संपादकीय

विराट की सेना
Posted Date : 17-Apr-2019 1:51:06 pm

विराट की सेना

आईसीसी वर्ल्ड कप के लिए टीम चुनने में कोई चौंकाने वाला फैसला नहीं किया गया है। सस्पेंस एक-दो पोजिशन पर ही था। चौथे नंबर के लिए अंबाती रायुडू और विजय शंकर में मुकाबला था। चयनकर्ताओं ने विजय शंकर को चुना। इसी तरह दूसरे विकेटकीपर के लिए ऋषभ पंत का नाम उछल रहा था लेकिन चयनकर्ताओं ने अनुभवी दिनेश कार्तिक को उन पर तरजीह दी। वैकल्पिक ओपनर के रूप में केएल राहुल को चुना गया है जिन्हें चौथे नंबर पर भी आजमाया जा सकता है। इनका नाम भी पहले से संभावित था। बाकी सभी खिलाड़ी वही हैं जो पिछली दो-तीन सीरीज से लगातार खेल रहे हैं।

थोड़ी कसर इस बात की जरूर दिख रही है कि टीम में कम से कम एक बल्लेबाज ऐसा होना चाहिए था जिसका टेंपरामेंट पूरे पचास ओवर खेलने का हो और जो एक छोर से आक्रामक बल्लेबाजों को निश्चिंत रखे। यह भूमिका फिलहाल कप्तान विराट कोहली खुद निभाते हैं और कभी-कभार धोनी को भी इस रोल में आना पड़ता है लेकिन इंग्लैंड की पिचें बल्लेबाजों का पूरा इम्तिहान लेती हैं और नॉकआउट मैचों में एक ऐंकर बल्लेबाज की कमी हमें खल सकती है।

बहरहाल, सिलेक्टर्स का जोर ऑलराउंडरों पर रहा है। हार्दिक पंड्या, रविंद्र जडेजा, केदार जाधव और विजय शंकर इस रोल में हैं। हार्दिक पिछले कुछ समय से जबर्दस्त फॉर्म में हैं और उनकी मौजूदगी में पांच गेंदबाजों वाले अटैक को खिलाना आसान हो जाता है। जसप्रीत बुमराह और मोहम्मद शमी मुख्य पेसर हैं, साथ में भुवनेश्वर कुमार भी हैं। इधर कुछ समय से भारतीय तेज गेंदबाजों ने देश के बाहर अपना खौफ पैदा किया है। हमारे स्पिनरों पर शॉट खेलने में भी विदेशी बल्लेबाज डरते हैं। यह जिम्मेदारी कुलदीप यादव और यजुवेंद्र चहल निभाएंगे, साथ में रविंद्र जडेजा भी होंगे। कुछ अच्छे ओवर विजय शंकर और केदार जाधव भी डाल सकते हैं।

ओपनिंग में शिखर धवन और रोहित शर्मा आईपीएल बीतने के साथ रंगत में आ रहे हैं। धोनी भी लगातार बेहतर खेल रहे हैं। उनकी मौजूदगी में विराट की कप्तानी कुछ और ही दिखने लगती है। वैकल्पिक विकेटकीपर के रूप में ऋषभ पंत बल्ले से प्रभावित करते रहे हैं लेकिन विकेटकीपिंग में कार्तिक को उनसे बेहतर पाया गया और बतौर बल्लेबाज, उनका अनुभव भी उनके काम आया। कोई दो मत नहीं कि भारतीय टीम बेहद संतुलित है।

भारत में ऑस्ट्रेलिया के साथ खेली गई सीरीज को छोड़ दें तो इसका प्रदर्शन पिछले कुछ समय से काफी अच्छा रहा है। वर्ल्ड कप 2015 से लेकर इस विश्व कप के बीच भारतीय टीम की जीत का औसत अभी तक का सर्वश्रेष्ठ है। वैसे टीम को अपनी चुनौतियों का ध्यान भी रखना होगा। ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम ने भारतीय स्पिन का तोड़ ढूंढ निकाला है। इंग्लैंड और वेस्ट इंडीज की टीमें बीच में थोड़ी फीकी पड़ी थीं लेकिन कुछ नए खिलाडिय़ों की आमद से उनके जलवे फिर पहले जैसे ही हो गए हैं। उम्मीद है, टीम इंडिया पूरे जोश और जज्बे के साथ विश्व कप पर अपना दावा जताएगी।

