संपादकीय

14-Jul-2017 7:27:17 pm
Posted Date

युवाओं को तरजीह बचाएगी खेती

भारत में एक विमर्श व्यापक स्तर पर है कि कृषि को पुनर्जीवित कैसे किया जाए। हालिया किसान आंदोलनों ने इस मुद्दे की तरफ ध्यान खींचा है। देखा जाए तो कृषि इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन जिस प्रकार से हमारी सरकारों ने कई दशकों से किसान की अनदेखी की है, उसकी वजह से किसानी-समस्या मुख्य मुद्दा कभी नहीं बन सका। नतीजतन यह फायदे का सौदा कभी नहीं बन सका। यही कारण है कि युवाओं में कृषि के प्रति कभी भी आकर्षण नहीं रहा। एक अध्ययन के अनुसार केवल दो फीसदी किसानों के बच्चे ही कृषि को अपना पेशा बनाना चाहते हैं। इसकी आहट हमें 2011 की जनगणना से भी मिलती है, जिसमें प्रतिदिन 2000 किसानों के खेती छोडऩे की बात कही गई है। खेती से जुड़े युवाओं द्वारा कृषि से दूर होने की कई वजहें हैं। पहला किसानों की उपेक्षा अभी तक जारी है जबकि एनसीआरबी लगातार किसानों के आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों से सरकार को सचेत करता रहा है। दूसरा, युवाओं को कृषि एक रोजगार के रूप में लुभाने में नाकाम रही है। हालत यह है कि कृषि को अपना कैरियर चुनने के बाद भी युवाओं को रोजगार नसीब नहीं हो रहा है। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) जैसी कई संस्थाएं कृषि के छात्रों को नहीं बल्कि प्रबंधन के छात्रों को रोजगार दे रही हैं। फिर सवाल यह है कि इन कृषि विश्वविद्यालयों का क्या औचित्य है? कृषि अनुसंधान विकास के नाम पर छात्रों को दाखिला तो देते हैं लेकिन पढ़ाई के बाद हकीकत में इनका उपयोग नहीं किया जाता। फलत: कृषि में डिग्री हासिल करने वाले ये युवा अन्य व्यवसाय अपनाने को मजबूर हैं। नि:संदेह वर्तमान कृषि की हालत को बेहतर किये बिना इसमें युवाओं की भागीदारी की संकल्पना महज एक स्वप्न ही साबित होने वाली है। दरअसल सरकार की आर्थिक नीति और 2022 तक आय को दोगुनी करने के वादे में बड़ा विरोधाभास है। नेशनल सैंपल सर्वे की मानें तो 2012-13 में किसानों की औसत मासिक आय 6,426 रुपये थी जबकि भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक किसानों की आय 1700 रुपये है। इस प्रकार देखें तो किसानों की आय में 4,726 रुपये की गिरावट आई है। इसके मुताबिक 2022 तक किसानों की आय 3400 रुपये रह जाएगी। सवाल यह है कि क्या सरकार आय को दोगुनी करना चाहती है या आधी? अगर सरकार चाहती है कि कृषि क्षेत्र में युवाओं की भागीदारी संतोषजनक स्तर तक पहुंचे तो उसे कुछ विशेष कदम उठाने होंगे। सबसे पहले कृषि संस्थानों में कृषि के छात्रों के लिए रोजगार सुनिश्चित कर कृषि प्रतिभा पलायन पर रोक लगानी होगी। इन संस्थानों में कृषि के छात्रों को वरीयता देने के लिए उनके लिए सीटों को आरक्षित करना होगा ताकि कृषि को कैरियर बनाने वाले छात्रों को रोजगार की सुरक्षा मिल सके। रोजगार सृजन के दूसरे उपाय भी हैं। इसके लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय वन सेवा की तजऱ् पर अलग से भारतीय कृषि सेवा प्रारंभ करनी होगी। इससे न केवल कृषि विनियामक तंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि कृषि अध्ययन करने वाले छात्रों का भी कृषि में प्रशासनिक सेवा जैसे बड़े पदों पर बैठने का सपना पूरा हो सकेगा। साथ ही सरकार को ऐसी योजना बनानी हो"ी कि छात्रों को उर्वरकों और कीटनाशकों के विपणन और आपूर्ति के लिए लाइसेंस प्रदान किया जा सके। ऐसे प्रशिक्षण की भी आवश्यकता है जो छात्रों को बाजार का व्यावहारिक ज्ञान भी दे सके और वे ऐसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर सकें, जिनमें कम भूमि, जल और निवेश का उपयो" हो। कृषि को व्यवसाय के रूप में अपनाने वालों के लिए कृषि को फायदे का सौदा बनाना होगा। इसके लिए महज नीतियों के उपयुक्त क्रियान्वयन की आवश्यकता है। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को धरातल पर उतारना होगा। सरकार यदि चाहती है कि उपज का उचित मूल्य मिले तो वादे के मुताबिक लागत का डेढ़ गुना देकर किसानों की हालत को बेहतर करने की दिशा में एक अच्छा कदम उठा सकती है। बहरहाल, सरकार को यह समझना होगा कि एक 'चकाचौंध इंडियाÓ के साथ-साथ एक 'बदहाल भारतÓ भी है जहां के किसान हमारे अन्नदाता होने के बावजूद एक मोहताज जिन्दगी जीने को बेबस हैं, जिसके फलस्वरूप आने वाले समय में कृषि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

 

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