संपादकीय

16-Nov-2018 8:07:28 am
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अरिहंत की ताकत से परमाणु शक्ति संतुलन

जी. पार्थसारथी
छह नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि ‘वर्ष 2016 में नौसेना के बेड़े में शामिल की गई भारत की पहली परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी आईएनएस ‘अरिहंत’ अब अपनी पूर्ण कार्यक्षमता से लैस हो गई है और यह संभावित बाहरी नाभिकीय हमलावरों को हतोत्साहित करने वाले तंत्र का एक अभिन्न अंग है।’ इससे पहले भारत थल और वायु से मार करने वाले परमाणु हथियारों की समर्था पा चुका है, जिसमें मिराज-2000 और जगुआर लड़ाकू हवाई जहाजों से दागे जा सकने वाले परमाणु अस्त्र और जमीन से दागी जाने वाली अग्नि-1 मिसाइलें प्रमुख हैं, जिनकी रेंज 700 से 900 कि.मी. तक है। इस श्रेणी की मिसाइलों की मारक दूरी में लगातार सुधार करते हुए आज हमारे पास अग्नि-5 के रूप में 5500 कि.मी. तक प्रहार कर सकने वाली नाभिकीय अस्त्रास्त्र क्षमता है। इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य एक ऐसा ‘भरोसेमंद परमाणु खतरा निवारण तंत्र’ स्थापित करना है ताकि हमारे परमाणु-संपन्न पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान और चीन के सामरिक ठिकानों और केंद्रों को निशाना बनाकर थल, आकाश और जल में विभिन्न बिंदुओं से हमले किए जा सकें।
‘अरिहंत’ पनडुब्बी भारत को अपने पड़ोसियों पर समुद्र के अंदर 300 मीटर की गहराई से वार करने की क्षमता प्रदान करती है। इस काम के लिए यह दो तरह की समुद्रीय मिसाइल प्रणाली से लैस है, जिनमें एक है ‘सागरिका’, जिसकी मारक दूरी 750 कि.मी. है और दूसरी है 3500 कि.मी. क्षमता वाली ‘के-4’ मिसाइल। यहां गौरतलब है कि थलीय मिसाइल लांच-साइट को दुश्मन द्वारा ढूंढक़र ध्वस्त करने की संभावना बनी रहती है वहीं पनडुब्बी संचालित मिसाइल तंत्र की टोह लगाना और उसे खत्म करना लगभग असंभव कार्य होता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों के अलावा विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसके पास समुद्र-आधारित ‘परमाणु निवारण समर्था’ है। जल्द ही भारत एक अपनी दूसरी परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बी ‘अरिघात’ को भी सुचारु कर देगा और वर्ष 2022 तक इस किस्म की चार पनडुब्बियों वाला बेड़ा तैयार होने की उम्मीद है। परमाणु साइंसदानों के अमेरिकी संघ को अनुमान है कि भारत के पास फिलहाल 130-140 परमाणु अस्त्र हैं, वहीं पाकिस्तान 140-150 और चीन लगभग 280 नाभिकीय हथियारों से लैस है।
अमेरिकी परमाणु हथियार डिजाइनर थॉमस रीड जो अमेरिकी वायुसेना के पूर्व सचिव भी रह चुके हैं, ने हाल ही में लिखी अपनी पुस्तक में कहा है कि चीन ने बड़े स्तर पर पाकिस्तानी परमाणु साइंसदानों को अपने देश में प्रशिक्षित किया है। एक अन्य अमेरिकी परमाणु विशेषज्ञ गैरी मिलहोलिन का कहना है, ‘चीन की मदद के बिना पाकिस्तान का परमाणु वजूद में ही नहीं होता।’ चीन ने पाकिस्तान को न केवल अपने परमाणु हथियारों के डिजाइन दिए हैं बल्कि कठुआ स्थित परमाणु संयंत्र में यूरेनियम संवर्धन के लिए ‘इन्वर्टर तंत्र’ में आगे सुधार लाने के अलावा खुशआब और फतेहजंग नामक स्थानों पर सामरिक परमाणु हथियार बनाने वाली सुविधाओं की खातिर प्लूटोनियम रिएक्टर और बम बनाने लायक नाभिकीय सामग्री पृथक करने की तकनीक भी मुहैया करवाई है। पाकिस्तान की बैलेस्टिक और क्रूज मिसाइलें चीनी मिसाइलों की हूबहू नकल हैं।