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नए मिजाज के अफसर
Posted Date : 16-Apr-2019 2:31:58 pm

नए मिजाज के अफसर

केंद्र सरकार ने अपने विभिन्न मंत्रालयों में 9 प्रफेशनल्स को संयुक्त सचिव के रूप में नियुक्त किया है। इनमें से ज्यादातर प्राइवेट सेक्टर से हैं। नौकरशाही को नया रूप देने के मकसद से पिछले साल सरकार ने लैटरल एंट्री के जरिए लोगों को उच्च प्रशासनिक सेवा में मौका देने का निर्णय किया था। इसका मतलब अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ बिना यूपीएससी की परीक्षा दिए भी जॉइंट सेक्रटरी जैसे पदों पर नियुक्त हो सकते हैं।

पिछले साल जून में इसके लिए आवेदन मंगाए गए थे जिसका परिणाम आ गया है। इस तरह लैटरल एंट्री के जरिए नियुक्त हुए अधिकारियों की पहली खेप अपनी जवाबदेही संभाल रही है। नौकरशाही में बदलाव की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही है। कई लोगों का आरोप रहा है कि सिविल सेवा की परीक्षा का ढांचा ही ऐसा हो गया है जिसमें रट्टू तोते या किताबी कीड़े ज्यादा सफल हो रहे हैं और उनका आमतौर पर समाज के यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता है। फिर सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी इतनी बदल गई हैं कि अब विकास कार्य के लिए कई तरह के विशेषज्ञों की जरूरत है।

इन्फोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने तो यहां तक कहा था कि आईएएस को समाप्त कर उसकी जगह इंडियन मैनेजमेंट सर्विस का गठन किया जाना चाहिए जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों को रखा जाए। कुछ लोगों का मानना था कि इस ढांचे को पूरी तरह खत्म करने के बजाय इसे लचीला बनाया जाए, इसलिए 2005 में पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में नौकरशाही में लैटरल एंट्री का प्रस्ताव पहली बार आया।

वैसे यह कोई एकदम नई बात नहीं है। पहले भी सरकार में उच्च स्तर पर सिविल सेवा से बाहर के लोगों को रखा जाता रहा है। इसके सबसे बड़े उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह रहे हैं जिन्हें 1971 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया था जबकि खुद डॉ. सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद रघुराम राजन को अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया था। राजन यूपीएससी से चुनकर नहीं आए थे।

न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे कई देशों में भी ऐसी नियुक्तियां होती हैं। भारत में यह प्रयोग नौकरशाही में व्यापक परिवर्तन ला सकता है। वर्तमान सिस्टम में शुरू से ही एक अधिकारी इतने तरह के चौखटों के बीच से गुजरता है कि उसमें यांत्रिकता आ जाती है। यही वजह है कि नौकरशाही में कल्पनाशीलता और जोखिम लेने की प्रवृत्ति का अभाव है। अलग-अलग क्षेत्रों से आए विशेषज्ञ इसमें जीवंतता ला सकते हैं। वे योजनाओं को लीक से हटकर नए तरीके से अमल में ला सकते हैं लेकिन समस्या यह है कि ये लोग लीक पर चलने के आदी अधिकारियों के समूह से घिरे रहेंगे। उनसे ये कितना काम ले पाएंगे, यह देखने की बात होगी। इन नए अफसरों के लिए अनुकूल माहौल बनाना होगा। अगर ये कुछ असाधारण कर सके तो यह प्रयोग देश के लिए बेहद उपयोगी साबित होगा।

