बाद अमेरिका के लिए इस्लामी संगठनों द्वारा फैलाया जा रहा आतंकवाद विकासशील देशों ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को दरपेश साझा खतरा बन गया। अमेरिका कई देशों से आतंकवाद के खिलाफ जंग में मदद की गुहार करने लगा। अमेरिका अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान के खिलाफ अभियान में पाकिस्तान से भी पूर्ण सहयोग की मांग करने लगा। पाकिस्तान इसके लिए राजी हो गया और उसने अमेरिका को पारगमन सुविधाओं तथा अपने कुछ हवाई अड्डों के इस्तेमाल की इजाजत भी दे दी। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने अपने सहयोगियों को बताया कि अगर पाकिस्तान अमेरिका की मांग को नहीं मानता है तो उसे 'कश्मीर मनोरथÓ छोडऩा होगा। इसके बाद अमेरिका भारत के संदर्भ में पाकिस्तानी चिंताओं के प्रति संवेदनशील बना रहा। अमेरिकी राजनयिक पहले सीधे-सीधे पाकिस्तान का नाम लेने और उसे सीमा पार अंजाम दी जाने वाली आतंकी गतिविधियां बंद करने के लिए कहने से बचते थे। 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद अमेरिका पाकिस्तान को यह कहने को राजी हुआ कि हमले के दोषियों को सजा दी जाए। लेकिन फिर भी अमेरिका पाकिस्तान को दो टूक यह कहने को इच्छुक नहीं था कि वह आतंकवाद को राष्ट्र की नीति का हथियार बनाना छोड़ दे। संयुक्त वक्तव्यों में दिए गए गुप्त संकेतों से संतुष्ट होना भारत की मजबूरी थी। इस तरह सितंबर, 2014 में जारी मोदी-ओबामा के संयुक्त वक्तव्य में जब दोनों नेताओं ने आतंकवादी तथा आपराधिक गिरोहों के सुरक्षित शरणस्थलों को नष्ट करने, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, डी-कंपनी तथा हक्कानी जैसे संगठनों को हर प्रकार की आर्थिक और नीतिगत मदद बंद करने के लिए मिलकर प्रयास किए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया तब भी इस वक्तव्य में पाकिस्तान का नाम छोड़ दिया गया। अब मोदी और ट्रंप ने 'पाकिस्तान से यह सुनिश्चित करने को कहा कि उसकी धरती का इस्तेमाल दूसरे देशों के खिलाफ आतंकी हमलों के लिए न किया जाए।Ó यह एकदम कड़ी भाषा है और इससे पता चलता है कि ट्रंप प्रशासन चाहता है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में और निश्चित तौर पर अफगानिस्तान के खिलाफ सीमा पार के आतंकवाद को बंद करे। भारत के लिए संतोषजनक बात यह है कि अमेरिका कूटनीतिक तौर पर काफी आगे बढ़ गया है। हैरानी वाली बात नहीं कि पाकिस्तान ने कर्कश प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि 'इस वक्तव्य से भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से व्याप्त तनाव में और इजाफा हुआ है।Ó मगर फिर भी हमें वक्त का तकाजा समझते हुए राजनयिक प्रयासों के महत्व को नहीं भूलना चाहिए। मोदी की यात्रा की पूर्व संध्या पर अमेरिका ने अपने कानून के तहत हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन (एचयूएम) के सरगना सैयद सलाहुद्दीन को 'अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादीÓ घोषित कर दिया। भारत ने अमेरिका की इस कार्रवाई का स्वागत किया लेकिन अब भारत को अमेरिका पर यह भी दबाव डालना होगा कि वह हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन को भी आतंकवादी संगठन घोषित करे। सलाहुद्दीन के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई का पाकिस्तान में व्यापक विरोध हुआ। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने इसे 'बेतुका फैसलाÓ बताते हुए जोर देकर कहा कि इसका यह मतलब हुआ कि कश्मीरी जनता की कोई अहमियत नहीं। कुछ भारतीय टीकाकार इस बात से नाखुश हैं कि अमेरिका ने सलाहुद्दीन के बारे अपने फैसले में भारत के शासन वाला कश्मीर जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है। दरअसल, अधिकतर देश जम्मू-कश्मीर के बारे में वास्तविक स्थिति को स्वीकार करते हुए भारत के नियंत्रण वाले हिस्से को भारत के आधिपत्य वाला क्षेत्र मानते हैं। संयुक्त वक्तव्य में कुछ और भी महत्वपूर्ण संकेतक हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान में सुरक्षा क्षेत्र सहित भारत के 'तमाम योगदानÓ का स्वागत किया है। इससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि ट्रंप प्रशासन अपनी अफगान नीति में कभी भी यह नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका कम हो। पश्चिम एशिया तथा कोरिया प्रायद्वीप का जिक्र वैश्विक मुद्दों पर अर्थपूर्ण विचार-विमर्श की चाहत को दर्शाते हैं। जहां तक पश्चिम एशिया की बात है, इस पर भारत और अमेरिका का नजरिया अलग-अलग है और भारत को इस बारे में सतर्क रहना होगा। प्रथम दृष्टया भारत और ट्रंप प्रशासन ने बैठक कर चीन के बारे में भी चर्चा की, हालांकि इसका उल्लेख नहीं किया गया। जहां तक आतंकवाद का मामला है, तो निशाने पर पाकिस्तान ही होता है लेकिन चीन द्वारा अपने मित्र का कड़ा बचाव करने की वजह से चर्चा उसकी भी होने लगती है। मोदी-ट्रंप भेंट के बाद चीन ने आतंकवाद का मुकाबला करने में पाकिस्तान की भूमिका को खूब सराहा। संयुक्त वक्तव्य में आप्रवासन, जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र सुधार जैसे विवादास्पद द्विपक्षीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का कोई जिक्र नहीं किया गया। भारत के हितों की दृष्टि से इन मामलों के स्पष्ट निहितार्थ हैं, लेकिन इन मुद्दों पर अगर निश्चित उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ा जाता है और विचार मिलते हैं तो भारत को निश्चित तौर पर फायदा होगा।

 

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