संपादकीय

17-Nov-2018 11:38:53 am
Posted Date

अंतरिक्ष में दावेदारी

भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने बुधवार को जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट के जरिए नवीनतम संचार उपग्रह जीसैट 29 को सफलतापूर्वक कक्षा में पहुंचाकर रॉकेट साइंस के क्षेत्र में एक और मील का पत्थर पार कर लिया। इस ऐतिहासिक उपलब्धि की बदौलत भारत अंतरिक्ष अभियानों के मामले में दुनिया के चुनिंदा देशों के ग्रुप में शामिल हो गया है। पीएसलवी के जरिए हल्के और मध्यम वजन वाले उपग्रह छोडऩे में भारत को पहले से महारत हासिल रही है, लेकिन भारी वजन वाले प्रक्षेपण उसके लिए नई चीज हैं। जीएसएलवी मार्क-3 देश में विकसित तीसरी पीढ़ी का रॉकेट है जो चार टन तक वजन अंतरिक्ष में ले जा सकता है। इससे पहले का जीएसएलवी मार्क-2 ढाई टन तक वजन ही ले जा सकता था। यह उपलब्धि इस मामले में खास है कि इसके बल पर इसरो 2022 तक चांद पर इंसान भेजने का अपना मिशन पूरा करने के काम में बेहिचक जुट सकता है।
हाल के वर्षों में मिली अन्य कामयाबियों के साथ इसे जोड़ कर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि अन्य देश अपने हल्के और भारी, हर तरह के उपग्रह छोडऩे के लिए उसपर बेखटके भरोसा कर सकते हैं। फिलहाल अंतरिक्ष परिवहन के बाजार में डेढ़ टन तक के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए इसरो को सबसे कम फीस वाली सबसे भरोसेमंद प्रक्षेपण एजेंसी का दर्जा हासिल है। जीएसएलवी के लगातार दो सफल प्रक्षेपणों से यह रेंज अचानक ऊपर उठकर दोगुनी यानी तीन टन की ऊंचाई पर चली गई है। यह बात और है कि इस स्तर को छू लेने के बाद इससे आगे की चुनौतियां न केवल भारत के लिए बल्कि रॉकेट साइंस की सीमावर्ती होड़ में शामिल दुनिया के तमाम देशों के लिए काफी कठिन हैं। 
जीएसएलवी मार्क-3 की चार टन वजन क्षमता हमारे लिए भले ही बहुत बड़ी बात हो, पर मनुष्य को चांद पर ले जाने वाले पहले यान अपोलो-11 का लैंडिंग मास 4932 किलोग्राम यानी करीब 5 टन था। यह भी याद रखना चाहिए कि जिस दौर में अमेरिका ने चांद पर मनुष्य को भेजने का अभियान चलाया वह कोल्ड वॉर का दौर था और उस समय खुद को सोवियत संघ से मीलों आगे दिखाना उसके लिए जीने-मरने जैसी बात थी। जाहिर है, ऐसे में उन अभियानों पर होने वाला खर्च अमेरिका के लिए खुद में कोई मुद्दा ही नहीं था। एक बार चांद तक अपनी पहुंच साबित कर देने के बाद इस खर्चीले अभियान से उसने इस तरह किनारा कर लिया, जैसे उसके अंतरिक्षयात्री कभी चांद पर गए ही न हों। लेकिन अभी की नई चंद्र-दौड़ में अमेरिका, चीन और अन्य संभावित प्रतिभागियों की भी कोशिश सस्ते और सक्षम रॉकेट बनाने की है। 
इस दौड़ में हमारे जीएसएलवी मार्क-3 ने भी अपनी दावेदारी पेश कर दी है। अगले तीन वर्षों में इसरो पांच टन वजन पांच लाख किलोमीटर दूर ले जाकर वापस लौटने लायक भरोसेमंद रॉकेट बनाकर दिखाए, तभी कुछ बात है।

 

Share On WhatsApp