छोटी उम्र के गहन चिंतन का दस्तावेजी चित्रण
Posted Date : 15-Apr-2019 11:27:27 am

छोटी उम्र के गहन चिंतन का दस्तावेजी चित्रण

इंटरनेट व मोबाइल की इनसानी दुनिया में घुसने से पहले डायरी लिखना अधिकतर लोगों की दिनचर्या का हिस्सा रहा है। ऐसे अनेक वाकये हैं जब डायरी महत्वपूर्ण साबित हुई। किसी के द्वारा लिखी गई डायरी कितनी विशेष साबित हो सकती है, यह जर्मन मूल की लेखिका अने फ्रांक की डच भाषी पुस्तक ‘द डायरी ऑफ ए यंग गर्ल’ से प्रमाणित होता है। 13 से 15 साल तक की आयु के बीच लिखी गई अने फ्रांक की डायरी पर आधारित हिंदी अनुवाद की गई पुस्तक ‘एक किशोरी की डायरी’ उसकी श्रेष्ठ कृतियों में से एक है।

यह पुस्तक अने की प्रतिदिन लिखी गई डायरी का हिस्सा है, जो उसने 12 जून, 1942 से एक अगस्त, 1944 की अवधि में लिखी। ये वह समय है जब नात्सी व यहूदी समुदाय की बर्बरता से उन्हें रूबरू होना पड़ा। किशोर अवस्था में कदम रखने के साथ ही अने के द्वारा लिखनी शुरू की गई यह डायरी आश्चर्यजनक रूप से उसकी परिपक्वता का प्रमाण देती है। पहले ही पृष्ठ पर 12 जून, 1942 को अने लिखती है, ‘मुझे उम्मीद है कि मैं अपनी हर बात तुम्हें बता सकती हूं, क्योंकि मैंने अपनी बातें कभी किसी से नहीं कही। मैं आशा करती हूं कि तुम मेरे लिए सुकून और संबल का एक बड़ा स्रोत बनोगी।’ इस डायरी का प्रत्येक पृष्ठ अने के जीवन के कठिन दौर का जीवंत रूप दिखाती है।

लेखिका ने डायरी को किटी नाम दिया है और प्रत्येक दिन का चित्रण इस तरह से किया है कि पाठक खुद को वर्णन के करीब पाता है। उसने बेबाकी के साथ अपनी पसंद और नापसंद का किताब में उल्लेख कर दिया। खुद व परिजनों के जीवन पर मंडराते खतरे, किशोरावस्था के बचकाना प्रेम-प्रसंगों से जुड़े वाकये, अभिभावकों की खीझ में उलझते दिनों के वृत्तांत को शानदार तरीके से बताया है।

करीब आठ दशक पहले लिखी गई पुस्तक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है क्योंकि यह उन संस्मरणों का संकलन है, जिसमें युद्ध के हालातों के दौरान की जिंदगी के बारे में जानकारी मिलती है।

पुस्तक में किशोर अवस्था के उन प्रश्नों का भी जिक्र किया है, जिनके संबंध में सामान्यत: बड़ों से सवाल करने पर हिचकते हैं। 3 अक्तूबर, 1942 के दिन अने ‘किटी’ में लिखती है, ‘मुझे बड़े लोगों वाली पुस्तकें पढऩे की इजाजत मिल गई है। इवा का ख्याल था कि बच्चे पेड़ पर सेब की तरह फलते हैं और पक जाने पर पक्षी उनको पेड़ों से तोडक़र मां के पास ले आते हैं। लेकिन जब उसकी सहेली की बिल्ली को बच्चे हुए तो इवा ने उसे बिल्ली के अंदर से ही निकलते हुए देखा।’

लेखिका को उस दौर में 13 साल की आयु में ही अंतर्राष्ट्रीय विषयों का ज्ञान था। इसका उदाहरण उसकी डायरी में 27 फरवरी, 1943 के दिन लिखे पृष्ठ पर मिलता है। वह अपनी डायरी में भारतीय नायक मोहन दास कर्मचंद गांधी का जिक्र करते हुए लिखती हैं ‘भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक गांधी अपनी अनंत भूख हड़तालों में से एक पर हैं।’