भारत की परमाणु नीति कहती है कि नाभिकीय अस्त्र केवल उस स्थिति में प्रतिकर्म के तौर पर इस्तेमाल किए जाएंगे, यदि भारतीय क्षेत्र अथवा सुरक्षा बलों पर हुए हमले में कहीं भी परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया गया हो। भारत के पास उस सूरत में भी इन्हें इस्तेमाल करने का हक सुरक्षित है अगर उसके भूभाग पर बड़े पैमाने की चढ़ाई की जाए या भारतीय सैनिकों पर ऐसे हमले हों, जिनमें रासायनिक अथवा जैविक अस्त्रों का प्रयोग किया गया हो। दूसरी ओर पाकिस्तान के पास ऐसी कोई औपचारिक परमाणु नियमावली का वजूद ही नहीं है। पाकिस्तान नाभिकीय कमान प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे ले. जनरल खालिद किदवई ने कोई एक दशक पहले कहा था, ‘पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम विशुद्ध रूप से भारत को निशाना बनाने हेतु है।’ किदवई द्वारा व्यक्त परमाणु हमले करने की अन्य संभावनाओं में भारत द्वारा पाकिस्तान की ‘आर्थिकी का गला घोंट देने’ की स्थिति भी शामिल थी।
हालांकि चीन भी भारत की तर्ज पर यह दावा करता है कि वह परमाणु हथियार इस्तेमाल करने में पहल नहीं करेगा लेकिन ‘पहल न करने वाली’ यह नीति भारत पर भी लागू होती है या नहीं, इसे कभी पूरी तरह साफ नहीं करता है। इसका खुलासा तब स्पष्ट हुआ जब चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने 29 जुलाई 2004 को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह द्वारा पेश किए इस सुझाव को रद्द कर दिया कि दोनों देशों को संयुक्त नाभिकीय नियमावली अपनानी चाहिए। इस पर अनेक लोगों के जायज सवाल हैं कि क्या यह सब पाकिस्तान को संकेत देने के मंतव्य से है कि उसके और भारत के बीच किसी तरह का युद्ध होने की स्थिति बनने पर वह उसके साथ खड़ा होगा, भले ही हमले की शुरुआत पाकिस्तान की तरफ से क्यों न हो। परंतु चीन की इस तरह की अस्पष्टताओं ने भारत को थल, वायु और जल में अपनी परमाणु प्रतिरक्षा-समर्था को दृढ़ करने को बलवती किया है। भारत की अग्नि-5 मिसाइल चीन के सघन जनसंख्या वाले पूर्वी तटीय इलाकों तक मार करने की क्षमता रखती है। अगले चार सालों में हमें माकूल तादाद में समुद्र-आधारित नाभिकीय निवारण क्षमता को बढ़ाना पड़ेगा ताकि चीन को पाकिस्तान को दिए जाने वाले भरोसों के बारे में यह सोचने को मजबूर होना पड़े कि क्या भारत-पाक परमाणु द्वंद्व में अथवा पाक द्वारा पहले इस्तेमाल करने पर उसका साथ देना सही रहेगा।
हालांकि भारत के पास प्रधानमंत्री और सुरक्षा मामलों की संसदीय कमेटी के नेतृत्व में एक सुसंगठित और सुस्पष्ट परमाणु हथियार नियंत्रण तंत्र है, तथापि रक्षा मंत्रालय के पुराने ढर्रे की व्यवस्था में सुधार लाने पर संजीदगी से विचार करने की जरूरत है। परमाणु नियंत्रण कमान में सबसे महत्वपूर्ण पद तीनों सेनाओं के सेनाध्यक्षों से युक्त संयुक्त समिति का अध्यक्ष होता है, जिसका कार्यकाल अमूमन एक साल से कम बनता है। यह अवधि सामरिक परमाणु कमान की तमाम जटिलताओं को पूरी तरह से जानने और समझने के लिए बहुत कम पड़ती है। अफसोस है कि इस विषय पर रक्षा समिति और टास्क फोर्स समेत तमाम उच्चस्तरीय लोगों द्वारा दिए इस सुझाव पर कि या तो एक पूर्णकालिक अध्यक्ष अथवा सुरक्षा स्टाफ स्थापित किया जाए या फिर सेनाध्यक्षों की संयुक्त समिति में किसी एक को लंबी अवधि वाला अध्यक्ष बनाया जाए, जिसके हाथ में परमाणु सामरिक बल कमान का नियंत्रण हो और वह आगे राजनीतिक नेतृत्व के प्रति उत्तरदायी हो। लेकिन यह सुझाव फाइलों के रूप में धूल फांक रहा है।
बोफोर्स-विवाद के बहुत लंबे अर्से बाद अब कहीं जाकर पिछले दिनों भारी तोपों की पहली खेप फौज में शामिल हो पाई है। यह सब उस दौरान हो गुजरा है जब स्वीडन निर्मित 155 मि.मी. हॉविट्जर तोपों का संपूर्ण और विस्तृत डिजाइन रक्षा मंत्रालय की फाइलों में पिछले दो दशकों से ज्यादा से धूल फांक रहा था। अवश्य ही वहां ऐसा कुछ गलत है, वह भी ऐसी स्थिति में जब आज की तारीख में हमारी वायुसेना कुल स्वीकृत विमानों की तादाद में 30 फीसदी की कमी पहले से झेल रही है।
 

 

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