एक पाठक के लिए पुस्तक खुद में अनेक खासियतें संजोए हुए है। मसलन, लेखिका का बचपन बड़े कष्टों की स्थिति में बीता लेकिन तमाम झंझावातों के बावजूद उसने कष्ट का दौर उत्साहपूर्वक जीया।

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अलविदा राष्ट्रीय दल
Posted Date : 13-Apr-2019 1:11:18 pm

अलविदा राष्ट्रीय दल

सत्रहवीं लोकसभा के लिए गुरुवार को हुए पहले चरण के मतदान के साथ ही चार राज्यों के असेंबली चुनावों के लिए भी वोटिंग हुई है। इन राज्यों में एक है आंध्र प्रदेश, जहां इस बार राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। विभाजन के बाद इस राज्य की सियासत दो क्षेत्रीय दलों तेलुगूदेशम और वाईएसआर कांग्रेस के इर्द-गिर्द सिमट गई है और राष्ट्रीय दल हाशिए पर चले गए हैं। कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी और कम्युनिस्ट पार्टियोंड्ड में यहां कोई दम नहीं दिख रहा है। बिल्कुल संभव है कि आगे के चुनावों में अपना अस्तित्व बचाने के लिए भी उन्हें यहां की रीजनल पार्टियों का ही सहारा लेना पड़े।

इस तरह देखें तो दक्षिण का यह राज्य भी तमिलनाडु के रास्ते पर चल पड़ा है, जहां सत्तर के दशक से शुरू करके हाल तक दो क्षेत्रीय दलों डीएमके और एआईडीएमके का ही वर्चस्व रहा है। इन दोनों ने अपनी मर्जी और अपनी शर्तों पर कांग्रेस और बीजेपी से गठबंधन किए और उनके केंद्र की सत्ता संभालने पर मनचाही सौदेबाजी की। आंध्र प्रदेश की दिशा भी ठीक वैसी ही है। वहां के दोनों ताकतवर दल राष्ट्रीय पार्टियों को किस रूप में ले रहे हैं, इसका अंदाजा वाईएसआर कांग्रेस के नेता वाईएस जगनमोहन रेड् डी के उस हालिया बयान में मिलता है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत में अब राष्ट्रीय पार्टी जैसी कोई बात ही नहीं रही।

राज्य में मुख्य मुकाबला चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम और जगनमोहन रेड् डी की वाईएसआर कांग्रेस के बीच है। अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना तीसरी ताकत जैसी जगह बनाने की जुगत में है। कहने को बीजेपी और कांग्रेस भी हाथ आजमा रही हैं पर उन्हें किसी ने गठबंधन लायक भी नहीं समझा है। हिसाब सीधा है। राज्य में सत्ता जिसकी भी आएगी, वह केंद्र में सरकार बनाने वाले दल को अपना सशर्त समर्थन देगा।

एक समय तेलुगूदेशम के शीर्षनेता चंद्रबाबू नायडू अटल सरकार के भरपूर दोहन के लिए जाने जाते थे। यह सिलसिला आंध्र प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री भी जारी रखेगा, बशर्ते केंद्र सरकार यथोचित रूप से कमजोर हो और अपने अस्तित्व के लिए उसके सांसदों पर निर्भर हो। अभी पांच-छह साल पहले तक आंध्र प्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था लेकिन यूपीए सरकार द्वारा राज्य का विभाजन करके तेलंगाना का गठन किए जाने के बाद यहां पार्टी की साख लुढक़ कर तली में पहुंच गई। कांग्रेस का वोट शेयर 2004 में 50 प्रतिशत से ऊपर था, जो 2014 में मात्र 2.8 प्रतिशत पर आ गया।

साल 2014 के चुनावी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि तेलुगूदेशम पार्टी (47.7 फीसदी) और वाईएसआर कांग्रेस (45.4 फीसदी) के वोटों का प्रतिशत तब करीब-करीब बराबर था। लेकिन उस चुनाव में बीजेपी से गठबंधन बनाने का फायदा तेलुगूदेशम को यह हुआ कि सीटों की संख्या के मामले में उसने वाईएसआर कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया। इस बार मुकाबला सीधा है। यानी हाशिए स्पष्ट हैं, तस्वीर कैसी उभरती है, यह देखना है।

वक्त के साथ रंग बदलती स्कूलगिरी
Posted Date : 12-Apr-2019 2:04:44 pm

वक्त के साथ रंग बदलती स्कूलगिरी


शमीम शर्मा
स्कूलों में दाखिले का महीना होता है अप्रैल। कहते हैं कि कोई भी धन्धा पिट सकता है पर स्कूलगिरी का नहीं क्योंकि सृष्टि की बेल पर जब तक बच्चों के फूल खिलते रहेंगे तब तक मास्टरों की दादागिरी चलती रहेगी। स्कूल की परिभाषाओं में एक नया फिकरा सुनने को मिलने लगा है कि स्कूल एक ऐसी जगह है जहां हमारे बाप को लूटा जाता है और बच्चों को बेवजह कूटा जाता है। स्कूल के समर्थन या विरोध में चाहे जो कुछ कहा जाये पर अंतिम सत्य यही है कि बच्चे के कैरियर के बीज स्कूल में ही रोपित होते हैं।
स्कूल-कॉलेजों में विद्यार्थी भी कई तरह के होते हैं। कुछ तो मेरिट के ऐसे कीड़े होते हैं जो पहली पंक्ति के बैंच पर बैठने के लिये भागते हैं, हांफते हैं और ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। दूसरी तरफ वे हैं जो लास्ट बैंच पर बैठने के लिये ल_ बजा देते हैं।
एक लड़के की शिकायत है कि जो लड़की उसे यह कहा करती कि वक्त आने पर वह उसके लिये जान भी दे सकती है, वही लड़की परीक्षाओं में जब पांचवें सवाल का उत्तर पूछने पर खांसना शुरू कर देती है तो उसका खून फुक जाता है। अध्यापकों से विद्यार्थियों को यही शिकायत रहती है कि वे ऐसे सवाल पूछते हैं, जिनके उन्हें जवाब नहीं आते और हम ऐसे उत्तर लिखते हैं जो उनको समझ नहीं आते। उत्तरपुस्तिकाओं की जांच करने वाले अध्यापकों की प्रतिक्रिया है कि परीक्षा के आखिरी पंद्रह मिनट में हर विद्यार्थी में डाक्टर की आत्मा प्रवेश कर जाती है और उसकी आड़ी-तिरछी रेखाओं का मूल्यांकन करना जोखिमभरा हो जाता है।
वैसे देखा जाए तो समय में व्यापक बदलाव आया है। पहले शरारत करने पर या कम नम्बर आने पर बच्चे को थप्पड़-मुक्के मार दिया करते थे पर अब तो यूं कहकर धमकाया जाता है कि साले का फोन खोस लेंगे या टीवी की डिश का कनेक्शन कटवा देंगे या मोटरसाइकिल में साइलेंसर लगवा देंगे।
शहरी बच्चे जहां हाजिर जवाबी में अपना सानी नहीं रखते, वहीं ग्राम्यांचल के बच्चों में भोलापन आज भी बरकरार है। गांव के किसी स्कूल में जब एक अध्यापिका ने बच्चे से सवाल किया कि 15 अगस्त को उन्हें क्या मिला था तो बच्चे ने मासूमियत से कहा था-जी गत्ते की छोटी सी कटोरी में जरा-सी बूंदी। दूसरी तरफ शहरी बच्चे से पूछो कि पन्द्रह फलों के नाम बताओ तो जवाब सुनने को मिलेगा- आम, अमरूद, संतरा और एक दर्जन केले।
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परीक्षा ही तो है जिंदगी का हर कदम
Posted Date : 26-Mar-2019 11:31:51 am

परीक्षा ही तो है जिंदगी का हर कदम

क्षमा शर्मा
पार्कों में पीले पत्तों की भरमार है। घास भी सूख सी गई है। कल तक जो हवा ठिठुराती थी, उसमें अब हल्की गर्मी आने लगी है। और सबसे बड़ी बात शाम के समय जो पार्क बच्चों के खेल और खिलखिलाहट से भरा रहता था, वह सुनसान है। बच्चों के इम्तिहान जो चल रहे हैं। गए रात तक खिड़कियों से रोशनी झरकर आती रहती है। पता चलता है कि बच्चे पढ़ रहे हैं।
हर बच्चे की चाहत है कि उसके अधिक से अधिक नम्बर आएं। वह दोस्तों से बाजी मार ले जाए। माता-पिता की उम्मीद भी यही रहती है कि उनका बच्चा सबसे ज्यादा नम्बर लाएगा और इस बहाने उनका नाम रोशन करेगा। मुश्किल यह है कि अगर अच्छे नम्बर न आएं तो कहीं दाखिला नहीं मिलता। दाखिला न मिले तो जीवन में जो कुछ करने की तमन्ना थी, वह कैसे पूरी हो। लेकिन यह भी सच है कि एक कक्षा में अगर तीस बच्चे हैं तो सब तो फर्स्ट नहीं आ सकते। कोई फर्स्ट आएगा तो कोई आखिरी स्थान पर भी रहेगा। लेकिन इस उम्र की पढ़ाई और मेहनत हमेशा काम आती है। मेहनत करने की आदत एक बार पड़ जाए तो वह हमेशा बनी रहती है। और यह भी सबने सुना ही होगा कि मेहनत का फल मीठा होता है।
लेकिन कई बार होता यह है कि अच्छे नम्बर लाने की दौड़ में बच्चे इतने लग जाते हैं कि तनाव के शिकार हो जाते हैं। स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों को तनाव के कारण तरह-तरह की बीमारियां भी हो रही हैं। वे हाई ब्लड प्रेशर और टाइप वन डायबिटीज के शिकार हो रहे हैं।
इसीलिए सीबीएसई ने बच्चों के लिए हेल्पलाइन बनाई है जहां वे विशेषज्ञों से अपनी बात कह सकते हैं। अपनी चिंताएं बांट सकते हैं। क्या करें, क्या न करें, इसकी सलाह ले सकते हैं। रेडियो पर ऐसे बहुत से कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं, जिनमें तरह–तरह के विशेषज्ञ बच्चों को राय देते हैं। बच्चे किस तरह अपनी पढ़ाई करें, जिससे कि चिंता खत्म हो सके और उनकी तैयारी भी अच्छी हो जाए, यह बताते हैं। अखबारों में ऐसे लेख छपते हैं, जो माता-पिता को गाइड करते हैं कि इम्तिहान के दिनों में वे बच्चों से किस तरह का व्यवहार करें, उनके खाने-पीने और पोषण पर ध्यान दें। और सबसे बड़ी बात कि बच्चा सही समय पर सो जाए, जिससे कि उसकी न केवल थकान मिटे, तनाव कम हो, बल्कि अगले दिन वह तरोताजा होकर इम्तिहान की तैयारी कर सके। हालांकि यह तो है कि बच्चे ही क्या, हम बड़े भी जब किसी नए काम को शुरू करते हैं तो हम में से भी बहुत से चिंता और तनाव के शिकार होते हैं।
किसी भी काम में सफल होने के लिए थोड़ा-बहुत तनाव होना, उस काम को पूरा करने की चिंता करना गलत नहीं है। क्योंकि अगर आज का काम पूरा नहीं होगा तो उसे कल करना होगा और कल कभी आता नहीं। फिर पिछले दिन का काम अगर आज करना पड़े तो आगे के सारे काम रुक जाते हैं।
कुछ दिन पहले एक शोध में यही कहा गया था कि जीवन में थोड़ा-बहुत तनाव बुरी बात नहीं है। यह हमें काम करने को तो प्रेरित करता ही है, आने वाली चुनौतियों से जूझने के लिए भी तैयार करता है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे मुश्किलों का सामना न करना पड़ा हो। इसलिए इम्तिहान के दिनों में अगर बच्चे थोड़ी-बहुत चिंता करते भी हैं तो यह उनके भविष्य के लिए अच्छा है, मगर तब तक जब तक कि वे थोड़ी ही देर चिंतित हों, हमेशा चिंता में न डूबे रहें। उन्हें यह बताना भी जरूरी होता है कि इम्तिहान आज शुरू हुए हैं, तो खत्म भी होंगे। इसके अलावा उनकी मेहनत रंग लाएगी। पहले प्राइमरी कक्षाओं और उसके बाद बारहवीं तक की पढ़ाई ही वह रास्ता है जिस पर चलकर वे आगे इंजीनियर, डाक्टर बनेंगे। शिक्षक, समाजसेवी बनेंगे। बहुत से आईएएस और आईपीएस तथा अन्य सेवाओं में सफलता प्राप्त करेंगे।
वैसे भी आज के बच्चे जब बड़े होंगे तो उन्हें जीवन की तमाम मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करना ही पड़ेगा। रिसर्च कहती है कि जिन बच्चों को बहुत प्यार से पाला जाता है, कभी डांटा-डपटा नहीं जाता, जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार नहीं किया जाता, वे जब बड़े होते हैं तो मामूली बातों पर डरते हैं। उनका आत्मविश्वास बहुत कम होता है। वे अक्सर अपने काम को खुद करने के मुकाबले किसी और का कंधा तलाशते हैं। और किसी मुश्किल का सामना करने के मुकाबले उससे बच निकलने का रास्ता ढूंढ़ते हैं। इसलिए बच्चों को बचपन से इस बात के लिए भी तैयार किया जाना जरूरी है कि इम्तिहान तो क्या, कोई भी चुनौती हो तो उससे डरें नहीं।
जो जूझते हैं, वे ही आगे बढ़ते हैं, उन्हीं के रास्ते आसान होते हैं। जो डरते हैं, बचकर भागते हैं, वे कहीं नहीं पहुंच पाते। आपने देखा होगा कि बहुत से माता-पिता बच्चों के सामने अपनी आर्थिक स्थिति का बयान बहुत बढ़ा-चढ़ाकर करते हैं। वे बजाय इसके कि बच्चे से कहें कि खूब पढ़ो-लिखो मेहनत करो, कहते हैं कि तू किसी बात की चिंता मत कर। तेरे लिए हमारे पास इतना है कि सात पुश्तें खा सकें। ऐसी बातें बच्चे पर बहुत बुरा असर डालती हैं। जब उसके सामने माता-पिता की कही बातें झूठ और कोरी गप साबित होती हैं तो उसकी निराशा का ठिकाना नहीं रहता।
विशेषज्ञ कहते हैं कि बच्चे भविष्य के नागरिक हैं। वे जो देखते हैं, वही सीखते हैं। माता-पिता उन्हें वह सिखाएं जैसा वे उन्हें बनाना चाहते हैं। जिंदगी सीधी सडक़ नहीं, ऊबडख़ाबड़ रास्ता है। जिस पर कभी गड्ढे मिलते हैं, कभी ट्रैफिक, कभी इतनी मारामारी कि इसका सामना करना पड़ता है। बच्चों को इम्तिहान भी यही सिखाते हैं कि जैसा अब कर लोगे, समय का सदुपयोग करोगे, अपनी सेहत का ध्यान रखोगे और किसी बात से घबराओगे नहीं, तभी आगे बढ़ोगे। जिंदगी तो तुम्हारी राह देख ही रही है। इसलिए इम्तिहानों की मेहनत और उससे उपजे तनाव से डरने के मुकाबले उसका सामना करो।